शनिवार, 21 मार्च 2015

भविष्य की मीडिया ? / अनामी शरण बबल



 



प्रस्तुति- रिद्धि सिन्हा नुपूर
कल आलोक तोमर (20 मार्च) की चौथी पुण्यतिथि में शामिल होने का मौका मिला । आलोक तोमर   औरअखिल अनूप दिल्ली के मेरे सब से पहले मित्र थे. आलोक से मेरा परिचय तब हुआ था जब में सही मायने में पत्रकार भी नहीं बन पाया था। जनसत्ता की खबरों का अईसा जादू था कि में आलोक जी को पहला पोस्टकार्ड डाला, जिसमें बगैर जाने ही भाभी को भी प्रणाम लिखा, मगर. लौटती डाक से उनका पत्र मिला, जिसमें यह कहकर भाभी को भेजा गया प्रणाम लौटा दिया कि अभी तेरी कोई भाभी नहीं है । यादों में आलोक के इस कार्यक्रम में संगोष्ठी का विषय था भविष्य की मीडिया की चुनौतियां.।   हालांकि इसपर कोई जोरदार हंगामा सा तो नहीं बरपा। मगर मुझे लग रहा है किमीडिया के सामने तो कोई चुनौती है ही नहीं। चुनौती तो तब होती है, जब संघर्ष हो रस्सा कस्सी हो चुनौती से बचने के लिए दम लगाया जा रहा हो। मीडिया तो पहले ही बाजारू धनकुबेरों के सामने घुटने टेक दी है। बाजार और मनी पावर के सामने तो मीडिया ने अपना रंग रूप चेहरा मोहरा आकार प्रकार शक्ल तक बदल सा लिया है। एड के सामने तो पेपर का पहला पेज कितना भीतर घुस गया है यह अब तलाशना पडता है।  कुछ दिन पहले ही हाथी निशान पर बाहरी दिल्ली से एकाएक एक कुबेरपति चुनावी मैदान में उतरा। बसपा मुखिया मायावती  द्वारा टिकट दिए जाने के बाद राजधानी की हर तरह की मीडिया पेपर टीवी वेबसाईट से लेकर लोकल चैनल तक के पत्रकार और एड मैनेजरों ने मानों बसपाई नेता के घर पर डेरा डालकर विज्ञापन के लिए चाकरी करने लगे। . भविष्य की मीडिया का कल क्या होगा यह मीडिया मालिकों और चाकर संपादकों पर निर्भर नहीं है।
सबकुछ मनी पावक धन दस्युओं की हैसियत और इच्छा पर संभव है कि वो मीडिया को रखैल की तरह रखे या सखा की तरह या औजार की तरह अपने हित में रखकर यूज करे  /  24 घंटे तक चीखने चिल्लाने वाले भोंपू चैनलों को देखकर तो अब शर्म आने लगी है। खबरिया चैनलों में खबक किधर है यह खोजी पत्रकारिता का एक शोधपत्र सा बन गया है। खबरिया चैनलों में तो अपना देश हंसता खेलता मुस्कुराता खुशहाल देश दिखता है। . जब तक सौ पचास निर्बल निर्धन लोगों की मौत नहीं होती या आपदा न आ जाए तब तक तो वे इस इडियट बॉक्स के भीतर बतौर एक समाचार घुस नहीं पाते। . मीडिया के भविष्य या भविष्य की मीडिया पर चिंता करने का समय नहीं रह गया है। करोड़ों रूपए लगाकर कोई काला पीला धंधा करके अखबार निकालने वाला कुबेर में इतना कहां जिगरा होता है कि वो घाटे के साथ साथ अपने रिश्तों को भी खराब करे। . पेपर या दिन रात बजने वाला भोंपू निकाल कर तो वह रातो रात अरबपति बनने या राज्यसभा में घुसने का सपना देखता है,  जिसमें अमूमन ज्यादातर कुबेर राज्यसभा में आ ही जाते है। एक समय था कि अपने काले धंधे का सफेद बनाने के लिए माफिया बिल्डर जैसे लोग मीडिया को एक कवच की तरह अपनाते थे, मगर अब दौर बदल सा गया है अब तो तेजी से बढते हुए मीडिया के धंधे से होने वाली काली कमाई को गति और दिशा देने के लिए मीडिया मालिक बिल्डर प्रोपर्टी डीलर का धंधा बडे पैमाने परअपनाकर  फैला रहे है।  तो भविष्य की पत्रकारिता या मीडिया पर चिंता करके अपना रक्तचाप बढाना बेकार है, क्योंकि तमाम धंधेबाज मीडिया मालिक तो खुद को बाजार के सामने नतमस्तक हो गए है। यह साधारण बिषय नहीं है इस पर अभी बहुत काम होना बाकी है , मगर मैं भाजपा के शिखर नेता लाल कृष्ण आडवाणी  की आपातकाल के समय मीडिया पर एक की गयी टिप्पणी के साथअपनी बात समाप्त करूंगा कि   मीडिया की क्यों चिंता करते हो इसे अगर झुकने के लिए कहोगे तो यह नतमस्तक होकर रेंगने लगेगा।  . शायद 40 साल पहले लालजी कि यह बात सुनकर ज्यादातर पत्रकार लाल हो गए हो , मगर आज के माहौल को देखकर तो ज्यादातर पत्रकार मारे शर्म के पानी पानी हो जाएंगे,।  क्योंकि पत्रकारिता का कोई फ्यूचर नहीं रह गया है बस बाजार के लिहाज से जो भला होगा वही पत्रकारिता होगी .  . 

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