टूट श्रद्धा और विशवास का केंद्र - देव का सूर्य मंदिर 06/11/2008 |
औरंगाबाद 06/नवम्बर/2008/( ITNN )>>>> बिहार के औरंगाबाद जिले के देव स्थित ऐतिहासिक त्रेता युग का पश्चिम मुखी सूर्य मंदिर सदियों से देशी-विदेशी पर्यटकों, श्रद्धालुओं और छठव्रतियोंकी अटूट आस्था का केंद्र बना हुआ है। पुरातत्वविदइस मंदिर का निर्माणकालआठवींशताब्दीके आसपास बताते हैं, लेकिन मंदिर की अभूतपूर्व स्थापत्य कला, शिल्प, कलात्मक भव्यता और धार्मिक महत्ता के कारण ही जानमानसमें यह किंवदतीप्रसिद्ध है कि इसका निर्माण देवशिल्पीभगवान विश्वकर्मा ने स्वयं अपने हाथों से किया है। देव स्थित भगवान भास्कर का विशाल मंदिर अपने अप्रतिम सौंदर्य और शिल्प के कारण सदियों से श्रद्धालुओं, वैज्ञानिकों, मूर्ति चोरों व तस्करों व आमजनोंके लिए आकर्षण का केंद्र है। काले और भूरे पत्थरों की अतिसुंदरकृति जिस तरह उडीसा प्रदेश के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर का शिल्प है, ठीक उसी से मिलता-जुलता शिल्प देव के प्राचीन सूर्य मंदिर का भी है। मंदिर के निर्माणकालके संबंध में उसके बाहर ब्राह्मीलिपि में लिखित और संस्कृत में अनुवादित एक श्लोक जडा है, जिसके अनुसार 12लाख 16हजार वर्ष त्रेतायुग के बीत जाने के बाद इलापुत्रपुरुरवाऐलने देव सूर्य मंदिर का निर्माण आरंभ करवाया। शिलालेख से पता चलता है कि सन 2008ईस्वी में इस पौराणिक मंदिर के निर्माण काल का एक लाख पचास हजार आठ वर्ष पूरा हो गया है। देव मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों दयाचलप्रात:सूर्य, मध्याचलमध्य सूर्य और अस्ताचल अस्त सूर्य के रूप में विद्यमान है। पूरे देश में देव का मंदिर ही एक मात्र ऐसा सूर्य मंदिर है, जो पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुखहै। करीब एक सौ फीट ऊंचा यह सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। बिना सीमेंट या चूना गारा का प्रयोग किए आयताकार, वर्गाकार, अर्द्धवृत्ताकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार आदि कई रूपों और आकारों में काटे गए पत्थरों को जोडकर बनाया गया यह मंदिर अत्यंत आकर्षक व विस्मयकारी है। जनश्रुतियोंके आधार पर इस मंदिर के निर्माण के संबंध में कई किंवदतियांप्रसिद्ध हैं, जिससे मंदिर के अति प्राचीन होने का स्पष्ट पता तो चलता है। लेकिन इसके निर्माण के संबंध में अभी भी भ्रामक स्थिति बनी हुई है। निर्माण के मुद्दे को लेकर इतिहासकारों और पुरातत्व विशेषज्ञों के बीच चली बहस से भी इस संबंध में ठोस परिणाम प्राप्त नहींहोसका है। सूर्य पुराण से सर्वाधिक प्रचारित जनश्रुतिके अनुसार ऐलएक राजा थे, जो किसी ऋषि के श्राप वश श्वेत कुष्ठ से पीडित थे। एक बार वह शिकार करने देव के वनप्रांत में पहुंचने के बाद राह भटक गए। राह भटकते भूखे-प्यासे राजा को एक छोटा सा सरोवर दिखाई पडा, जिसके किनारे वे पानी पीने गए और अंजुरीमें भरकर पानी पिया। पानी पीने के क्रम में वे यह देखकर आश्चर्य में पड गए कि उनके शरीर के जिन जगहों पर पानी का स्पर्श हुआ, उन जगहों के श्वेत कुष्ठ के दाग जाते रहे। इससे अति प्रसन्न और आश्चर्यचकित राजा अपने वस्त्रों की परवाह नहीं करते हुए सरोवर के गंदे पानी में लेट गए और इससे उनका श्वेत कुष्ठ पूरी तरह जाता रहा। अपने शरीर में आश्चर्यजनक परिवर्तन देख प्रसन्नचितराजा ऐलने इसी वन प्रांत में रात्रि विश्राम करने का निर्णय लिया और रात्रि में राजा को स्वप्न आया कि उसी सरोवर में भगवान भास्कर की प्रतिमा दबी पडी है। प्रतिमा को निकालकर वही मंदिर बनवाने और उसमेप्रतिष्ठित करने का निर्देश उन्हें स्वप्न में प्राप्त हुआ। कहा जाता है कि राजा ऐलने इसी निर्देश के मुताबिक सरोवर से दबी मूर्ति को निकालकर मंदिर में स्थापित कराने का काम किया और सूर्य कुंड का निर्माण कराया लेकिन मंदिर यथावत रहने के बावजूद उस मूर्ति का आज तक पता नहींहैं।अभी जो वर्तमान मूर्ति है वह प्राचीन अवश्य है, लेकिन खंडित तथा जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। मंदिर निर्माण के संबंध मेएक कहानी यह भी प्रचलित है कि इसका निर्माण एक ही रात में देवशिल्पीभगवान विश्वकर्मा ने अपने हाथों किया था और कहा जाता है कि इतना सुंदर मंदिर कोई साधारण शिल्पी बना ही नहींसकता।इसके काले पत्थरों की नक्काशी अप्रतिम है और देश में जहां भी सूर्य मंदिर है, उनका मुंह पूरब की ओर है, लेकिन यही एक मंदिर है जो सूर्य मंदिर होते हुए भी ऊषाकालीनसूर्य की रश्मियोंका अभिषेक नहीं कर पाता वरन् अस्ताचलगामीसूर्य की किरणें ही मंदिर का अभिषेक करती हैं। जनश्रुतिहै कि एक बार बर्बर लुटेरा काला पहाड मूिर्त्रयोंव मंदिरों को तोडता हुआ यहां पहुंचा तो देव मंदिर के पुजारियों ने उससे काफी विनती की कि इस मंदिर को कृपया न तोडे क्योंकि यहां के भगवान का बहुत बडा महात्म्यहै। इस पर वह हंसा और बोला यदि सचमुच में तुम्हारे भगवान में कोई शक्ति है तो मै रातभर का समय देता हूं तथा यदि इसका मुंह पूरब से पश्चिम हो जाए तो मैं इसे नहीं तोडूगा। पुजारियों ने सिर झुकाकर इसे स्वीकार कर लिया और वे रात भर भगवान से प्रार्थना करते रहे। सवेरे उठते ही हर किसी ने देखा कि सचमुच मंदिर का मुंह पूरब से पश्चिम की ओर हो गया था और तब से इस मंदिर का मुंह पश्चिम की ओर ही है। कहा जाता है कि एक बार एक चोर मंदिर में आठ मन वजनी स्वर्ण कलश को चुराने आया। वह मंदिर के ऊपर चढ ही रहा था कि उसे कही से गडगडाहट की आवाज सुनाई दी और वह वही पत्थर बनकर सट गया। आज लोग अपने बच्चों को सटे चोर की ओर अंगुली दिखाकर बताते हैं। इस संबंध में पूर्व सांसद, प्रख्यात साहित्यकार व देव के बगल के ही गांव भवानीपुरके रहने वाले स्व. शंकर दयाल सिंह का मानना था कि इसके दो कारण हो सकते हैं। उनमें एक यह कि कोई सोना चुराने नहींआए,इसलिए यह किंवदंती प्रसिद्धि में आई और दूसरी बात यह कि जिसे चोर की संज्ञा दी जाती है वह देखने पर बुद्ध की मूर्ति नजर आती है। उधर, विरोधी रुख रखने वालों में पंडित राहुल सांकृत्यायनप्रमुख हैं जिनके अनुसार यह प्राचीनकाल में बुद्ध मंदिर था, जिसे विधर्मियोंसे भयाक्रांत भक्तजनों ने इसे मिट्टी से पाट दिया था। कहा जाता है कि सनातन धर्म के संरक्षक और संस्कारक शंकराचार्य जब इधर आए तो संशोधित और सुसंस्कृत कर यहां मूर्ति प्रतिष्ठित की। पुरातत्व से जुडे डा. केकेदत्त और पंडित विश्वनाथ शास्त्री ने भी इसकी अति प्राचीनताका प्रबल समर्थन किया है। इस मंदिर के निर्माण से संबंध विवाद चाहे जो भी हो, कोई साफ अवधारणा भले ही नहीं बन पाई हो, लेकिन इस मंदिर की महिमा को लेकर लोगों के मन में अटूट श्रद्धा व आस्था है। यही कारण है कि हर साल चैत्र और कार्तिक के छठ मेले में लाखों लोग विभिन्न स्थानों से यहां आकर भगवान भास्कर की आराधना करते हैं। भगवान भास्कर का यह त्रेतायुगीनमंदिर सदियों से लोगों को मनोवांछित फल देने वाला पवित्र धर्मस्थल रहा है। यूं तो साल भर देश के विभिन्न जगहों से लोग यहां पधारकर मनौतियां मांगने और सूर्यदेव द्वारा उनकी पूर्ति होने पर अर्घ्यदेने आते हैं, लेकिन लोगों का विश्वास है कि कार्तिक व चैती छठ व्रत के पुनीत अवसर पर सूर्य देव की साक्षात उपस्थिति की रोमांचक अनुभूति होती है। |
गुरुवार, 16 जून 2011
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें