आपतकाल के दौरान इंदिरा विरोधियों द्वारा रचित यह पैरोडी काफी लोकप्रिय था ना कोई रहा है ना कोई रहेगा
इंदिरा तेरी है जाने की बारी ना कोई रहा है ना कोई रहेगा। सहारा का भी यही हाल है।जब मालिक अपने सिर पर बैठाकर छूट देता है तो ज्यादातर लोग सहाईयों के सिर पर मूतने लगते है। इसके मालिक सहारा श्री स्वनाम धन्य सुब्रत राय आदमी तो बहुत अच्छे हैं, मगर उनके इर्द गिर्द दलालो चम्मचों की पुरी फौज सहारा विरोधी है। चाटूकारिता करके अपनी सेलरी बढाने वाला और सहाराईयों के चूतड़ पर नौकरी संकट का भय दिखाकर शांत रहने के लिए विवश करने वाला यह टीम ेक गैंग है।सुब्रत राय पेपर और टीवी को बनाना तो देश का नंबर वन चाहते हैऔर निसंदेह पैसों की कमी भी कभी नहीं रहती, मगर पूरा अखबार और टीवी ही उन हाथों में है जिन्हे काम से ज्यादा चाम प्यारा है। 12 साल तक सहारा में रहने के बाद अमर उजाला में गया। वहां जाना और संपादक शशिशेखऱ भी एक माफिया की तरह काम करते थे। क्या मजाल कि कोई चूं भी कर ले। हां तो हम बात कर रहे थे सहारा कि। सहारा श्री की पसंद तेजी से बदलती है।यही वजह है कि जो सहारा में हेड बनता नहीं है कि उससे पहले उलके निकाल बाहरकिए जाने की रणनीति पर काम होने लगता है।पीपी बाजपेयी हो या बीबीसी वाले संजीव श्रीवास्तव यहां से कब आकर चले गए यह बहुतों को पता तक नहीं चला। सहाराश्री जितने मधुर भाषी हैं(अपने कर्मचारियों के सामने) उतने ही बदतमीजकिस्म के संपादक है (नाम तो याद नहीं पर कोई सिंह शायद रणवीर सिंह)है।जो कर्मचारियों से गालीगलौज स्टाईल में बात करते है। हालांकि मुझे गाली खाने का सौभाग्य नहीं हुआ मगर सीपी दफ्तर में क्राइम रिर्पोटर रहे अंजय सिन्हा के सिंह की बात करने की शैली सहाराश्ह तक को शर्मसार करने के लिए काफी है। में कोई बड़ा सहनशील टाईप का आदमी कतई नहीं हूं। मगर चीफ रिर्पोटर विद्याशंकर तिवारी की तैश भरी बातों का उसी शैली में जवाब देने की वजह से संपादक गोविंद दीक्षित ने मुझे निलंबितकरके डेस्क पर एक साल तक रखने की बतौर सजा दी। जबकि तिवारी को देर से आने की वजह बताकर ही मैं देर से दफ्तर आया था। खैर 12 साल रहते हुए मेरा नेचर हमेशा सबों के साथ मिलकर चलने वाली रही, मगर सहारा में अंबिकानंद सहाय जैसा बेवकूफ आदमी भी कभी सीईओ रहे जिसका काम केवल सहारा के हवाई जहाज से दिल्ली लखनऊ करने में ही गुजरता था। सहारा एक साथ ही स्वर्गऔर नरक है। ज्यादातर लोग निठ्टले बैठकर मस्ती चुगलखोरी और चापलूसी के बूते आनंद के साथ जीवन काट रहे है। वहीं केवल और केवल काम करने वाले लोग यहां पर नरक भोग रहे है।जिनके लिए समय पर वेतन प्रोन्नति,प्रोत्साहन कभी नसीब नहीं होता।रूखा सूखा हताश सा वह सहाराई कैम्पस में छटपटा रहा है।फिर भी सबों के निशाने पर वही रहता है। मालिकों द्वारा वादा तो किया जाता है , मगर गुर्गो के चलते उसका पालन नहीं होता। एक समय संपादक रहे राजीव सक्सेना के कहने( बहकावे का ना देना सरासर गलत होगा) पर सीपी में काम करने वाले हम 14-15 लोगों ने इस्तीफा दे दिया। प्रबंधन तक इस्तीफा पहुंचते ही जयब्रत राय द्वारा फौरन मेरे घर पर अजय पांडेय और संजय श्रीवास्तव को भेजकर मुझे बुलाया गया।छोटे साहब ने फटकारते हुए लताड़ा और काम करने को कहा। संस्थान से दगाबाजी करने के ऐरोप में हमलोगों का एक हजार रूपए की वेतन बढ़ोतरी रोक दी गई। मगर अजय पांड़ेय ने डेढ़ साल तक पैसा दिलाने का स्वप्नजाल बूनते रहे। में लगातार उन्हे कहता रहा।हमेशा भरोसा देते देते एक दिन अजय ने बेशर्मी से यह कह डाला कि इसका वादा तो मैंने कभी नहीं किया था। और इस तरह हम लोगों को एक वेतन बढ़ोतरी से वंचित रहना पड़ा था। पद पाकर आदमी में गरमी आ ही जाती है, मगर क्या कहे साहारा में आदमी सत्ता पाते ही पगला जाता है। जैसा कि पहले के उदाहरण है। राय ेंड़ कंपनी का यह कारनामा कोई नया नहीं है. गिन गिन कर राय सर्मथकों की खबर ली जाएगी। और जिस दिन स्वतंत्र मिश्र जैसे संपादकों पर गाज(वैसे 202 साल से मिश्र जी यहीं है) गिरी तो नया आने वाला बंदा खुर्दबीन लगाकर मिश्रा के ईदमियों को चुनचुन कर गब्बर की तरह पहले मारेगा।दो दशक से सहारा शैली की यही कहानी है। जहां पर आदमी की काबलियत से ज्यादा उसके चारण गुण को तरजीह दी जाती है।
इंदिरा तेरी है जाने की बारी ना कोई रहा है ना कोई रहेगा। सहारा का भी यही हाल है।जब मालिक अपने सिर पर बैठाकर छूट देता है तो ज्यादातर लोग सहाईयों के सिर पर मूतने लगते है। इसके मालिक सहारा श्री स्वनाम धन्य सुब्रत राय आदमी तो बहुत अच्छे हैं, मगर उनके इर्द गिर्द दलालो चम्मचों की पुरी फौज सहारा विरोधी है। चाटूकारिता करके अपनी सेलरी बढाने वाला और सहाराईयों के चूतड़ पर नौकरी संकट का भय दिखाकर शांत रहने के लिए विवश करने वाला यह टीम ेक गैंग है।सुब्रत राय पेपर और टीवी को बनाना तो देश का नंबर वन चाहते हैऔर निसंदेह पैसों की कमी भी कभी नहीं रहती, मगर पूरा अखबार और टीवी ही उन हाथों में है जिन्हे काम से ज्यादा चाम प्यारा है। 12 साल तक सहारा में रहने के बाद अमर उजाला में गया। वहां जाना और संपादक शशिशेखऱ भी एक माफिया की तरह काम करते थे। क्या मजाल कि कोई चूं भी कर ले। हां तो हम बात कर रहे थे सहारा कि। सहारा श्री की पसंद तेजी से बदलती है।यही वजह है कि जो सहारा में हेड बनता नहीं है कि उससे पहले उलके निकाल बाहरकिए जाने की रणनीति पर काम होने लगता है।पीपी बाजपेयी हो या बीबीसी वाले संजीव श्रीवास्तव यहां से कब आकर चले गए यह बहुतों को पता तक नहीं चला। सहाराश्री जितने मधुर भाषी हैं(अपने कर्मचारियों के सामने) उतने ही बदतमीजकिस्म के संपादक है (नाम तो याद नहीं पर कोई सिंह शायद रणवीर सिंह)है।जो कर्मचारियों से गालीगलौज स्टाईल में बात करते है। हालांकि मुझे गाली खाने का सौभाग्य नहीं हुआ मगर सीपी दफ्तर में क्राइम रिर्पोटर रहे अंजय सिन्हा के सिंह की बात करने की शैली सहाराश्ह तक को शर्मसार करने के लिए काफी है। में कोई बड़ा सहनशील टाईप का आदमी कतई नहीं हूं। मगर चीफ रिर्पोटर विद्याशंकर तिवारी की तैश भरी बातों का उसी शैली में जवाब देने की वजह से संपादक गोविंद दीक्षित ने मुझे निलंबितकरके डेस्क पर एक साल तक रखने की बतौर सजा दी। जबकि तिवारी को देर से आने की वजह बताकर ही मैं देर से दफ्तर आया था। खैर 12 साल रहते हुए मेरा नेचर हमेशा सबों के साथ मिलकर चलने वाली रही, मगर सहारा में अंबिकानंद सहाय जैसा बेवकूफ आदमी भी कभी सीईओ रहे जिसका काम केवल सहारा के हवाई जहाज से दिल्ली लखनऊ करने में ही गुजरता था। सहारा एक साथ ही स्वर्गऔर नरक है। ज्यादातर लोग निठ्टले बैठकर मस्ती चुगलखोरी और चापलूसी के बूते आनंद के साथ जीवन काट रहे है। वहीं केवल और केवल काम करने वाले लोग यहां पर नरक भोग रहे है।जिनके लिए समय पर वेतन प्रोन्नति,प्रोत्साहन कभी नसीब नहीं होता।रूखा सूखा हताश सा वह सहाराई कैम्पस में छटपटा रहा है।फिर भी सबों के निशाने पर वही रहता है। मालिकों द्वारा वादा तो किया जाता है , मगर गुर्गो के चलते उसका पालन नहीं होता। एक समय संपादक रहे राजीव सक्सेना के कहने( बहकावे का ना देना सरासर गलत होगा) पर सीपी में काम करने वाले हम 14-15 लोगों ने इस्तीफा दे दिया। प्रबंधन तक इस्तीफा पहुंचते ही जयब्रत राय द्वारा फौरन मेरे घर पर अजय पांडेय और संजय श्रीवास्तव को भेजकर मुझे बुलाया गया।छोटे साहब ने फटकारते हुए लताड़ा और काम करने को कहा। संस्थान से दगाबाजी करने के ऐरोप में हमलोगों का एक हजार रूपए की वेतन बढ़ोतरी रोक दी गई। मगर अजय पांड़ेय ने डेढ़ साल तक पैसा दिलाने का स्वप्नजाल बूनते रहे। में लगातार उन्हे कहता रहा।हमेशा भरोसा देते देते एक दिन अजय ने बेशर्मी से यह कह डाला कि इसका वादा तो मैंने कभी नहीं किया था। और इस तरह हम लोगों को एक वेतन बढ़ोतरी से वंचित रहना पड़ा था। पद पाकर आदमी में गरमी आ ही जाती है, मगर क्या कहे साहारा में आदमी सत्ता पाते ही पगला जाता है। जैसा कि पहले के उदाहरण है। राय ेंड़ कंपनी का यह कारनामा कोई नया नहीं है. गिन गिन कर राय सर्मथकों की खबर ली जाएगी। और जिस दिन स्वतंत्र मिश्र जैसे संपादकों पर गाज(वैसे 202 साल से मिश्र जी यहीं है) गिरी तो नया आने वाला बंदा खुर्दबीन लगाकर मिश्रा के ईदमियों को चुनचुन कर गब्बर की तरह पहले मारेगा।दो दशक से सहारा शैली की यही कहानी है। जहां पर आदमी की काबलियत से ज्यादा उसके चारण गुण को तरजीह दी जाती है।
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