लघुकथा हमारी अपनी धरती की उपज है, पाश्चात्य साहित्य की मोहताज नहीं। इसके बीज पंचतंत्र, हितोपदेश, बोधकथा व नीति कथाओं में खोजे जा सकते हैं। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया ने इसे नया नाम व रूप दिया है। नीति कथा आदि में आदर्श पूर्व निर्धारित रहते हैं, जबकि लघुकथा सामयिक जीवन से साक्षात्कार है। उपन्यास व कहानी में संवेदना के निर्वाह के धरातल पर जो अंतर है, वही अंतर लघुकथा को कहानी से अलग करता है। मात्र आकार का अंतर ही इन्हें अलग–अलग विधाओं में नहीं बाँटता। गद्यात्मक व कथा प्रधान होते हुए भी तीनों विधाओं की संवेदना विभिन्न धरातलों पर खड़ी हैं तात्विक समीक्षा के मापदण्डों की समानता के कारण कहानी को उपन्यास से अलग अस्तित्व स्थापित करने में जो कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी, उसी अस्तित्व संकट से लघुकथा को जूझना पड़ रहा है। उपन्यास में जीवन के विविध पक्षों का विश्लेषण संभव है। कहानी जीवन के किसी एक पक्ष की विवेचना करती है। और लघुकथा जीवन–पक्ष के किसी अंश को उजागर भर कर देनी है। लघुकथा में जिन्दगी के विश्लेषण अथवा विवेचन की गुंजायश नहीं रहती। जिं़दगी इतनी तेज़ रफ्तार से भाग रही है कि स्थिति की पृष्ठ भूमि में जाने की अपेक्षा व्यक्ति स्थिति से साक्षात्कार भर कर लेना चाहता है। लघु कहानी आकार में लघु होने के बावजूद कहानी का एक रूप है, जबकि लघुकथा का भेद मात्र आकारगत न होकर अनुभूति की संश्लिष्टता को लेकर है।
लघुकथा कथा का लघुतम रूप है, परन्तु कथा–सारांश नहीं। गद्य में लिखी प्रत्येक लघु रचना लघुकथा नहीं होती। कथा लघुकथा का अनिवार्य तत्व है। कथ्य कथानक की विद्यमानता के बावजूद लघुकथा में कथा कहने की प्रवृत्ति का अभाव पाया जाता है। प्रासंगिक कथा की गुजांइश भी इसमें कम ही रहती है,परन्तु सांकेतिकता की विशिष्टता इसे आंतरिक कथा कहने से वंचित नहीं करती। विस्तार की गुंजाइश न होने के कारण वेग व एकाग्रता से कथ्य के चरम बिन्दु तक पहुँचना इसकी प्रमुख विशेषता मानी जा सकती है। उपन्यास व कहानी की तरह इसका भी एक चरम बिन्दु होता है। साधारणतया लघुकथा का अंतिम वाक्य एक झटके के साथ सम्पूर्ण संवेदना को अभिव्यक्त कर देता है। झटकेदार अंत के साथ चौंकाना या चोट करना लघुकथा की एक विशेषता मानी जा सकती है, अनिवार्यता नहीं। चौंकने के साथ आदमी सचेत अवश्य हो जाता है, सोचने को विवश नहीं होता। लघुकथा चाहे विश्लेषण की पक्षधर नहीं, फिर भी यह पाठक को सोचने के लिए विवश अवश्य करती है। विद्रूप स्थिति का नंगा साक्षात्कार चौंकाने की अपेक्षा सोचने का विषय है।
उपन्यास व कहानी की तरह लघुकथा का दूसरा प्रमुख तत्व मात्र है। लघुकथा केन्द्रीय पात्र की निजी अनुभूति का साक्षात्कार है, जिसे व्यापक आयाम देना लघुकथाकार की अतिरिक्त विशेषता है। पात्र व व्यक्तित्व घटना की परिणति अथवा संवाद के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। वर्णनात्मक ढंग से व्यक्तित्व–विश्लेषण की गुंजायश लघुकथा में कतई नहीं है। लघुकथा व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को नहीं, उसके किसी विशेषक (ट्रेट) को चिह्नि करते हुए कथ्य को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करती है।
सांकेतिकता व सारगर्भित संवाद लघुकथा की मारक प्रवृत्ति के अधिक अनुकूल है। लघुकथा संवाद–शैली में भी लिखी गई है। व्यक्तिगत अन्तविरोधों व सामाजिक विसंगतियों का पर्दापाश करने की यह सशक्त शैली है। स्थिति को प्रतिम्बिधित करने में भी संवाद अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली माध्यम सिद्ध हुआ है।
वर्णनात्मकता के संकोच के कारण परिवेश–चित्रण की अधिक गुंजायश लघुकथा में नहीं है। व्यक्ति की मनोदशा को प्रभावित करने वाले परिवेशगत कारणों पर लघुकथाएँ अवश्य लिखी गई है।
लघु कलेवर के कारण लघुकथा की भाषा अपेक्षाकृत अधिक सांकेतिक रहती है। निजी अनुभूति को व्यापक आयाम देने के लिए ऐसी ही भाषा की आवश्यकता है। लघुकथा का जन–सामान्य से जुड़ा होना भाषा की सुगमता की मांग करता है। लघुकथा को पहेली बनने के संकट से भी मुक्त होना चाहिए। स्वाभाविक के चक्कर में आंचलिक भाषा का आरोपित प्रयोग भी लघुकथा को दुरूह बना सकता है। लघुकथा वर्णनात्मक शैली में अधिक लिखी गई है। संवाद शैली का सफल प्रयोग भी हुआ है। निजी अनुभूति को व्यापक आयाम में प्रस्तुत करने के लिए आत्मचरित शैली अधिक अनुकूल है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि लघुकथा उपन्यास अथवा कहानी का सारांश न होकर स्वतंत्र विधा है। यह संवेदना का सरलीकृत रूप भी नहीं है। कहानी की संवेदना लघुकथा का रूप नहीं ले सकती। लघुकथा तभी लिखी जाती है, जब उसे किसी अन्य विधा में समेटना प्रभावशाली प्रतीत नहीं होता। अतएव सूक्ष्म संवेदना लघुकथा की अनिवार्य शर्त है। यथार्थापेक्षी होने के कारण लघुकथा की संवेदना जीवनानुभूति से स्पर्शित होनी चाहिए। नाम के अनुरूप लघुता इसकी दूसरी शर्त है। सूक्ष्म अनुभूति का सीमित शब्दों में प्रतिबिम्बन सांकेतिकता की माँग करता है। सिकी विचार अथवा अनुभूति का वर्णन लघुकथा नहीं है, लघुकथा उस अनुभूति का प्रतिबिम्बित रूप है। लघुता प्रस्तुतीकरण को मारक बनाती है। सारांशत : सूक्ष्म संवेदना को प्रभावशाली ढंग से व्यापक आयाम में प्रतिबिम्बित करती है।
लघुकथा–लेखन के साथ कुछ संकट–बिन्दु भी जु़ड़े हुए हैं। स्थापित न नए हस्ताक्षरों द्वारा तेजी से लिखी जा रही लघुकथा इसका संकट–बिन्दु नहीं है। संकट–बिन्दु लघुकथा को साहित्यकार बनने की लघुविधि के रूप में दिखाई देता है। नई कलम अन्य विधाओं की अपेक्षा लघुकथा को ही अभिव्यक्ति का माध्यम क्यों चुन रही है? कथा–लेखन का यह रूप साहित्य को जटिल स्थितियों के विश्लेषण से वंचित तो नहीं कर देगा?
लघुकथा न चुटकला है न व्यंग्य का पर्यायवाची शब्द। चुटकले का कार्य गुदगुदाने तक सीमित है। व्यंग्य किसी भी साहित्यिक विधा में, चाहे वह गद्यात्मक हो या पद्यात्मक, समा सकता है, लेकिन इसी से उसे स्वतंत्र विधा या तत्व का अधिकार प्राप्त नहीं हो जाता। लघुकथा व्यंग्यहीन भी हो सकती है। व्यंग्य लघुकथा की भाषागत विशेषता है, उसकी अनिवार्यता नहीं।
लघुकथा के भविष्य के प्रति शंकाएँ पैदा की जा रही है। कहीं व्यवसायिक पत्रों द्वारा इसके व्यक्तित्वहीन होने की बात कही जाती है, तो कहीं इसे स्थिति के समग्र प्रभाव को अभिव्यक्त करने में अक्षम करार दिया जा रहा है। इस पर जुमले बाजी का आरोप भी है। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ अधकचरे लघुकथाकारों के हाथों में पड़कर लघुकथा गाली देने का माध्यम भर बन कर रह गई है, परन्तु इसके बावजूद सशक्त लघुकथाएँ तेजी से लिखी जा रही है। सभी प्रकार की पत्र–पत्रिकाएँ इन्हें धड़ल्ले से छाप रही हैं। समय की मांग के अनुकूल किसी विधा का लोकप्रिय हो उठना, उसके केन्द्रीय विधा बनने की उन्मुखता का परिचायक है। किसी भी विधा का स्वतंत्र अस्तित्व नारे का नहीं, कृतित्व का मोहताज है। नये–पुराने हस्ताक्षरों का इस ओर उन्मुख होना इसके स्वर्णिम भविष्य के प्रति संकेत है। |
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