शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

जनता का रिपोर्टर. / कोई अपना होता /


: अपनी बात / कोई अपना होता 

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 जनता का रिपोर्टर / अनामी शरण बबल 

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अपने बारे में कुछ भी  कहना सोचना या लिखना सबसे कठिन होता हैं. ख़ासकर एक पत्रकार के लिए तो औऱ भी कठिन होता हैं. पत्रकारिता में भी ख़ासकर रिपोर्टर के लिए जो दूसरों क़ो बेनकाब कर देना ना खाल उतार देना या शब्दों से किसी क़ो बेलिबाद करने में मीडियाकर्मियों क़ो मजा आता हैं. खिचाई करने में उस्ताद पत्रकारों क़ो ही आज सबसे ऊर्जावान तेज तरार औऱ बढ़िया पत्रकार  की तरह देखा और माना भी जाता हैं, मगर जब अपने आप क़ो देखने अपने ऊपर ही कुछ लिखने की बारी आती हैं तो बड़े बड़े पत्रकारों की भी हालत पतली हो जाती हैं. औऱ सच भी तो यही हैं कि अपने मियां मिट्ठू बनना किसी भी रिपोर्टर / पत्रकार क़ो कभी रास भी नहीं आता. 

जो भी लड़का या लड़की जब पत्रकार बनता हैं उसके मन में आम जनता के प्रति एक खास तरह का लगाव सहानुभूति औऱ उसक़ो अन्याय से बचाने  की ललक मन में काम करती हैं.  पत्रकार समाज का एक अघोषित वकील या दबंग समाजसेवी की तरह होता है  जो किसी अन्याय के सामने कभी खामोश नहीं रह पाता. समाज की पहरेदारी  का ऐसा जुनून ही पत्रकार की सबसे बड़ी और पहली खासियत होती है.औऱ इसी जुनून में एक पत्रकार अपनी एक खास छवि औऱ पहचान के लिए लीक से हटकर खतरों या चुनौतियो की परवाह किये बिना भी ( ही ) कुछ अलग विशेष कामकर बैठता है.


 बिहार के औरंगाबाद जिला के देव कस्बे की हालत किसी से छिपी नहीं है. 1984-87 तक दैनिक अख़बार दोपहर बारह बजे के बाद गया से आने वाली बिहार राज्य की सरकारी बस जिसे लोग डाक गाड़ी भी कहते थे , उससे आती थी.100 से भी कम. अखबारों की प्रतियों  की  खपत वाले देव में रोजाना अख़बार दोपहर दो बजे के बाद ही मिलती थी. जब शहरों में अख़बार कूड़े की तरह कोने में डाल दिया जाता है. ऐसे माहौल में पत्रकार बनने के लिए सोचना भी आत्महत्या करने के बराबर ही था मगर कोई  पत्रकार बनता नहीं बल्कि उसके भीतर नाम का केमिकल ही सबसे अलग होता है यह लोचा किसी युवक क़ो आत्मदाह करने के रास्ते की तरफ घसीट लेता है. कुछ नाम का नशा  तो कुछ ओरो से अलग खास दिखने का नशा या ललक के वशीभुत होकर ही पत्रकार बनने का नशा ही जीवन भर भ्रमित रखता है. औऱ  आज साढ़े तीन दशक के बाद यह स्वीकरने के सिवा और कोई चारा भी नहीं है की आज तक पत्रकार बनने के अलावा ना कभी सोचा. सच तो यह हैँ कि आज के मॉडर्न इंडिया  में कोई औऱ काम के लायक भी मैं खुद क़ो अब नहीं पाता या आज़माया ही.  जीना इसी में और खटना खपना भी इसी में, के अलावा मन में कोई और स्वप्न भी नहीं आता. पत्रकार बनना मेरी नियति है या उपलब्धि इस पर कुछ कहना भी मेरे लिए सरल नहीं.  


हालांकि अपनी जन्मभूमि प्रदेश बिहार क़ो ही मैंने सबसे कम देखा और जाना. आज भी मन से मैं बिहारी हूँ. लोग अपनी पहचान छिपाते है मगर मुझे आज भी गर्व है की मैं बिहार का हूँ. मेरा बिहार सोने का बिहार है.  छोटे से कस्बे जिसे देहात भी कहाँ जाय, में रहते हुए ना मैं दबंग था  औऱ ना ही दिलेर.. किसी से बेवजह उलझना मेरी आदत नहीं थी तो सब कुछ खामोश रह के सह जाना भी मंजूर नहीं. कुल मिलाकर डरपोक नहीं था स्पष्ट बोलना  मेरा स्वभाव है. खतरों से खेलना कभी अपन स्वभाव नहीं था मगर सच के लिर किसी को साफ साफ कह देना ही अपना स्वभाव हैं.  


पिछले 35 सालों में नाना प्रकार के अनगिनत लोगों से मिला, सैकड़ों यात्राए की औऱ  सैकड़ों बार प्रत्याशित अप्रत्याशित माहौल परिस्थितियों से दो चार भी हुआ . जिन पर फिर विस्तार से बातें होंगी, मगर मेरी तरह ही लगभग सभी पत्रकारों क़ो कभी पुलिस कभी दबंगो गुंडों से धमकी औऱ मार पीट का सामना करना पड़ा होगा. मगर कलम क़ो दबाने की हर कोशिश बेकार जाती है क्योंकि इन हादसों से कलम औऱ मजबूत निडर      बन जाती है.




 जिनसे पड़ा अपना पाला इस पर कभी कैसे कैसे जाने अनजाने मनमाने लोगो से मुलाक़ात क़ो लिखना भी बड़ी रोचक दस्तावेज बनेगा. मगर मूलतः पत्रकारिता संबंधों का खेल होता है. जिसके संबंध जितना मजबूत होता है वही सफल औऱ बेहतरीन पत्रकार बनता है. मेरे संबंधों की सूची में यदि धुरंधरों की भरमार है तो उससे भी ज्यादा क्लास तीन औऱ चार के ऐसे ऐसे लोग मेरे सूत्र बने और सालोसाल मित्र बने रहें तो उसमें आपसी विश्वास का संबल ही मुख्य रहा. गांव देहात के हर तबके के लोगों की मदद ने मुझे हमेशा आगे रखा. गांव देहात के दर्जनों लोगो ने मेरे लिए किसी रिपोर्टर की तरह मेरे कहने पर इधर उधर जाकर काम किया और मेरे अंध विश्वास क़ो अपने निश्छल योगदान से मेरे विश्वास क़ो हमेशा पुख्ता किया. कुछ पार्षद विधायक तो कुछ सरकारी कर्मचारियों ने ढेरों फ़ाइल मेरे टेबल तक उपलब्ध कराया जिसकी खबर छपने के बाद अनेको घपले घोटाले सामने आ गये.l 


पत्रकारिता के अपने सफर पर कहने के लिए मन में बहुत सारी बातें है, मगर इस किताब के लिए समय इतना कम मिला हाथ में था की दर्जन भर संस्मरण तो मैं लिखें ही नहीं  सका  ख़ासकर बच्चे  के लिए बच्चों की हत्या या  करने वाले पंडितो ओघड़ो पर की गयी खोजपरक  रिपोर्ट.  पश्चिमी  यूपी में माफियाओ पर की गयी खोजबीन पर फिर से काम की जरुरत है क्योंकि लगभग दो दशक के बाद माफियाओ का आतंक पूरे उतर भारत में चल रहा है. ख़ासकर मोबाइल ने अपराध क़ो भी मोबाइल बना  दिया. संचार क्रांति युग में मोबाइल और सीसी टीवी  कैमरा ने अपराध और अपराधियों क़ो भी डिजिटल बना दिया हैँ

कुछ बातें अब किताब पर भी कर लें  इस किताब में मेरी पत्रकारिता की आंशिक झलक हैँ मैंने बड़े यानी नेताओं नौकशाहो की खबर देने की बजाय सामान्य जन क़ो हमेशा प्रमुखता दी  मैंने खुद क़ो हीआज तक  जनता का रिपोर्टर माना हैँ  जिसकी कोई खबर नहीं लेता वही मेरा नायक होता हैँ  बहरहाल पहला खंड कोई अपना होता हैँ. जिसमें देश की वेश्याओं कॉल गर्ल ज़बरन धंधे की शिकार बनी मासूम लड़कियो की कहानी हैँ जिनसे जानें अनजाने मनमाने  तरीको से टकरा गया इन लड़कियो से हुई बातचीत क़ो ही शब्दश : रखने की कोशिश की हैँ. पहली मुलाक़ात अपने गृह जिला  औरंगाबाद की हैँ जहाँ पर मैं देखते ही देखते कोठेवाली मौसियों का बेटा बन गया. आगरा के बसई गांव के कोठे पर जाना मेरे लिए लगभग असंभव था. दो बार पुलिस चौकी से ही कैमरा टूटवा कर बैरंग वापस आना पड़ा. आगरा के दर्जनों युवा  नेताओं क़ो मित्र बनाकर भी मुगलकालीन ऐतिहासिक वेश्यालय बसई क़ो देखना मुमकिन नहीं हो रहा था. मगर भला हो की सहारनपुर के एसएसपी  BL यादव  की जिनसे अपनी  दोस्ती का बेहतरीन रिश्ता था और वे DIG बन कर आगरा आ गये तब कहीं जाकर बसई जानें का सपना साकार हुआ. दिल्ली में वेश्याओं के गांव प्रेमनगर में दर्जनों बार जाना हुआ या एक कॉल गर्ल के साथ रात में रिक्शे पर सफऱ से लेकर रीगल सिनेमा के बाहर  एक पेशेवर धंधे वाली से टकरा गया तब जाकर सिनेमाहाल में चंद रूपये में साथ साथ सिनेमा देखने के नाम पर बाह्य सुख  या पैसे वाला प्यार क़ो जाना. दिल्ली के विख्यात GB रोड  के कोठे पर जानें की मेरे मन में बड़ी लालसा थी  उनके जीवन क़ो जानने की लालसा यकायक पूरी हुई इसकी कहानी भी दिलचस्प है.  देह धंधा के माफियाओ से  Takkar लेती दो लड़कियो की कहानी भी इस भरोसे क़ो संबल देती हैँ की पैसे की चमक दमक से सब लोग मोहित नहीं होते एक पत्रकार के रुप में तो इनसे मिला मगर एक ग्राहक की तरह इनके हाव भाव देखने की ललक के अभिभूत होकर एक मित्र के साथ  जीबी रोड गया तो  मेरे द्वारा चयनित लड़की मेरी उदासीनता और बातचीत के लिए इच्छुक होने पर बीच में ही मुझे छोड़ उलाहने के साथ रोती हुई कमरे से 

बाहर चली गयी.  


जिनसे पड़ा अपना पाला में ढेरों लोगों से मिलने का मौका मिला उन खट्टी मीठी मुलाकातों तकरारो झड़पो और कभी नखरे नजाकतो के बीच दर्जन भर लोगों की कहानी हैँ तो जैसा मैंने देखा में दो रिपोर्टिंग का उल्लेख करूंगा जब बीकानेर में मजदूर बनकर पाक भारत बोर्डर पर गया  यह तो मेरा सौभाग्य था कि बोर्डर पर मैनेजर बिहार का था और झूठ बोल कर किसी तरह वापस लौटा. तो आतंकवाद से लगभग 12 साल तक लहूलुहान पंजाब में,1992 में लोकतंत्र की नींव पड़ी और विधानसभा चुनाव के बाद  बेअंत सिंह की सरकार बनी  सरकार के एक साल पूरा होने पर कितना बदला पंजाब का जायजा लेने चंडीगढ़ गया तो वह दौरा भी  30 साल के बाद भी आतंकवाद से बाहर निकलते पंजाब की एक रोचक दास्तान की तरह हैँ. हालांकि समय इतना कम था की मेनका गाँधी  समेत कई घटनाओं क़ो लिख ही नहीं पाया. अलबत्ता अपने कॉलेज लाइफ की एकसाल की मोहकता क़ो जरूर दे रहा हूँ  वही  पूजा बेदी और पूजा भट्ट के साथ 1992 में एक साथ एक ही कमरे में हुई  बातचीत का मजा तो पढ़कर ही लिया जा सकता हैँ   वही मोबाइल से मोहित दीवानी दुनियां की दीवानगी पर छोटी छोटी कोई 20-22 कविताओं का मोबाइल पुराण देने का लोभ छोड़ नहीं पाया. शायद मोबाइल के अनेको फेस क़ो चरितार्थ करती ये कविताएं आज भी मोबाइल पर लिखी गयी शुरूआती कविताओj में एक हैँ   कुल मिलाकर मेरे लंबे काम धाम की यह महज़ झांकी हैँ . दो तीन किताब तो और बन ही सकती हैँ




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और अंत  में इस किताब के लिए किसी के प्रति भी आभार जताना शायद सबसे  खतरनाक होगा, क्योंकि मेरे सर पर इतने लोगो का हाथ है की किसी एक क़ो भी भूल जाना उनके प्रति अन्याय होगा. तो सबसे बचने के लिए यही सरल रास्ता होगा कि मेरे सभी अपनों या चाहने वालों  क़ो यह किताब समर्पित है. इस पर सबका हक़ है. इसके बावजूद अपने भाई की तरह प्रिय शंकर के प्रति आभार जताना जरूरी है. उसने जबरन मुझसे एक सप्ताह में इस किताब क़ो तैयार करवा क़र ही दम  लिया. उसके बगैर शायद इस किताब का आना मुमकिन ही नहीं था.या होता. विषधर शंकर के प्रति आभार जताना  महज़ केवल औपचारिकता भर हैँ जबकि उसका काम श्रम लगन और ललक इससे कहीं ज्यादा मूल्यवान हैँ  


अनामी शरण बबल 

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