बुजुर्गों की विरासत को भूल गये लोग जल स्तर गिरने से सूखे कुएं बावड़ी/ कचरा पात्र बने प्राचीन जल स्त्रोत
रघुवीर शर्मा
किसी दौर में एक गाना चला था -
…सुन-सुन रहट की आवाजें यूं लगे कहीं शहनाई बजे, आते ही मस्त बहारों के दुल्हन की तरह हर खेत सजे…
जिस दौर का यह गाना है उस वक्त गांवों के कुएं बावड़ियों पर ऐसा ही नजारा होता था। शायद यही नजारा देख गीतकार के मन में यह पंक्तियां लिखने की तमन्ना उठी होगी। लेकिन अब परिस्थितियां बदल गई है, गांवों में पनघटों पर पानी भरने वाली महिलाओं की पदचाप और रहट की शहनाई सी आवाज शांत है, और पनघट पर पसरा सन्नाटा है।
लोगों की जीवन रेखा सींचने वाले प्राचीन कुएं, बावड़ियां जो हर मौसम में लोगों की प्यास बुझाने थे कचरा डालने के काम के हो गये है। इन परंपरागत जलस्त्रोतों की इस हालत के लिए आधुनिक युग के तकनीक के साथ-साथ सरकारी मशीनरी और हम स्वयं जिम्मेदार है जिन्होंने इनका मौल नहीं समझा। आज भी इनकी कोई फिक्र नहीं कर रहा है। ना तो आम नागरिकों को भी इनकी परवाह है, और नाही सरकार व पेयजल संकट के लिए आंदोलन करने वाले जनप्रतिनिधियों और नेताओं को इनकी याद आती है। सभी पेयजल समस्या को सरकार की समस्या मान कर ज्ञापन सौपते है चक्काजाम करते है और अपनी जिम्मेदारी की इति मान कर चुप बैठ जाते है। सरकार भी जहां पानी उपलब्ध है वहां से पानी मंगाती है लोगों में बंटवाती है और अपने वोट सुरक्षित कर अपनी जिम्मेदारी पूर्ण कर अगले साल आने वाले संकट का इन्तजार करती रहती है।
सिर्फ बातें ही करते हैं
राजस्थान के कई कई कुओं, बावड़ियों में लोग कूड़ा-कचरा फेंक रहे हैं। सरकारी बैठकों में पानी समस्या पर चर्चा के समय कभी-कभी जनप्रतिनिधि और अधिकारी इन कुओं और बावड़ियों की उपयोगिता इसकी ठीक से सार सम्भाल पर बतिया तो लेते हैंं, लेकिन बैठक तक ही उसे याद रखतें हैंं। बाद में इन कुओं, बावड़ियों को सब भूल जाते हैं।पेयजल स्त्रोत देखरेख के अभाव में बदहाल हो गए है व अब महज सिर्फ कचरा-पात्र बनकर के काम आ रहे है। वैसे तो राज्य व केन्द्र सरकार ने प्राचीन जलस्त्रोतों के रखरखाव के लिए कई योजनाएं बना रखी है लेकिन सरकारी मशीनरी की इच्छा शक्ति और राजनैतिक सुस्ती के चलते यह महज कागजी साबित हो रही हैं। इसी कारण क्षेत्र में प्राचीन जलस्त्रोतों का अस्तित्व समाप्त सा होता जा रहा है।
हैण्डपंपों व ट्यूबवेलों को कुआं मान पूजन करने लगे है
हाड़ोति समेत राजस्थान के हजारों प्राचीन कुएं, बावड़ियां जर्जर हालत में है। अनेक तो कूड़ा से भर चुके हैं। इनका पानी भी दूषित हो चुका है।
कुंए- बावड़ी जैसे जलस्त्रोतों का समय-समय पर होने वाले धार्मिक आयोजनों में भी विशेष महत्व होता था। शादी विवाह और बच्चों के जन्म के बाद कुआं पूजन की रस्म अदा की जाती थी लेकिन अब लोग कुओं की बिगड़ी हालत के कारण धार्मिक आयोजनों के समय हेण्डपंपों व ट्यूबवेलों को कुआं मान पूजन करने लगे है।
अकाल में निभाया था साथ
क्षेत्र में यह कुंए करीब डेढ सौ -दो सौ वर्ष पुराने हैं। कस्बे के बुजुर्ग लोगों ने बताया कि सन 1956 के अकाल में जब चारों और पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची थी, उस समय भी इन कुंओ में पानी नहीं रीता था और लोगों ने अपनी प्यास बुझाई थी।
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लेखक रघुवीर शर्मा कोटा के रहने वाले हैं. बचपन अभावों और संघर्षों के बीच गुजरा. ऑपरेटर के रूप में दैनिक नवज्योति से काम शुरू किया. मेहनत के बल पर संपादकीय विभाग में पहुंचे. लेखन और चिंतन करने का शौक है. वैचारिक स्वतंत्रता के समर्थक रघुवीर ब्लागर भी हैं. अपनी भावनाओं को अपने ब्लाग पर उकेरते रहते हैं.
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