शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

फेसबुक हाय रे हाय फेसबुक

दिन भर चिपक के बैठे वेवजह बिना तुक
तौबा ऐ फेसबुक मेरी तौबा ऐ फेसबुक

दिन भर लिखे दीवार पे गन्दा किया करे
अलसाये पड़े काम न धंधा किया करे
अपनी अमोल आँखों को अंधा किया करे
प्रोफ़ाइलें निहारीं किसी की किसी का लुक
तौबा ऐ फेसबुक मेरी तौबा ऐ फेसबुक

हर ग्रुप किसी विचार का धड़ा खड़ा करे
रगड़ा खड़ा करे कभी झगड़ा खड़ा करे
मुद्दा कोई हल्का कोई तगड़ा खड़ा करे
कुछ हल न मिला ज्ञान की मुर्गी हुई कुडु़क
तौबा ऐ फेसबुक मेरी तौबा ऐ फेसबुक

किस बात को बिछाएं क्या बात तह करें
कितना विचार लाएं कितनी जिरह करें
किस बात को किस बात से कैसे जिबह करें
तब तक मगज निचोड़ा जब तक न गया चुक
तौबा ऐ फेसबुक मेरी तौबा ऐ फेसबुक

स्क्रीन पे नज़रें गड़ाए जागते रहे
छोड़ी पढाई और ज्ञान बाँटते रहे
पुचकारते रहे किसी को डाँटते रहे
जब इम्तहान आया दिल बोल उठा ‘धुक’
तौबा ऐ फेसबुक मेरी तौबा ऐ फेसबुक

लाइक करूँ कि टैग करूँ या शेयर करूँ
चैटिंग से किसी की भला कितनी केयर करूं
( इसके कवि का नाम नहीं डाल पा रहा हूं क्योंकि यह भूल गया कि इसे कहां से उठाया था। माफ करना दोस्त कविता चूंकि ठीक है इस कारण..........................)

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