सोमवार, 30 अगस्त 2021

उपहार ( लोक कथा )

पुराने जमाने की बात है। एक राजा ने दूसरे राजा के पास एक पत्र और साथ में सुरमे की एक छोटी सी डिबिया का उपहार भेजी। 

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पत्र में लिखा था कि जो सुरमा भिजवा रहा हूं, वह अत्यंत मूल्यवान है। 

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इसे लगाने से अंधापन दूर हो जाता है। 

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राजा सोच में पड़ गया। वह समझ नहीं पा रहा था कि इसे किस-किस को दे।

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उसके राज्य में नेत्रहीनों की संख्या अच्छी-खासी थी, 

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पर सुरमे की मात्रा बस इतनी  थी जिससे दो आंखों की रोशनी लौट सके। 

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राजा इसे अपने किसी अत्यंत प्रिय व्यक्ति को देना चाहता था।

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तभी राजा को अचानक अपने एक वृद्ध मंत्री की स्मृति हो आई। 

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वह मंत्री बहुत ही बुद्धिमान था, मगर आंखों की रोशनी चले जाने के कारण उसने राजकीय कामकाज से छुट्टी ले ली थी और घर पर ही रहता था।

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राजा ने सोचा कि अगर उसकी आंखों की ज्योति वापस आ गई तो उसे उस योग्य मंत्री की सेवाएं फिर से मिलने लगेंगी।

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राजा ने मंत्री को बुलवा भेजा और उसे सुरमे की डिबिया देते हुए कहा, ‘इस सुरमे को आंखों में डालें। 

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आप पुन: देखने लग जाएंगे।

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ध्यान रहे यह केवल 2 आंखों के लिए है।’ 

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मंत्री ने एक आंख में सुरमा डाला। 

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उसकी रोशनी आ गई। उस आंख से मंत्री को सब कुछ दिखने लगा। 

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फिर उसने बचा- खुचा सुरमा अपनी जीभ पर डाल लिया। 

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यह देखकर राजा चकित रह गया। 

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उसने पूछा, ‘यह आपने क्या किया? 

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अब तो आपकी एक ही आंख में रोशनी आ पाएगी।

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लोग आपको काना कहेंगे।’

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मंत्री ने जवाब दिया, ‘राजन, चिंता न करें। 

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मैं काना नहीं रहूंगा। मैं आंख वाला बनकर हजारों नेत्रहीनों को रोशनी दूंगा। 

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मैंने चखकर यह जान लिया है कि सुरमा किस चीज से बना है। 

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मैं अब स्वयं सुरमा बनाकर नेत्रहीनों को बांटूंगा।’ 

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राजा ने मंत्री को गले लगा लिया और कहा, 

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‘यह हमारा सौभाग्य है कि मुझे आप जैसा मंत्री मिला। 

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अगर हर राज्य के मंत्री आप जैसे हो जाएं तो किसी को कोई दुख नहीं होगा।

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 ((((((( जय जय श्री राधे )))))))

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बुधवार, 25 अगस्त 2021

*🕉वामन अवतार🕉*

वामन अवतार हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतारों में से पाँचवें अवतार हैं जो भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की द्वादशी को अवतरित हुए।*


*🌻आचार्य शुक्र ने अपनी संजीवनी विद्या से बलि तथा दूसरे असुरों को भी जीवित एवं स्वस्थ कर दिया था। राजा बलि ने आचार्य की कृपा से जीवन प्राप्त किया था। वे सच्चे हृदय से आचार्य की सेवा में लग गये।*


 *🌻शुक्राचार्य प्रसन्न हुए। उन्होंने यज्ञ कराया। अग्नि से दिव्य रथ, अक्षय त्रोण, अभेद्य कवच प्रकट हुए। आसुरी सेना अमरावती पर चढ़ दौड़ी। इन्द्र ने देखते ही समझ लिया कि इस बार देवता इस सेना का सामना नहीं कर सकेंगे। बलि ब्रह्मतेज से पोषित थे। देवगुरु के आदेश से देवता स्वर्ग छोड़कर भाग गये।* 


*🌻अमर-धाम असुर-राजधानी बना। शुक्राचार्य ने बलि का इन्द्रत्व स्थिर करने के लिये अश्वमेध यज्ञ कराना प्रारम्भ किया। सौ अश्वमेध करके बलि नियम सम्मत इन्द्र बन जायँगे। फिर उन्हें कौन हटा सकता है। यह देख कर देवमाता अदिति अत्यन्त दुखी थीं। उन्होंने अपने पति महर्षि कश्यप से उन्होंने प्रार्थना की। महर्षि तो एक ही उपाय जानते हैं- भगवान की शरण, आराधना। अदिति ने भगवान की आराधना की। प्रभु प्रकट हुए।* 


*🌻अदिति को वरदान मिला। उन्हीं के गर्भ से भगवान प्रकट हुए। तत्काल वामन ब्रह्मचारी बन गये। महर्षि कश्यप ने ऋषियों के साथ उनका उपनयन संस्कार सम्पन्न किया। भगवान वामन पिता से आज्ञा लेकर बलि के यहाँ चले। नर्मदा के उत्तर-तट पर असुरेन्द्र बलि अश्वमेध-यज्ञ में दीक्षित थे। यह उनका अन्तिम अश्वमेध था। छत्र, पलाश, दण्ड तथा कमण्डलु लिये, जटाधारी, अग्नि के समान तेजस्वी वामन ब्रह्मचारी वहाँ पधारे। बलि, शुक्राचार्य, ऋषिगण, सभी उस तेज से अभिभूत अपनी अग्नियों के साथ उठ खड़े हुए। बलि ने उनके चरण धोये, पूजन किया और प्रार्थना की कि जो भी इच्छा हो, वे माँग लें। मुझे अपने पैरों से तीन पद भूमि चाहिये! बलि के कुल की शूरता, उदारता आदि की प्रशंसा करके वामन ने माँगा। बलि ने बहुत आग्रह किया कि और कुछ माँगा जाय पर वामन ने जो माँगना था, वही माँगा था।* 


*🌻एक पग में पृथ्वी, एक में स्वर्गादि लोक तथा शरीर से समस्त नभ व्याप्त कर लिया उन्होंने।*


*🌻उनका वाम पद ब्रह्मलोक से ऊपर तक गया। उसके अंगुष्ठ-नख से ब्रह्माण्ड का आवरण तनिक टूट गया। ब्रह्मद्रव वहाँ से ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट हुआ। ब्रह्मा जी ने भगवान का चरण धोया और चरणोदक के साथ उस ब्रह्मद्रव को अपने कमण्डलु में ले लिया। वही ब्रह्मद्रव गंगा जी बना। तीसरा पद रखने को स्थान कहाँ है? भगवान ने बलि को नरक का भय दिखाया। संकल्प करके दान न करने पर तो नरक होगा।*


*🌻इसे मेरे मस्तक पर रख ले! बलि ने मस्तक झुकाया। प्रभु ने वहाँ चरण रखा। बलि गरुड़ द्वारा बाँध लिये गये।*


*🌻तुम अगले मन्वन्तर में इन्द्र बनोगे! तब तक सुतल में निवास करो। मैं नित्य तुम्हारे द्वार पर गदापाणि उपस्थित रहूँगा। दयामय द्रवित हुए। प्रह्लाद के साथ बलि सब असुरों को लेकर स्वर्गाधिक ऐश्वर्यसम्पन्न सुतल लोक में पधारे। शुक्राचार्य ने भगवान के आदेश से यज्ञ पूरा किया।*


*🙏जय श्री हरि🙏*

शुक्रवार, 20 अगस्त 2021

अनामी शरण बबल की रिपोर्ताज कहानियों पर DEI आगरा की डीन सुश्री शर्मिंला सक्सेना की टिप्पणी


दयालबाग DEI  आगरा ) की डीन  सुश्री शर्मिला सक्सेना  जी की मेरी  रिपोर्ताजनुमा संस्मरणात्मक  कहानियों  रपटों पर सरसरी टिप्पणी।)



✌🏼👌👍




i: आपकी कहनियां वक्त के साथ मुठभेड़ करती,अपने को पहचान कर जीवन के नवीन अर्थ को खोजती प्रतीत होती हैं।


i

: संस्कृति समन्वय संघर्ष एवं स्त्री विमर्श इन कहानियों की अंतर्धारा हैl 


आपकी भावपूर्ण एवं प्रभावपूर्ण रचनाएँ कभी मंद मंद मंथर गति से बहती सी प्रतीत होती हैं तो कभी एक वेगवान नदी की तरह  समस्त कूल किनारों को तोड़ बहने को आतुर प्रतीत होती हैं।जीवन की सच्चाई ,साफगोई इनमे साफ नज़र आती है 



i: पठनीयता व रोचकता कूट कूट कर भरी है,एक बार आरम्भ करने के बाद समय का भान ही नही रहता।कब शुरू हुई और कब खतम समय का पता ही नही चलता ।


इसे अश्लीलता नही कहते ,साफगोई कहते हैं।सच्चाई कहते हैं।निश्चित रूप से भाषा प्रवाहपूर्ण व भावपूर्ण होने के साथ कुछ नवीनता लिए हुए हैl


i: ऐसा कुछ भी नही है आपकी रचनाएँ कुछ नया कहती है और नवीनता पुराने मानकों को तोड़कर  अपनी राह स्वयं बना लेती है


पुराने मानक टूट रहे हैं तभी तो कुछ नया साहित्य को पाथेय में मिलेगा


 इतने सुन्दर लेखन व नवीन कथानकों के विन्यास द्वारा आप निश्चित रूप से साहित्य को समृद्धि प्रदान करेंगे ।


आपका काम निश्चित रूप से बहुत महत्वपूर्ण है


: अद्भुत विषय चयन ,सटीक भाषा,चुभते हुए प्रश्न, निश्चित रूप से आप एक श्रेष्ठ यायावर हैं


: अपने आप को केवल पत्रकार मत कहिये आप अपने ज्वलंत प्रश्नों की प्रश्नाकुलता से व्यथतित एक उभरते हुए युवा पत्रकार साहित्यकार हैं.


i: (दयालबाग DEI  आगरा ) की डीन  सुश्री शर्मिला सक्सेना  जी की मेरी  रिपोर्ताजनुमा संस्मरणात्मक  कहानियों  रपटों पर सरसरी टिप्पणी।)


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बुधवार, 18 अगस्त 2021

चीरहरण

उसके चहेरे पर सरकती पसीने की बूंद भी इंजीनियर बाबू को ओस-सी लगती थी। अगर कभी पास से गुज़र जाती तो एक सौंधी-सी महक आसपास कई क्षणों तक मंडराती रहती।

मिट्टी की टोकरी सिर पर उठाए जब वह ऊबड़-खाबड़ सड़क पर चलती तो उसके नितम्ब किसी महान गायक के आलाप की चढ़ती-उतराती स्वर लहरियों से उद्वेलित होते।

"ए...मधबनिया...!! जरा इंजीनियर बाबू को चाय तो देके आ... " पच्चीसों आदिवासी मजदूरों में ठेकेदार की रसना भी मधबनिया  नाम के उच्चारण में ही चरम सुख पाती।

इंजीनियर बाबू की नज़रें मधबनिया के उभारों को महसूस करती और उंगलियाँ चाय की प्याली के बहाने उसकी मिट्टी से सनी छुअन को पाने के लिए लालायित रहती।

मधबनिया खनकती हँसी बिखेरते हुए मैली उंगलियाँ साफ उंगलियों के चंगुल से छुड़वाती और मिट्टी का एक दाग उन कोरी उंगलियों पर छोड़ जाती।

मगर आज वहीं ठहरकर, बड़े ही मनुहार से मधबनिया बोल पड़ी " बाबू ..!! ठेकेदार को पगार खातिर बोल देते तो बड़ी किरपा होती...वरना शनिचर का पीर कर देता है जालिम।"

इंजीनियर बाबू ने खुद को संयत करते हुए ज़रा नरमी से कहा,

"वह प्राइवेट ठेकेदार है और मैं सरकारी मुलाज़िम, मैं उससे मजदूरों के वेतन के बारे में कुछ नही कह सकता....समझी?"

मधबनिया थोड़ा इठलाती-सी इंजीनियर बाबू के नजदीक आकर अपना होंठ दांतों में दबाते हुए बोली

"अरे सरकारी बाबू! ..ऐसा कौनो काम है भला.. जो तुम न कर सको हो?"

इंजीनियर बाबू ने तुरंत गर्दन दाँए-बाँए घूमाकर आस-पास का जायजा लिया और

कोई देख नही रहा इस बात की तस्दीक होते ही एक आँख दबाकर खिंसियानी हँसी हँसते हुए बोल उठा,

"जा बोल दूँगा....अच्छा सुन,... रात को क्वार्टर पर आ जाना।"

मधबनिया पल्लू को मुँह में दबाये मादक मुस्कान फेंकती, सड़क किनारे पड़े हुए गिट्टी के टीले की ओर चंचल हिरनी-सी चल पड़ी। 

मधबनिया के टोकरी उठाते ही कुछ मजदूरों ने काम छोड़कर उसे घेर लिया लेकिन ठेकेदार की रौबदार आवाज सुनते ही क्षणभर में वे वापस अपने काम पर लग गए।

इंजीनियर बाबू ने ठेकेदार को वेतन बाँटने का आदेश तो दे दिया लेकिन मजदूरों की मधबनिया को घेरने वाली हरकत देखकर 

उसे कुछ गड़बड़ का अंदेशा हो चला था। अब तो उसे रात को मधबनिया के क्वार्टर पर आने में भी संशय होने लगा क्योंकि उसे लग रहा था कि शायद मधबनिया के पति और साथी मजदूरों ने उसकी नियत को भांप लिया है।

वैसे तो इंजीनियर बाबू शराब के आदी नहीं थे लेकिन रात की ठंडक और मधबनिया के आने की उम्मीद ने अलमारी में रखी विदेशी शराब की बोतल को टेबल पर लेकर आने के लिए मजबूर कर ही दिया।

गांव में वैसे भी सूरज ढलते ही रात हो जाती है। सात बजते ही झींगुर बोलने लगते हैं और रास्ते सुनसान हो जाते हैं।

 इंजीनियर बाबू ने हलक के अंदर उतारने के लिए कांच के गिलास में शराब डाली ही थी कि दरवाजे पार बरामदे से आदिवासी नवयौवना के गहनों की झंकार उसके मन मस्तिष्क को भरमाने लगी।

उसने शराब से भरा गिलास टेबल पर रखा और तत्काल प्रभाव से दरवाजे की ओर लपका।

मधबनिया दरवाजे पर दस्तक देती उससे पहले ही इंजीनियर बाबू ने झट से दरवाजा खोल दिया।

"बड़े बेसबर हो बाबू....पहिले ऊ..सराब तो पी लेते।" मधबनिया की नज़र सामने टेबल पर रखे गिलास की ओर उठी।

"वो..वो.. मैं....मैने सोचा तुम्हे बाहर ठंड में इंतजार न करना पड़े..आओ... जल्दी से आओ..अंद..र" बाबू ने बड़ी मुश्किल से थूक निगलते हुए अपने शब्दों को ठीक किया।

जब मधबनिया कमरे के अंदर दाखिल हो रही थी तब बाबू की नजरें उसके बदन की लचक और नितंबों की लहरियाँ तलाश रही थी लेकिन आश्चर्य कि सुबह की मदमस्त नदिया मधबनिया, रात को किसी झील की तरह एकदम शांत थी। 

"ठेकेदार ने वेतन तो दे दिया न ?" इंजीनियर बाबू ने दरवाजे की चिटकनी चढ़ाते हुए पूछा।

मधबनिया को उसके प्रश्न ने नही बल्कि चिटकनी की कर्कश आवाज ने मुड़ने पर मजबूर किया।

"न..न..बाबू... चिटकनी चढ़ाने की कौनो जरूरत नाही।"

इंजीनियर बाबू को कुछ पल के लिए लगा जैसे मधबनिया अकेली नही आई है बल्कि उसका पति और साथी मजदूर बाहर खड़े बस उसके चिल्लाने का ही इंतजार कर रहे हैं।

"क्या हुआ था सुबह?....तुम्हारे पति या उसके साथियों ने तुमसे कुछ पूछा था क्या?"

मधबनिया उस कमरे में अपने लिए जगह तलाशने लगी। 

करीने से सजे उस कमरे में शराब की बोतल, शराब से भरा गिलास रखी टेबल और कुर्सी के अलावा एक शानदार पलंग था, जिसके पास जाते ही किसी विदेशी इत्र की सुगंध नथुनों में भर जाती बिना किसी शुब्हा के मधबनिया को यकीन था कि यह इत्र उसकी आमद के कुछ समय पहले ही पलंग पर छिड़का गया है। "हा...हा...वाह.. बाबू!! तैयारी तो तुम पूरी करके रखे हो पर तनिक सोचो इस आदिवासी मजदूरन को खुश न कर पाए तो का होगा?"

कहकहा लगाती मधबनिया बेधड़क कुर्सी पर बैठ गई।

सरकारी बाबू इस सवाल से हतप्रभ रह गया।

"क्क ...क्या होगा?"

मधबनिया की बेतकल्लुफी देख उसे शब्द न सूझे।

"बाबू... हम आदिवासियों में, नर मादा को नही चुनता बल्कि मादा चुनती है कि उसे कौन सा नर पसंद है, एहीलिए तो हमारे आदिवासी समाज में बलात्कार नाही होत।

बाबू अगर तुम मुझे खुश नही कर पाए न तो आदिवासी समाज के पुरुष तुमपर नही हंसेंगे काहेकि उन लोगन के लिए तुम दया के पात्र होंगे। चच्च्च.. बेचारे!! लेकिन कल सुबह तुमपर मेरी सारी आदिवासी मजदूर बहिने जरूर हँसेंगी।"

इंजीनियर बाबू को तो जैसे काठ मार गया था।

"मतलब.. मतलब...उन्हें सब पता है?"

"उन सबकी पगार खातिर ही तो आई थी तोहार पास और जब ऊ सब लोग मुझे घेरकर खड़े हो गये थे न, तभी मैने खुशखबरी सुनाई कि इंजीनर बाबू हमको टाइम पर पगार जरूर दिला देंगे।"

"और और ...तुम्हारे पति ने तुम्हे मेरे पास भेज भी दिया ?"

"ऊ कौन होत है मुझे भेजने वाला? मैंने तुम्हे चुना है एहीलिये अकेले आई हूँ। मर्जी नही होती तो मेरी मजदूर बहिनें आती और मजदूर लोगन के हाथ तो तुम जानत ही हो कितने सख्त होते हैं।"

मधबनिया का चहेरा किसी मुर्दा जिस्म के मानिंद सर्द था ।

"बाबू! तुम नही जानत आदिवासी मजदूरों का दर्द , जब वक्त पर पगार नही मिलती न तो हमरी सीधी-सरल कौम के भूखों मरने की नौबत आ जात है।

कौनो गांव शहर का दुकानदार हमें उधार नही देत। जो लाला हमें पैसा उधार देत है ऊ हमसे तगड़ा सूद वसूलत है।

तुम या ऊ ठेकेदार हमारी पगार दबा लेत हो और हम आदिवासी औरतों पर बुरी नजर डालत हो। अब हम भी अपनी ताकत जानत हैं एहीलिए अब हम इस बुरी नजर को अपने हक में इस्तेमाल करत हैं। 

बाबू जी! असभ्य हम नाही, तुम लोग हो क्योंकि तुम्हारे लिए औरत और मजदूर सिर्फ शोषण के वास्ते पैदा होत हैं।" मधबनिया का आत्मविश्वास अपने उरूज पर था।

"जब सुबह वापिस जाओगी तो तुमसे तुम्हारी कौम तुम्हारी इज्जत के बाबत कोई सवाल नही पूछेगी?"

इंजीनियर बाबू की सारी खुमारी हवा हो चुकी थी ।

मधबनिया ने जवाब देने की जगह शराब से भरा गिलास उठा लिया और एक साँस में खाली कर दिया।

"तुम मरद लोग जब वेश्या गमन करके आवत हो तो तुम्हरी कौम तुम्हरी इज्जत के बारे में कौनो सवाल पूछती है क्या?"

इंजीनियर बाबू अस्तव्यस्त पलंग पर सिर झुकाए बैठा था और द्रोपदी दुशासन का चीरहरण कर उसकी पूरी जात को नग्न करके जा चुकी थी। 


#Anil_Makariya

Jalgaon (Maharashtra)

बुद्धिमान बुढ़िया

 रात में एक चोर घर में घुसl । कमरे का दरवाजा खोला तो बरामदे पर एक बूढ़ी औरत सो रही थी।

खटपट से उसकी आंख खुल गई। चोर ने घबरा कर देखा

तो वह लेटे लेटे बोली

'' बेटा, तुम देखने से किसी अच्छे घर के लगते हो, लगता है किसी परेशानी से मजबूर होकर इस रास्ते पर लग गए हो। चलो कोई बात नहीं। अलमारी के तीसरे बक्से में एक तिजोरी

है ।

इसमें का सारा माल तुम चुपचाप ले जाना। मगर

पहले मेरे पास आकर बैठो, मैंने अभी-अभी एक ख्वाब

देखा है । वह सुनकर जरा मुझे इसका मतलब तो बता

दो।"

चोर उस बूढ़ी औरत की रहमदिली से बड़ा अभिभूत हुआ और चुपचाप उसके पास जाकर बैठ गया।

बुढ़िया ने अपना सपना सुनाना शुरु किया

''बेटा, मैंने देखा कि मैं एक रेगिस्तान में खो गइ हूँ। ऐसे

में एक चील मेरे पास आई और उसने 3 बार जोर जोर

से बोला अभिलाष! अभिलाष! अभिलाष !!!

बस फिर ख्वाब खत्म हो गया और मेरी आंख खुल गई। जरा बताओ तो इसका क्या मतलब हुई? ''

चोर सोच में पड़ गया। इतने में बराबर वाले कमरे से

बुढ़िया का नौजवान बेटा अभिलाष अपना नाम

ज़ोर ज़ोर से सुनकर उठ गया और अंदर आकर चोर की

जमकर धुनाई कर दी।

बुढ़िया बोली ''बस करो अब

यह अपने किए की सजा भुगत चुका।"

चोर बोला, "नहीं- नहीं ! मुझे और कूटो , सालों!....

ताकि मुझे आगे याद रहे कि मैं चोर हूँ , सपनों का सौदागर नहीं। '' 😖😖😩😩

(((( मोहन के गोपाल ))))

 प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा 

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छोटे-से गांव में एक दरिद्र विधवा ब्राह्मणी रहती थी। छह वर्षीय बालक मोहन के अतिरिक्त उसका और कोई नहीं था। 

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वह दो-चार भले घरों से भिक्षा मांगकर अपना तथा बच्चे का पेट भर लेती और भगवान का भजन करती थी। भीख पूरी न मिलती तो बालक को खिलाकर स्वयं उपवास कर लेती। यह कम चलता रहा। 

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ब्राह्मणी को लगा कि ब्राह्मण के बालक को दो अक्षर न आए यह ठीक नहीं है। गांव में पड़ाने की व्यवस्था नहीं थी। गाँव से दो कोस पर एक पाठशाला थी। 

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ब्राह्मणी अपने बेटे को लेकर वहा गई। उसकी दरिद्रता तथा रोने पर दया करके वहा के अध्यापक ने बच्चे को पढ़ाना स्वीकार कर लिया।

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वहां पढने वाले छात्र गुरु के घर में रहते थे किंतु ब्राह्मणी का पुत्र मोहन अभी बहुत छोटा था और ब्राह्मणी को भी अपने पुत्र को देखे विना चैन नहीं पड़ता था अत: मोहन नित्य पढ़ने जाता और सायंकाल घर लौट आता।

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उसको विद्या प्राप्ति के लिए प्रतिदिन चार कोस चलना पड़ता। मार्ग में कुछ दूर जंगल था। शाम को लौटने में अंधेरा होने लगता था। उस जंगल में मोहन को डर लगता था। 

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एक दिन गुरुजी के यहा कोई उत्सव था। मोहन को अधिक देर हो गई और जब वह घर लौटने लगा रात्रि हो गई थी। अंधेरी रात जंगली जानवरों की आवाजों से बालक मोहन भय से थर-थर कांपने लगा। 

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ब्राह्मणी भी देर होने के कारण बच्चे को ढूंढने निकली थी। किसी प्रकार अपने पुत्र को वह घर ले आई। 

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मोहन ने सरलता से कहा : ”मां ! दूसरे लड़को को साथ ले जाने तो उनके नौकर आते हैं। मुझे जंगल में आज बहुत डर लगा। तू मेरे लिए भी एक नौकर रख दे।” बेचारी ब्राह्मणी रोने लगी। उसके पास इतना पैसा कहा कि नौकर रख सके। 

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माता को रोते देख मोहन ने कहा : ”मां ! तू रो मत ! क्या हमारा और कोई नहीं है ?” अब ब्राह्मणी क्या उत्तर दे ? उसका हृदय व्यथा से भर गया।

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उसने कहा : ”बेटा ! गोपाल को छोड़कर और कोई हमारा नहीं है।” बच्चे की समझ में इतनी ही बात आई कि कोई गोपाल उसका है। 

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उसने पूछा : ”गोपाल कौन ? वे क्या लगते हैं मेरे और कहा रहते हैं ?”

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ब्राह्मणी ने सरल भाव से कह दिया : ”वे तुम्हारे भाई लगते हैं। सभी जगह रहते हैं परंतु आसानी से नहीं दिखते। संसार में ऐसा कौन सा स्थान है जहां वे नहीं रहते। लेकिन उनको तो देखा था ध्रुव ने, प्रहलाद ने ओर गोकुल के गोपों ने।”

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बालक को तो अपने गोपाल भाई को जानना था। वह पूछने लगा : गोपाल मुझसे छोटे हैं या बड़े अपने घर आते हैं या नहीं?

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माता ने उसे बताया : ”तुमसे वे बड़े हैं और घर भी आते हैं पर हम लोग उन्हें देख नहीं सकते। जो उनको पाने के लिए व्याकुल होता है उसी के पुकारने पर वे उसके पास आते हैं।” 

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मोहन ने कहा : ”जंगल में आते समय मुझे बड़ा डर लगता है। मैं उस समय खूब व्याकुल हो जाता हूं। वहां पुकारू तो क्या गोपाल भाई आएंगे ?”

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माता ने कहा : ”तू विश्वास के साथ पुकारेगा तो अवश्य वे आएंगे।” मोहन की समझ में इतनी बात आई कि जंगल में अब डरने की जरूरत नहीं है। डर लगने पर मैं व्याकुल होकर पुकारूंगा तो मेरा गोपाल भाई वहा आ जाएगा।

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दूसरे दिन पाठशाला से लौटते समय जब वह वन में पहुचा उसे डर लगा। उसने पुकारा : ”गोपाल भाई ! तुम कहां हो ? मुझे यहा डर लगता है। मैं व्याकुल हो रहा हूं। गोपाल भाई !”

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जो दीनबंधु हैं दीनों के पुकारने पर वह कैसे नहीं बोलेंगे। मोहन को बड़ा ही मधुर स्वर सुनाई पड़ा : ”भैया ! तू डर मत। मैं यह आया।” यह स्वर सुनते ही मोहन का भय भाग गया।

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थोड़ी दूर चलते ही उसने देखा कि एक बहुत ही सुंदर ग्वालबाल उसके पास आ गया। वह हाथ पकड़कर बातचीत करने लगा। साथ-साथ चलने लगा। उसके साथ खेलने लगा। वन की सीमा तक वह पहुंचाकर लौट गया। गोपाल भाई को पाकर मोहन का भय जाता रहा।

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घर आकर उसने जब माता को सब बातें बताईं तब वह ब्राह्मणी हाथ जोडकर गदगद हो अपने प्रभु को प्रणाम करने लगी।

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उसने समझ लिया जो दयामयी द्रोपदी और गजेंद्र की पुकार पर दौड़ पड़े थे मेरे भोले बालक की पुकार पर भी वही आए थे। ऐसा ही नित्य होने लगा..

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एक दिन उसके गुरुजी के पिता का श्राद्ध होने लगा। सभी विद्यार्थी कुछ न कुछ भेंट देंगे। गुरुजी सबसे कुछ लाने को कह रहे थे। 

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मोहन ने भी सरलता से पूछा : “गुरुजी ! मैं क्या ले आऊं ?” गुरु को ब्राह्मणी की अवस्था का पता था। उन्होंने कहा : ‘बेटा ! तुमको कुछ नहीं लाना होगा।’

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लेकिन मोहन को यह बात कैसे अच्छी लगती। सब लड़के लाएंगे तो मैं क्यों न लाऊं उसके हठ को देखकर गुरुजी ने कह दिया : ”अच्छा तुम एक लोटा दूध ले आना।” 

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घर जाकर मोहन ने माता से गुरुजी के पिता के श्राद्ध की बात कही और यह भी कहा” मुझे एक लोटा दूध ले जाने की आज्ञा मिली है।”

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ब्राह्मणी के घर में था क्या जो वह दूध ला देती। मांगने पर भी उसे दूध कौन देता लेकिन मोहन ठहरा बालक। वह रोने लगा। 

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अंत में माता ने उसे समझाया : ”तू गोपाल भाई से दूध मांग लेना। वे अवश्य प्रबंध कर देंगे।” 

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दूसरे दिन मोहन ने जंगल में गोपाल भाई को जाते ही पुकारा और मिलने पर कहा : ”आज मेरे गुरुजी के पिता का श्राद्ध है। मुझे एक लोटा दूध ले जाना है। मां ने कहा है कि गोपाल भाई से मांग लेना। सौ मुझे तुम एक लोटा दूध लाकर दो।” 

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गोपाल ने कहा : ”मैं तो पहले से यह लौटा भर दूध लाया हूं । तुम इसे ले जाओ।” मोहन बड़ा प्रसन्न हुआ। 

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पाठशाला में गुरुजी दूसरे लड़कों के उपहार देखने और रखवाने में लगे थे। मोहन हंसता हुआ पहुंचा। कुछ देर तो वह प्रतीक्षा करता रहा कि उसके दूध को भी गुरुजी देखेंगे। 

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पर जब किसी का ध्यान उसकी ओर न गया तब वह बोला : ‘गुरुजी ! मैं दूध लाया हूं।’ गुरु जी ढेरों चीजें सम्हालने में व्यस्त थे। मोहन ने जब उन्हें स्मरण दिलाया तब झुंझलाकर बोले : ”जरा-सा दूध लाकर यह लड़का कान खाए जाता है जैसे इसने हमें निहाल कर दिया।

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इसका दूध किसी बर्तन से डालकर हटाओ इसे यहां से।”

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मोहन अपने इस अपमान से खिन्न हो गया। उसका उत्साह चला गया। उसके नेत्रों से आंसू गिरने लगे।

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नौकर ने लोटा लेकर दूध कटोरे मे डाला तो कटोरा भर गया फिर गिलास में डाला तो वह भी भर गया। बाल्टी में टालने लगा तो वह भी भर गई। भगवान के हाथ से दिया वह लोटा भर दूध तो अक्षय था। 

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नौकर घबराकर गुरुजी के पास गया। उसकी बात सुनकर गुरुजी तथा और सब लोग वहां आए अपने सामने एक बड़े पात्र में दूध डालने को उन्होंने कहा। पात्र भर गया पर लोटा तनिक भी खाली नहीं हुआ। इस प्रकार बड़े-बड़े बर्तन दूध से भर गए। 

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अब गुरुजी ने पूछा : ”बेटा ! तू दूध कहां से लाया हें ?” सरलता से बालक ने कहा : ”मेरे गोपाल भाईआ ने दिया।” गुरुजी और चकित हुए। उन्होंने पूछा : ”गोपाल भाई कौन ? तुम्हारे तो कोई भाई नहीं।”

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मोहन ने दृढ़ता से कहा : ”है क्यों नहीं। गौपाल भाई मेरा बड़ा भाई है। वह मुझे रोज वन में मिल जाते है। मां कहती हैं कि वह सब जगह रहता है पर दिखता नहीं कोई उसे खूब व्याकुल होकर पुकारे तभी वह आ जाता है। उससे जो कुछ मांगा जाए वह तुरंत दे देता है।”

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अब गुरुजी को कुछ समझना नहीं था। मोहन को उन्होंने हृदय से लगा लिया। श्राद्ध में उस दूध से खीर बनी और ब्राह्मण उसके स्वाद का वर्णन करते हुए तृप्त नहीं होते थे । 

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गोपाल भाई के दूध का स्वाद स्वर्ग के अमृत में भी नहीं तब संसार के किसी पदार्थ में कहां से होगा। उस दूध का बना श्राद्धान्त पाकर गुरुजी के पितर तृप्त ही नहीं हुए, माया से मुक्त भी हो गए। 

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श्राद्ध समाप्त हुआ। संध्या को सब लोग चले गए। मोहन को गुरुजी ने रोक लिया था। अब उन्होंने कहा : ”बेटा ! मैं तेरे साथ चलता हूं। तू मुझे अपने गोपाल भाई के दर्शन करा देगा न ?”

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मोहन ने कहा : ”चलिए मेरा गोपाल भाई तो पुकारते ही आ जाता है।” वन में पहुंच कर उसने पुकारा। उत्तर में उसे सुनाई पड़ा : ”आज तुम अकेले तो हो नहीं तुम्हें डर तो लगता नहीं, फिर मुझे क्यों बुलाते हो ?” 

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मोहन ने कहा : ”मेरे गुरुजी तुम्हें देखना चाहते हैं तुम जल्दी आओ !”

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जब मोहन ने गोपाल भाई को देखा तो गुरुजी से कहा : ”आपने देखा मेरा गोपाल भाई कितना सुदर है ?” 

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गुरुजी कहने लगे : “मुझे तो दिखता ही नहीं। मैं तो यह प्रकाशमात्र देख रहा हूं।”

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अब मोहन ने कहा : “गोपाल भाई ! तुम मेरे गुरुजी को दिखाई क्यों नहीं पड़ते ?”

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उत्तर मिला : ”तुम्हारी बात दूसरी है। तुम्हारा अत: करण शुद्ध है तुममें सरल विश्वास है, अत: मैं तुम्हारे पास आता हूं।

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तुम्हारे गुरुदेव को जो प्रकाश दिख गया उनके लिए वही बहुत है। उनका इतने से ही कल्याण हो जाएगा।

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उस अमृत भरे स्वर को सुनकर गुरुदेव का हृदय गदगद हो गया। उनको अपने हृदय में भगवान के दर्शन हुए। भगवान की उन्होंने स्तुति की।

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कुछ देर में जब भगवान अंतर्धान हो गए, तब मोहन को साथ लेकर वे उसके घर आए और वहां पहुंचकर उनके नेत्र भी धन्य हो गए। 

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गोपाल भाई उस ब्राह्मणी की गोद में बैठे थे और माता के नेत्रों की अश्रुधार उनकी काली धराली अलकों को भिगो रही थी। माता को शरीर की सुध-बुध ही नहीं थी।

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Bhakti Kathayen भक्ति कथायें

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 ((((((( जय जय श्री राधे )))))))

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गुरुवार, 5 अगस्त 2021

अनामी शरण बबल / राजेंद्र अवस्थी की याद में

 राजेन्द्र अवस्थी को याद करते हए



अनामी शरण बबल




दिल्ली शहर का चरित्र एकदम अनोखा और बेईमान सा है। एक बार दिल्ली से दिल लगने के बाद न तो कोई दिल्ली को छोड़ पाता है और ना ही दिल्ली अपने ग्लैमर पाश से उसको छोड़ती है। दिल्ली दिल में बस जाती है, और दिल्ली के तिलिस्म से भी कोई चाहकर भी बाहर नहीं हो पाता। मगर पिछले 28 सालों में यह देखा आजमाया या पाया है कि दिल्ली से दूर रहते हुए संबंधों में जो उष्मा बेताबी गरमी रोमांच लगाव, ललक आकर्षण और उत्कंठा होती है। यही लगाव दिल्ली पहुंचते ही नरमा जाता है। दिल्ली में रहते हुए भी आदमी अपनों से अपनों के लिए दूर हो जाता है।


















राजेन्द्र अवस्थी को याद करते हए


अनामी शरण बबल




जीवन में पहली बार मैं दिल्ली 1984 में आया था। फरवरी की कंपकपाती ठंड में उस समय विश्व पुस्तक मेला का बाजार गरम था। दिल्ली का मेरा इकलौता मित्र अखिल अनूप से अपनी मस्त याराना थी। कालचिंतन के चिंतक पर बात करने से पहले दिल्ली पहुंचने और दिल्ली में घुलने मिलने की भी तो अपनी चिंता मुझे ही करनी थी। उस समय हिन्दी समाज में कादम्बिनी और इसके संपादक का बड़ा जलवा था। इस बार की दिल्ली यात्रा में अवस्थी जी से मेरी एकाएक क्षणिक मुलाकात पुस्तक मेले के किसी एक समारोह में हुई थी। जिसमें केवल उनके चेहरे  को देखा भर था।

मगर 1984 में ही गया के एक कवि प्रवीण परिमल मेरे घर देव औरंगाबाद बिहार में आया तो फिर प्रवीण से भी इतनी जोरदार दोस्ती हुई जो आज भी है। केवल अपने लेखक दोस्तों से मिलने के लिए ही मैं एक दो माह में गया भी चला जाता था। इसी बहाने गया के ज्यादातर लेखक कवि पत्रकारों से भी दोस्ती सलामत हो गयी। जिसमें सुरंजन का नाम सबसे अधिक फैला हुआ था। दिल्ली से अनभिज्ञ मैं सुरंजन के कारण ही कादम्बिनी परिवार से परिचित हुआ।  जब भी दिल्ली आया तो पहुंचने पर कुछ समय कादम्बिनी के संपादकीय हॉल मे या कैंटीन में जरूर होता था। खासकर धनजंय सिंह सुरेश नीरव या कभी कभार प्रभा भारद्वाज दीदी  समेत कई लोग होते थे जिनके पास बैठकर या एचटी कैंटीन (जो अपने अखबार से ज्यादा कैंटीन के लिए ही आसपास में फेमस था) में कभी खाना तो कभी चाय नाश्ते का ही स्वाद काफी होता था।  

इस मिलने जुलने का एक बड़ा फायदा यह भी हुआ कि कादम्बिनी में उभरते युवा कवियों के लिए सबसे लोकप्रिय  दो पेजी स्तंभ प्रवेश में मेरी छह सात कविताएं लंबी प्रतीक्षा के बिना ही 1985 अक्टूबर में छप गयी । जिसके बाद औरंगाबाद और आसपास के इलाकों से करीब 100 से ज्यादा लोगों ने पत्र लिखकर मेरा हौसला बढाया । तभी मुझे कादम्बिनी की लोकप्रियता का अंदाजा लगा। देव के सबसे मशहूर लेखक पत्रकार और सासंद रहे शंकर दयाल सिंह (चाचा) का भी पटना से दिल्ली सफर के बीच लिखा पत्र भी मेरी खुशी में इजाफा कर गया।


दिल्ली लगातार आने जाने के चलते संपादक राजेन्द्र अवस्थी जी भी हमलोग को ठीक से पहचानने लगे थे। पहली बार कोई ( धनंजय सिंह सुरेश नीरव जी या कभी प्रभा जी) अवस्थी जी के कमरे में ले जाकर मुझे छोड़ देते थे। बारम्बार आने की वजह से अवस्थी जी से भी मैं खुल गया था । कई बार तो मैं अपन ज्यादा न समझ में आने के बाद भी उनके संपादकीय काल चिंतन पर ही कोई चर्चा कर बैठता तो कभी अगले तीन चार माह के भावी अंकों पर भी पूछ बैठता। कभी कभी मुझे अब लगता है कि इतने बड़े संपादक और साहित्यकात होने पर भी वे मेरे जैसे एकदम कोरा कागज से भी कितने सहज बने रहते थे। लेखक कवि से ज्यादा उत्साही साहित्य प्रेमी सा मैं उनके सामने बकबक कर देता तो भी वे मीठी मुस्कान के संग ही सरल बने रहते थे।

 मेरी आलतू फालतू बातों या नकली चापलूसी की बजाय सीधे भावी कार्यक्रमों योजनाओं पर या सामान्य अंक के बाद किस तरह किसी विशेष अंक  की रूपरेखा बनाते और तैयारी पर मेरा पूछना भी उनको रास आने लगा था । दो एक बार वे मुझसे पूछ बैठते कि भावी अंको को लेकर इतनी उत्कंठा क्यों होती है  ? इस पर मैं सीधे कहता था कि यदि अंक को लेकर मन में जिज्ञासा नहीं होगी तो उसे खरीदना पढना सहेजना या किसी अंक की बेताबी से इंतजार या दोस्तों में चर्चा क्यों करूंगा ? मेरा यह जवाब उनको हमेशा पसंद आता था। मैं अब महसूस करता हूं कि वे भी बड़ी चाव से अपने विशेष अंकों के बारे में ही मुझे बताते थे। कभी उबन सा महसूस नहीं करते।


उनदिनों 1987 में वे साप्ताहिक हिन्दुस्तान पत्रिका के संपादन का काम भी संभाल रहे थे। एक बार मैं अचनक टपका तो वे दो चार मिनट में ही बोल पड़े आज काफी बिजी हूं फिर आइएगा। मैने उठने की चेष्टा के साथ पूछ बैठा कोई खास अंक की रणनीति बना रहे है  क्या ?  उनके हां कहते ही मैंने मौके की गंभीरता और नजाकत को समझे बगैर ही कह डाला कि इसके लिए सर आप संपादकीय टीम के साथ बैठकर फाईनल टच दे और सबको इसमें सुझाव देने को पर जोर दे। इससे कई नए सुझाव के बाद तो विशेषांकों में और निखार आएगा। मेरी बात सुनकर वे एकटक मुझे देखने लगे। मुझे लगा कि मुझसे कोई गलती हो गयी। तो मैं हकलाते हुए पूछा मैने कुछ गलती कर दी क्या ? इस पर वे खिलखिला पड़े और हंसते हुए कहा बैठो अनामी बैठो तुम बैठो। मैं भी एकदम भौचक्क कि कहां तो वे मुझे देखते ही भगाने के फिराक में थे और अब ठहाका मारते हुए बैठने का संकेत कर रहे है। उन्होने पूछा कि चाय पीओगे क्या मेरी उत्कंठा और बढ़ गयी। चाय का आदेश देते हुए उन्होने कहा यार मुझे तुम जैसे ही लड़कों की जरूरत है। मैं एक पल गंवाए बिना ही तुरंत कह डाला कि सर तो वीकली में मुझे रख लीजिए न फिर कुछ सबसे अलग हटकर नया रंग रूप देते है। उन दिनों मैं दिल्ली में iimc-hj/1987-88 का छात्र थआ।  मेरी सादगी या बालसुलभ उत्कंठा पर मुस्कुराते हुए कहा जरूर अनामी तुम पर ध्यान रखूंगा पर साप्ताहिक हिन्दुस्तान तो अब केवल एक साल का बच्चा रह गया है।  इसको बंद किया जाना है लिहाजा मैं मैनेजमेट को कह नहीं सकता और साप्ताहिक के अंक तो बस पूंजीपतियों के लाभ हानि के हिसाब किताब के लिए छप रहा है।  पर अनामी मुझे तुम बहुत उत्साही लगते हो और मैं तुमको बहुत पसंद भी करता हूं। अपने उत्साह को किसी भी हाल में कभी मरने नहीं देना । यही आपकी पूंजी है जो कभी मौका मिलने पर आपको नया राह दिखाएगी। पहले तो मैं उनकी बाते सुनकर जरा उदास सा हो गया था, पर अवस्थी जी ,से अपनी तारीफ सुनकर मन पुलकित हो उठा।  मैने उनसे पूछा कि आप मेरे मन को रखने के लिए कह रहे है, या वाकई इन बातों से कुछ झलकता है ? मेरी बात सुनकर उन्होने कहा इसका फैसला समय पर छोड दो अनामी।


भारतीय जनसंचार संस्थान में नामांकन के बाद पूरे कादम्बिनी परिवार से महीने में दो एक बार मुलाकात जरूर कर लेता था। उस समय दिल्ली आज की तरह हसीन शहर ना होकर गंवार सा थका हुआ शहर था। जिंदगी में भी न रफ्तार थी न दुकानों में ही कोई खास चमक दमक ।  दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) का मासिक बस पास हम छात्रों को 13 रूपए में मिलता था। पूरी दिल्ली में घूमना एकदम आसान था । और दिल्ली के कोने कोने को जानने की उत्कंठा ही मुझे इधर उधर घूमने और जानने को विवश करती थी।

पत्रकारिता के पाठ्यक्रम के दौरान एक प्रोजेक्ट बनाना था। इसके लिए मुझे किसी एक संपादक से साक्षात्कार लेना था। और जाहिर है कि राजेन्द्र अवस्थी हमारे हीरो संपादक थे। फोन करके समय लिया और एकदम समय पर मैं उनके कमरे के बाहर खड़ा था। कमरे के भीतर गया तो हमेशा की तरह चश्मे के पीछे से मुस्कुराता चेहरा और उन्मुक्त हास्य के साथ स्वागत करने की उनकी एक मनोहर शैली थी। बहुत सारे सवालों के साथ मैं श्री अवस्थी की पत्रकारिता संपादकीय कौशल लेखन से लेकर आदिवासियों पर किए गए शोधपरक काम और घोटूल ( अविवाहित आदिवासी युवा लड़के लड़कियों का नाईट क्लब) जहां पर वे आपस में जीवन साथी पसंद करते है) पर अपनी जिज्ञासा सहित बहुत कुछ जानने की मानसिक उतेजना के साथ हाजिर था।

बहुत सारे सवालों का वे सटीक और सारगभित उतर दिया। तभी वे एकाएक खिलखिला पड़े अरे अनामी आपने मुझे कितना पढा है ? मैने तुरंत कहा कि कथा कहानी उपन्यास तो एकदम नहीं पर आपके संपादकीय कालचिंतन और इधर उधर के समारोह सेमिनारों में जो आपने विचार रखे हैं उसकी करीब 20-22 कटिंग के अलावा करीब एक दर्जन आपके इंटरव्यू का कतरन भी मेरे पास है और सबों को मिलाकर आपका पूरा लेखकीय छवि मेरे पास है। मेरी बात सुनकर वे फिर हंस पड़े। उन्होने कहाकि आदिवासियों पर काम करने वाला मैं हिन्दी का पहला साहित्यकार हूं इससे जुड़े सवाल को सामने रखे ताकि उसके बहाने मैं अपनी मेहनत और कार्य को फोकस कर सकूं।

मेरे पास इस संदर्भ से जुड़े तो कोई खास सवाल और गहन जानकारी थी नहीं। मेरे हथियार डालने पर कमान उन्होने खुद थाम ली। इस बाबत तब एक तरह से जानकारी देने के लिए अवस्थी जी खुद ही कोई सवाल करते और सुविधा जनक  तरीके से आदिवासियों के जनजीवन रहन सहन पर जवाब भी देकर बताने लगे। एकदम रसिक भाव से आदिवासी महिलाओं के देह लावण्य शारीरिक सौष्ठव से लेकर अंग प्रत्यंग पर रौशनी डालते हुए मुझे भी आदिवासी सौंदर्य पर मोहित कर डाला। घोटुल और उनकी काम चेतना पर भी अवस्थी जी ने मोहक प्रकाश डाला। करीब एक घंटे तक श्री अवस्थी जी अपना इंटरव्यू खुद मेरे सामने लेते देते रहे और मैं उनकी रसीली नशीली मस्त बातों और आदिवासी महिलाओं की देह और कामुकता का रस पीता रहा। और अंत में खूब जोर से ठठाकर हंसते हुए श्री अवस्थी जी ने इंटरव्यू समापन के साथ ही अपने संग मुझे भी समोसा और चाय पीने का सुअवसर प्रदान किया।


एक बार उन्होने पूछा आपने मेरा उपन्यास जंगल के फूल पढा है ? ना कहने पर फौरन अपने बुक सेल्फ से एक प्रति निकालकर मुझे दे दी। मगर इस उपन्यास पर अपनी बेबाक राय बताने के लिए भी कहा। इस बहुचर्चित उपन्यास को मेरे ही किसी उस्ताद मित्र ने गायब कर दी। तो सालों के बाद अवस्थी जी ने मुझे इसकी दूसरी प्रति 11 सितम्बर 1997 को फिर से दी। और हस्ताक्षर युक्त यह बहुमूल्य प्रति आज भी मेरे किताबों के मेले की शोभा है। और करीब एक माह के बाद इस किताब की बेबाक समीक्षा मैने उनके दफ्तर में ही उन्हें सुना दी।

पहले तो मेरे मन में श्री अवस्थी को लेकर एक छैला वाली इमेज गहरा गयी मगर दूसरे ही पल उनकी सादगी और निश्छलता पर मन मोहित भी हुआ कि मुझ जैसे एकदम नए नवेलों के साथ भी इतनी सहजत सरलता और आत्मीयता से बात करना इनके व्यक्तित्व का सबसे सबल और मोहक पक्ष है। इस इंटरव्यू समापन के बाद उनकी ही चाय और समोसे खाते हुए मैने पूछा कि आदिवासी औरतों के मांसल देहाकार पर आपका निष्कर्ष महज एक लेखक की आंखों का चमत्कार है या आपने कभी स्पर्श सुख का भी आनंद लिया है। मेरे सवाल पर झेंपने की बजाय  एकदम उत्सुकता मिश्रित हर्ष के साथ बताया कि मैं इनलोगों के साथ कई माह तक रहा हूं तो मैं सब जान गया था।

बात को पर्दे में रखने की कला का तो आदर करने के बाद भी घोटुल प्रवास पर रौशनी डालने को कहा, तो  इस सवाल को लेकर भी वे काफी उत्साहित दिखे। उन्होने कहा कि आदिवासी समाज में कई वर्जनाओं (प्रतिबंधों) नहीं है। घोटुल भी इस समाज की आधुनिक सोच मगर सफल और स्वस्थ्य प्रेममय दाम्पत्य जीवन की सीख और प्रेरणा देती है। मैने उनसे पूछा कि आमतौर पर आदिवासी इलाकों में अधिकारियों या कर्मचारियों द्वारा अपने साथ परिवार या पत्नी को लाने जाने वालों को मूर्ख क्यों समझा या माना जाता है  ? इस सवाल पर वे हंस पड़े और सेक्स को लेकर खुलेपन या बहुतों से शारीरिक संबंध को भी समाज में बुरा नहीं माना जाना ही इनके लिए अभिशाप बन गया है।

दिल्ली  विवि के हंसराज कॉलेज की वार्षिक पत्रिका हंस को किसी तरह अपने नाम करके और प्रेमचंद की पत्रिका हंस नाम का चादर ओढ़ाकर विख्यात कथाकार राजेन्द्र यादव और हंस का दरियागंज की एक तंग गली में जब पुर्नजन्म हुआ हंस के जन्म (1986 तक) से पहले तक  तो दिल्ली के लेखक और पाठकों के बीच कादम्बिनी नामक पत्रिका का ही बड़ा जलवा था। श्री अवस्थी जी को लेकर मेरे मन में आदर तो था पर उनके रोमांस और महिला मित्रों के चर्चे भी साहित्यिक गलियारे में खूब होती थी। कभी कभी तो मैं उन लेखकों को देखकर हैरत में पड़ जाता कि जो लोग अवस्थी जी को दिल खोलकर गरियाते और दर्जनों लेखिकाओं के साथ संबंधों का सामूहिक आंखो देखा हाल सुनाकर लोगों को रसविभोर कर देते थे। मगर  इसी तरह के कई लेखक जब कभी अवस्थी जी के सामने जाते या मिलते तो एकदम दास भक्ति चारण शैली में तो बेचारे कुत्ते को भी शर्मसार कर देते दिखे। और यह देख मेरी आंखे फटी की फटी रह जाती। शहरिया कल्चर और आधुनिक संबंधों की मस्तराम शैली ने मुझे एक तरह से महानगरीय  अपसंस्कृति से अवगत कराया। वही यह भी बताया कि किसी भी खास मौके पर किसी को भी बातूनी चीरहरण कर देना या चरित्रहनन कर देना किसी को अपमानित भले लगे मगर इन बातों से लेखकीय समाज में इनकी रेटिंग का ग्राफ हमेशा बुलंदी पर ही रहता। और नाना प्रकार के गपशप के बीच अवस्थी जी एचटी दरबारके
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मोहक मदिरा को कोई न कहो बुरा


ई समाज में पता नहीं क्यों लोग दारू और दारूबाजों को ठीक नजर से नहीं देखते हैं। मेरा मानना है कि संयम के साथ किसी भी चीज के सेवन बुराई क्या है ? सामान्य लोग मानते हैं कि यह दारू मदिरा शराब से आदमी बिगड. जाता है। अपन परिवार भी कुछ इस मामले में तनी पुरानी सोच वाला ही है। खैर इस पारिवारिक बुढ़ऊंपन सोच के कारण गाहे बेगाहे दर्जनों मौकों पर अपने दारूबाज दोस्तों की नजर में मेरा जीवन बेकार एकदम अभिशाप सा हो गया। इन तगमों उलाहनों और प्रेम जताने के नाम पर दी जाने वाली मनभावन रिश्तों वाली गालियों को सहन के बाद भी दारू कभी मुझे अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर सकी। मेरी धारणा है कि दारू को कोई नहीं पीता अंतत दारू ही सबको पी जाती है। इन तमाम पूर्वाग्रहों और गंवईपन वाली धारणा के बाद भी एक घटना ने मेरी आंखे खोल दी। चाहे शराब की जितनी भी हम निंदा करे, मगर शराब कुछ मामलों में संजीवनी से कम नहीं।

सुरंजन के साथ मैं सहारनपुर में ही था।  तभी लांयस क्लब वालो नें अपने सालाना जलसे में खास तौर पर अवस्थी जी को बुलाया था। अपने परम सहयोगी सुरेश नीरव  के साथ पूरे आदर सम्मान के साथ वे सहारनपुर पधारे। कहना बेमानी होगा कि इनका किस तरह का स्वागत किया गया होगा। बढ़िया होटेल में इनको और नीरव जी को ठहराया गया। रंगारंग कार्यक्रम के बीच रात में खानपान भी था। और इनसे मिलिए कार्यक्रम में अवस्थी जी को शहर की गणमान्य महिलाओं और महिला लेखको से मिलना था। उनके दिल्ली से आते ही हमलोग की सहारनपुर में एकाध घंटे की मुलाकात हो गयी थी। नीरव जी के संग गपशप के अलावा अवस्थी जी भी हम दोनों को यहां देखकर बहुत खुश हुए।

 रंगारंग कार्यक्रम निपट गया था और इनसे मिलिए का आयोजन भी समापन के बाद खाने और पीने का दौर चलने लगा था। अवस्थी जी भी नशे मे थे। दारू का रंग दिखने लगा था। तभी एकाएक पता नहीं सुरंजन एकाएक क्यों सनक गया और करीब 25-30 मिनट तक अवस्थी जी को गालियां देने लगा । दर्जनो लांछनों के साथ सुरंजन ने अपनी अश्लील भाषा में कहे तो अवस्थी जी को बेनकाब कर दिया। चारो तरफ सन्नाटा सा हो गया। मगर किसी क्लब वालों ने सुरंजन को पकड़ने या मौके से बाहर ले जाने की कोई कोशिश नहीं की। एक तरफ कई सौ लोग खड़े होकर इस घटना को देख रहे थे और दूसरी तरफ सुरंजन के गालियों के गोले फूट रहे थे। खुमार में अवस्थी जी बारबार सुरंजन को यही कहते क्यों नाराज हो रहे हैं सुरंजन इस बार आपकी कविता कवर पेज पर छापूंगा। तो बौखलाहट से तमतमाये सुरंजन ने मां बहिन बीबी नानी बेटी आदि को दागदार करते हुए कुछ इसी तरह कि गाली बकी थी तू क्या छापेगा आदि इत्यादि अनादि।

मैं दो चार बार अवस्थी सुरंजन कुरूक्षेत्र में जाकर सुरंजन को पकड़ने रोकने की पहल की। कईयों को इसके लिए सामने आने के लिए भी कहा पर बेशर्म आयोजक अपने मुख्य अतिथि का अपने ही शहर में बेआबरू होते देखकर भी बेशर्म मुद्रा में खड़े रहे। वहीं मैं एकदम हैरान कि जिस सुरंजन के साथ मैं अपना बेड और रूम शेयर कर रहा हूं वो भीतर से इतना खतरनाक है। खाल नोंचने का भी कोई यह तरीका है भला।

इस बेशर्म वाक्या का मेरा प्रत्यक्षदर्शी होना मेरे लिए बेहदअपमान जनक सा था। इस घटना के बाद रात में ही मेरे और सुरंजन के बीच अनबन सी हो गयी और मैने जमकर इस गुंडई की निंदा की। वो मेरे उपर ही बरसने की कोशिश की। मैने देर रात को फिलहाल प्रसंग बंद रात काटी। और अगले दिन सुबह तैयार होकर होटेल जाने लगा। इस घटना के बाद सुरंजन की भी बोलती बंद थी. हमलोग होटेल पहुंचे। मेरे मन में  यह आशंका और जिज्ञासा थी कि अवस्थी जी कैसे होगे?
मगर यह क्या ? कमरे में हमलोग को देखते ही अवस्थी जी मुस्कुरा पड़े और आए आइए कहकर स्वागत किया। कमरे में नीरव जी पहले से ही विराजमान थे। हमलोग को देखते ही अवस्थीजी ने हमलोग को अपने साथ ही खिलाया चाय कॉफी में भी साथ रखा। माहौल ऐसा लग रहा था मानो कल रात कुछ हुआ ही न था या कल रात की बेइज्जती का उन्हें कोई आभास नहीं था।

हमलोग उनके साथ करीब दो घंटे तक साथ रहा और उनकी विदाई के साथ ही सुरंजन के साथ वापस दफ्तर लौटा। मेरे दिमाग में कई दिनों तक यह घटना घूमती रही। सुरंजन भी एकाध माह के अंदर ही कुछ विवाद होने के बाद विश्वमानव अखबार छोड़कर वापस दिल्ली लौट गया। मगर मैं 11 दिसम्बर 1988 तक सहारनपुर में ही रहा। एक सड़क हादसे में बुरी तरह घायल होने के बाद दिल्ली में करीब एक माह तक इलाज हुआ.। मगर जैसे आदमी अपने पहले प्यार को जीवनभर भूल नहीं पाता ठीक उसी तरह पहली नौकरी की इस शहर को 28 साल के बाद भी मैं भूल नहीं पाया हूं। आज भी इस शहर में बहुत सारे मित्र है जिनकी यादें मुझे इस शहर की याद और कभी कभार यहां जाने के लिए विवश कर देती है।

अनामी शरण बबल / महेंद्र सिंह टिकैत

 टिकैत के साथ ही खामोश हो गयी किसानों की आवाज




अनामी शरण बबल



मई 1990 की बात है, मैं किसी रिपोर्ट के सिलसिले में मेरठ गया था। किसी पत्रकार ने ही मुझे बताया कि पिछले दो सप्ताह से किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत जिला अस्पताल में भर्ती है। कहीं गिर जाने से पैर की हड्डी टूट गयी थी। मामला थोड़ा टिकैत का है इस कारण अस्पताल में पत्रकारों को जाने की अनुमति नहीं है। मेरठ से काम निपटा कर मुझे रात मुजफ्फरनगर में काटनी थी और अगले दिन शाम तक सहारनपुर पहुंचना था। एकदम टाईट कार्यक्रम के बावजूद मुझे लगा कि जब मेरठ में हूं तो टिकैट से मिले बगैर जाना ठीक नहीं। इसका टिकैत जी पर भी ज्यादा प्रभाव पड़ेगा और अपन रिश्ता भी सरस सरल और स्नेहिल सा हो जाएगा।

 अभी मैं अस्पताल के गेट पर ही था कि तीन चार साथियों के साथ टिकैत पुत्र राकेश टिकैत पर मेरी नजर पड़ी। राकेश को देखते ही मेरा मन खिल गया और लगा कि अब टिकैत से मिलना तो हो ही जाएगा। चाय रस और समोसे खा रहे राकेश एंड पार्टी के पास पहुंचते ही मैने सीधे पूछा कि बाबूजी अब कैसे है एकाएक मेरे को गौर से राकेश देखने लगा। मैने तुरंत कहा यही तो दिक्कत है राकेश जी कि लिखना याद करना और रखना भी हम पत्रकारों के ही जिम्मे है क्या? दिल्ली और शामली में दो तीन बार मिला था। मेरी बाते सुनकर राकेश खुशी से चहकते हुए कहा हां हां बाबूजी के साथ आपको कई बार देखा था। मैने तुरंत कहा कि कल शाम को ही मुझे दिल्ली में पता लगा कि बाबूजी बीमार हैं तो सोचा कि एकबार मिल आना चाहिए। मेरी बात सुनते ही राकेश मुझसे लिपट गए और हैरानी से कहा केवल बाबूजी को देखने आए हो आप ?   हंसते हुए मैने कहा राकेश जी बिहारी हूं लिहाजा यह भी नहीं कह सकता कि मेरठ कोई अपना ससुराल है। हंसी मजाक के बीच उनलोग के साथ चाय पी और राकेश के साथ सीधे महेन्द्र सिंह टिकैत के आरामदायक कमरे में ले जाया गया। दर्जनों लोगों की भीड़ कमरे के बाहर खड़ी थी तो घर की तीन चार महिलाएं बेड के आस पास में खड़ी थी।

टिकैत को नमस्कार करके एक कुर्सी पर बैठते ही उनके एक हाथ को लेकर हाल चाल पूछा। अपनी याद्दाश्त पर जोर देते हुए टिकैट ने कहा इधर भी आ गया छोरा ( महेन्द्र सिंह टिकैट से जब मैं पहली बार मिला था उस समय मेरी उम्र 22 साल की थी और वे तभी से वे मुझे नाम लेने की बजाय केवल छोरा ही कहते रहे)। राकेश टिकैत ने अपने बाबूजी को बताया कि ई केवल आपसे मिलने आए है, इनको दिल्ली में कल ही पता चला कि आप अस्पताल में हो। उठने बैठने से लाचार होने के बाद भी अपने बेटे से मेरे बारे में इन बातों को सुनकर वे गदगद हो गए। उनकी आंखे सजल हो गयी और मन ही मन मैं अपना दांव एकदम सही बैठने पर खुश हो रहा था। इनकी झलक पाने के लिए सैकड़ो लोग अंदर बाहर खड़े थे। मगर मैं अंदर एक घंटे तक बैठे बैठे इनके उदय से लेकर भावी दशा दिशा रणनीति से लेकर किसानों के स्थायी लाभ आदि पर बहुत सारी बातें की। भारतीय किसान यूनियन के भीतरघात पर भी कुछ हाल सवाल करता रहा। चूंकि मैं लिख नहीं रहा था लिहाजा बहुतों को इंटरव्यू सा नहीं लगा. और मैं ढाई तीन घंटे तक अस्पताल में रहते हुए थोकभाव से मौजूद किसान नेताओं से बाते करके भावी कार्यक्रमों पर जानकारी ले ली।

अस्पताल से बाहर निकला तो लगभग चार बज गए थे। मुझे अब सहारनपुर या मुजफ्फरनगर जाने से ज्यादा उचित दिल्ली लौटना ही लगने लगा, ताकि इस इंटरव्यू को कल दोपहर तक देकर अगले दिन बाजार में आने वाले अंक में इंटरव्यू छप जाए। बस में बैठा में इंटरव्यू की रूपरेखा बना ली और रात में दिल्ली लौटते ही मैने पूरे एक पेज के लंबे इंटरव्यू को देर रात तक जागकर रात में ही लिख डाला। अगले दिन शुक्रवार को सुबह सुबह दफ्तर में जाकर इंटरव्यू डेस्क पर दे पटका। इंटरव्यू देखकर हमारे संपादक श्री सुधेन्दु पटेल और मुख्य समाचार संपादक श्री कृष्ण कल्कि की आंखों में चमक आ गयी। अगले दिव मैं सहारनपुर हरिद्वार के लिए निकल गया। जबकि मेरे अनुरोद पर चौथी दुनिया की एक सौ प्रति खास तौर पर टिकैतों के लिए मेरठ भिजवा दी गयी। करीब चार दिन में इधर उधर हर जगह का हाल खबर लेकर वाया मुजफ्परनगर होते मेरठ लौटा। कई पुलिस अधिकारकियों से बातचीत के बाद मैं एक बार फिर मेरठ अस्पताल चला गया, तो इस बार यहां का नजारा ही बदला हुआ था। चौथी दुनिया साप्ताहिक अखबार की धूम थी। मेरठ होते दिल्ली से भी सैकड़ों कॉपी मंगवाकर अपनी जरूरतें पूरी की। राकेश से मुलाकात तो नहीं हो सकी मगर मैं दो पल में ही टिकैत के सामने था। मुझे देखते ही वे सीनियर टिकैत चीख पड़े अरे छोरा बिना लिखे ही कागज पर तूने तो मेरी सारी बात लिख डाली। हंसते हुए उन्होने कहा केवल मुझै ही नहीं सबौ को तेरा लिखा बहुत पसंद आया है । किसी से कहकर टिकैत ने मुझे अपने घर के दो जमीनी नंबर (लैंड लाईन नंबर) लिखकर देते हुए कहा कि जब तुम्हें आना हो तो फोन कर देना तो शामली से आने की व्यवस्था करा दी जाएगी।


मेरठ में स्वास्थ्य लाभ कर रहे टिकैत पर मेरा यह उल्लेख थोड़ा लंबा हो गया है मगर इसी एक घटने के बाद मैं महेन्द्र सिंह टिकैत से अपने संबंधों समेत उनके स्वभाव और कारिंदों पर भी पर बात करूंगा। मैं भारतीय जनसंचार संस्थान नयी दिल्ली 1987 में आने से पहले तक टिकैत का केवल नाम भर ही सुना था। मगर 1987 में दिल्ली वोट क्लब पर चक्का जाम करके संसद से लेकर नयी दिल्ली को पूरी तरह ठप्प कर दिया। मेरठ मुजफ्परनगर बागपत समेत पूरे पश्चिमी यूपी में किसान हितों को मुद्दा बनाकर लखनऊ तक को हिला डाला। और 1987 से 1990 के तीन सालों मे भारतीय किसान यूनियन ने लगभग एक दर्जन शहरों में किसान आंदोलन धरना प्रदर्शन करके देश भर में छा गए। 1987 से लेकर 2011 कर इनसे मेरी कमसे कम दो दर्जन बार मुलाकात हुई होगी। ज्यादातर मुलाकात तो संसद मार्ग थाना नयी दिल्ली के सामने बैरिक्रेटस के पास होती थी । इतनी भीड़ में भी हाल चाल नमस्ते के बाद दो चार बातें इनसे जरूर हो जाती थी।

समय सूत्रधार पाक्षिक मैग्जीन के लिए मुझे टिकैट के गांव सिसौली 1992 में जाना पड़ा। रह रहकर हंगामा मचा देना या यों कहे कि जब पेपर में लोग बाग नाम भूलने लगे तो टिकैत एंड कंपनी द्वारा फिर कहीं कोई हंगामा मचा दिया जाता। एक तरह से महेन्द्र टिकैट को लोग जाति से जाट की बजाय जाम टिकैट नेता हंगामेदार नेता औरकबी कभी दूसरों के कहने पर चलने वाले मूर्ख नेता का भी तगमा दे डालते। पुलिस प्रशासन बी इनसे थोड़ा कांपती थी। म्रठ के एकवरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा कि टिकैत थोड़ा सनकी है अगर एक बार सनक गए तो इनको मनाना सरल नहीं ।


बागपत्त सहारनपुर के रास्ते शामली तक तो मैं आ गया मगर राकेश टिकैत से बात नहीं होने का खामियाजा मुझे चिलचिलाती धूप में कई किलोमीटर तक पैदल चल कर चुकाना पड़ा। गांव सिसौली थाना भौरांकला पड़ता है। बीच रास्ते में यहां के थानेदार अपनी मोटर साईकिल पर सवार मिल गए। रास्ते में गुजर रहे थानेदार को मैने हाथ देकर रूकवाया तो दरियादिल सिपहिया रूक गया। जब मैने बताया कि मुझे टिकैत के यहां गांव सिसौली जाना है तो एकदम पूरे अदब के साथ लिफ्ट देते हुए सीधे महेन्द्र सिंह टिकैट की कोठी के बाहर तक न केवल पहुंचाया बल्कि मुझे लेकर सीधे एक हॉल में ले गया जहां पर 50-60 किसानों का एक दलबल गप्प शप्प के साथ हुक्के गुड़गुड़ा रहा था। मुझे देखते ही टिकैत ने बिन फोन किए आने पर हैरानी प्रकट की। मैने शिकायती लहजे में कहा कि फोन है या कटवा दी आपने। दो दिन से घंटी बजाते बजाते मेरे हाथ थक गए।  मेरी बात सुनते ही वे दूरभाष विभाग को भला बुरा कहने हुए बताया कि दो सप्ताह से दोनो फोन काम नहीं कर रहे है।

मैने सोचा यही मौका है जरा इनको गरम पानी में  उबाला जाए. मैने हंसते हुए कहा मैं समझ गया दद्दा अब सत्ता और ई फोनवा वालो को अब आपसे डर लगना बंद हो गया है। कहां तो लखनऊ हिलाते थे और अब आपके गांव का ही कोई कर्मचारी भय नहीं खाता। ई सब आपको परख रहे है कि गरमी बाकी है या....?????
 मेरी बात सुनते ही दर्जनों जाट आपस में ही हां हां करने लगे। कहां मर गयौ कहते हुए हाल में बैठे कुछ नौजवान जाट पुत्रो ने अपनी मोटरसाईकिल से निकाल कर गांव में तलाशी चालू कर दी। मैं थानेदार के साथ हाल में बैठा रहा। इस बीच छाछ का सेवन किया गया।
यहां पर एक रोचक प्रसंग लिखना मुझे जरूरी लग रहा है। थानेदार ने मुझे बाहर चलने का संकेत किया। उसके साथ मैं भी बाहर बरामदे में था। थानेदार ने टिकैत के साथ मेरे मेलजोल वाले रिश्ते को देखकर बिनती की। बकौल थानेदार यार लखनऊ का हूं और चार साल से यहीं पर टंगा हूं। केवल टिकैत जी के नहीं चाहने से मेरा तबादला रूका पड़ा है। हमारे कप्तान (एसएसपी) ने कह रखा है कि तेरा केस स्पेशल है, टिकैट चाहते हैं कि तबादला ना हो। उसने कहा कि यार बड़ी मेहरबानी होगी मेरे लिए आप सिफारिश कर दो न। हम दोनों को कानाफूसी करते देख टिकैत ने मुझे हांक मारी इधर आ जा आजा। मुस्कुराते हुए टिकैत ने मुझसे पूछा अपने बदली (ट्रांसफर) का पौव्वा लगवा रहा है न। टिकैट ने कहा कि यह सबों को एकदम घर सा मान देता है और कितना भला है यह तुम देख ही रहे हो। मगर यह भागना चाहता है यहां से। मैने थानेदार का पक्ष लेते हुए कहा कि इसको गौशाला में बांध कर रखा करे। एकदम फालतू होकर पालतू बन गया है। मेरी बात सुनकर टिकैत चौंक से गए कि बोले ? मैने थानेदार का ही पक्ष रखा इसको पुलिसिया ही बने रहने दो दद्दा डांगर ना बनाओ । इसके भी बाल बच्चे और मेहरारू है। आप समझ रहे हो न ? एक तरफ मेरी बाते सुनकर कई जाटों में भी थानेदार के प्रति सहानुभूति जाग गयी। थानेदार ने मेरे प्रति आभार जताया कि बस मैं अब अपना काम करवा लूंगा?

करीब एक घंटे में तीन फोन कर्मचारियों को अपने साथ धर पकड़ कर जाट युवकों का दल कमरे में दाखिल हुआ। टिकैत की फटकार के बाद देखते ही देखते दो सप्ताह से बेकार पड़े फोन मेरे आते ही घनघनाने लगे। इस खुशी में किसी ने सबों को खाने के लिए लड्डू देना चालू कर दिया। फोन के जिंदा होने पर टिकैत खुश हो गए छोरा तू तो बड़ा मस्त है जब आता है तभी मन में एक छाप दे जावै (जाता है)।

दिल्ली और लखनऊ के नेता अक्सर सिसौली में आकर टिकैत को अपने पाले में रखते थे, मगर बहुजन समाजवादी पार्टी की बहिन जी मायावती से इनकी भिंडत  कांटे की रही। आरोप लगा कि टिकैत ने बहिनजी को जातिसूचक गाली दी थी। जिससे खफा होकर सिसौली गांव को छावनी में बदल दिया गया। टिकैत की गिरप्तारी के आदेश पर आदेश जारी हो रहे है तो दूसरी तरफ हजारों जाट किसान गोताखोर की तरह दलबल और बंदूकों के साथ पुलिसिया कार्रवाई की छिपकर प्रतीक्षा करते रहे। चारो तरफ तनाव ही तनाव और कुछ भी होने की आशंका देर सबेर गिरफ्तारी करके हेलीकॉप्टर से टिकैत को ले जाने की तमाम योजनाओं को पूरा करने के लिए तैयार यूपी पुलिस फौज की तैनाती के बाद भी मुख्यमंत्री मायावती को अपनी जिद्द और दंभ त्यागना पड़ा। सरकार इसके लिए हिम्मत नहीं जुटा सकी। और खून खराबा के एक हिसंक काले अध्याय की पटकथा अधूरी रह गयी। यूपी में 2012 विधानसभा चुनाव में एकाएक बसपा के मतदाता इस तरह उखड़े कि बहिनजी का भी हाल खराब हो गया। 2017 विधानसभा चुनाव सामने है और बसपा के जनाधार की भी अग्निपरीक्षा बाकी है कि अब टिकैत के बिना बसपा का क्या  होगा ?  


भूमि अधिग्रहण गन्ना किसानों का अरबों का बकाया और भुगतान के लिए चीनी मील मालिको की नमक हरामी भी टिकैट के सामने नहीं चली। लंबित भुगतान बैंकों के उत्पीडन किसान खुदकुशी अकाल बिजली बिल पानी की सही आर्पूर्ति और कर्ज माफी आदि दर्जनों मामले इस तरह के थे कि भारतीय किसान यूनियन को चैन की वंशी बजाने का कभी मौका नहीं मिला। इन तमाम समस्याओं को हवा देकर टिकैत सरकार और नौकरशाहों के लिए एक चुनौती बन गए। जिसे नाथ पाना किसी के बूते में नहीं था। एक आह्रवान पर चार छह घंटे में एक लाख से भी अधिख जाटों या किसानो को बुलाकर अपनी बात मनवा लेना ही टिकैत का तिलिस्मी जादू था। जो 2011 मे उनके निधन के साथ ही यह चमत्कार भी लुप्त हो गया या यों कहे कि इनकी मौत के साथ ही किसानों की आवाज भी सदा सदा के लिए खामोश हो गयी। टिकैत से बगावत करके और भाकियू को कई फाड़ कर कर के टिकैत सा ही धारदार बनने के लिए लालयित कई नेताओं में से किसी एक ने भी आगे बढने का कोई प्रयास तक नहीं किया। एक दो दिन में लाखों करोड़ो रूपये खर्च करने वाले यूपी के जाटों की माली हालत अब करोड़ों की हो गयी है मगर आधुनिकता की मार कहें या फैशनपरस्ती  कि  इन किसानों के हल कुदाल और पाटा की तरह ही किसानों की नयी नस्लें धरना प्रदर्शन आंदोलनों की धार के साथ ही किसान नेता महेन्द्रसिंह टिकैत को भी भूल से गए।














































अनामी शरण बबल / विजय गोयल

 विजय गोयल के पाले में गेंद


अनामी शरण बबल


उम्र के 62 बसंत में भी दिल्ली के सबसे तेजतर्रार और आप के लिए खिलाफ सबसे बड़े योद्धा साबित हुए भाजपा नेता विजय गोयल को अंतत:मोदी सरकार में शामिल कर ही लिया गया। दिल्ली में खुश होने वाले से कहीं ज्यादा बड़े जन समुदाय को यह रास नहीं आया होगा। हालांकि आप के खिलाफ भाजपा के विद्रोही तेवर के चलते का ही इनको यह पुरस्कार मिला है। वाजपेयी आडवाणी कैंप के हनुमान होने के कारण ही गोयल को मोदी कैंप में अपनी जगह बनाने में काफी समय लगा। मगर गोयल की निष्ठा पर किसी को संदेह नहीं। मोदी के बारे में श्री गोयल का यह बयान काफी लोकप्रिय रहा जब मोदी को भी महात्मा गांधी की तरह ही सावरमती का संत घोषित कर डाला। इसकी बड़ी चर्चा हुई। मगर मोदी जी को यह टिप्पणी जरूर रास आयी होगी। इसी तरह दिल्ली से पार्टी का एक आक्रामक चेहरे को प्रमोट करके श्री गोयल के काम को मोदी ने नवाजा है।
दिल्ली विधानसभा के अध्यक्ष रहे चरती लाल गोयल के पुत्र विजय गोयल को भले ही राजनीति विरासत में मिली हो मगर उन्होने अपने संघर्ष और योद्धापन के चलते ही लंबे सफर के राही बने। 1995-96 दिल्ली की राजनीति में एक साथ तीन नेताओं का उदय हुआ। कांग्रेस खेमे से महाबल मिस्र ( पार्षद और सांसद) और रमाकांत गोस्वमी (हिन्दुस्तान अखबार के चीफ रिपोर्टर से कांग्रेस विधायक और मंत्री) तथा भाजपा खेमे से विजय गोयल ।
लॉटरी (बाजी) टिकट की बिक्री के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले युवा नेता ( 40-42की उम्र होगी) विजय गोयल की सफलता की कहानी को सामने रखना तो और भी जरूरी है । और देश में लॉटरी का धंधा चौपट हो गया तो इसके पीछे भी गोयल की ही भूमिका रही है। महज 10 साल के भीतर लॉटरी नेता से सांसद और कैबिनेट मंत्री तक बनने वाले विजय गोयल की परियों जैसी सफलता की कहानी के पीछे दिवंगत नेता प्रमोद महाजन की हर प्रकार की भूमिका रही है। दिवंगत प्रमोद महाजन की वजह से भी आसमानी सफलता हासिल करने वाले गोयल कभी दिल्ली विवि डीयू के तेजतर्रार नेता भी रहे हैं।
अखबार के दफ्तरों में अपने प्रेस नोट्स लेकर ठीक से छापने के लिए अक्सर अनुनय विनय और प्रार्थना करने वाले गोयल का रिश्ता हम पत्रकारों से सांसद बनने तक तो ठीक रहा । वे हम पत्रकारों के संपर्क में भी लगातार रहे, मगर पीएम अटल बिहारी वाजपेयी कैबिनेट में मंत्री बनते ही गोयल भाजपा के वरिष्ठ मंत्री बनकर हम पत्रकारों से ही परहेज करने लगे। शायद वे यह भूल गए कि हम पत्रकार तो चींटी की तरह होते है काम भला हो या बुरा हर जगह बेरोकटोक चींटी आ ही जाता है। चींटी किसी का सगा नहीं होता।
मंत्री पद से उतर जाने के करीब 12 साल तक श्री गोयल ने दिल्ली में की सड़कों पर धमाल चौकड़ी की, तब कहीं जाकर वे प्रधानमंत्री के गुडबुक में दाखिल हुए। दो एक बार श्री गोयल को इस बात को लेकर मुझसे बड़ी आपति हुई कि क्यों मैं उनके बारे मे बार बार कहीं कभी कुछ लिखा तो लॉटरीनेता जरूर जोड़ा। जब मेरी उनसे तकरर सी होते होते बची यह कहने पर कि सहारा आज भी 2000 से 20 हजर करोड़ की संपति का उल्लेख क्यों करती है ताकि इससे लोगों के दिमाग में मैप उभरे कि किस छोटे से आरंभ सफऱ किस तरह बड़ी मंजिल तक गयी है। यदि मैं चरती लल गोयल के बेटे को फोकस करूंगा तो लोग बाग यही समझेंगे कि यह बाप बेटे का पुश्तैनी खेल है। मग मैं लॉटती नेता लिखकर तो तुम्हारी ही छवि में चांद लगा देता हूं । अब चांद को चार चांद बनाना लगाना साबित करना विजय गोयल का काम है। और रही बात चीखने चिल्लाने की तो एक पत्रकार ही तो आईना दिखाता है। हमलोग तो एक रेलवे प्लेटफॉर्म की तरह होते है । जो भी जितन भी बड़ा हुआ है और बड़ी दूर तक गया तो भी वो सब पत्रकारों के घुटने के नीचे होकर ही। मेरी बात सुनकर गोयल शांत हुए और बात खत्म हो गयी। एक लंबे अंतराल के बाद केंद्रीय मंत्री बने गोयल के सामने यह एक नायाब मौका है कि वो दूसरों से बेहतर साहित करे, क्योंकि जिन उम्मीदों के साथ मोदी ने दिल्ली के सांसदों को मंत्री बनाया था उसमें कोई भी दो साल में जनता के साथ साथ मोदी की कसौटी पर भी खऱे नहीं उतरे है। चतुर प्रधानमंत्री ने श्री गोयल के पाले में गेंद डाल दी है। अब देखना यह है कि वे किस तरह खुद को औरों से बेहतर साबित करते हैं या....

पापा की तस्वीर


अनामी शरण बबल / ग्राहक बनकर कमरे में बैठा रहा

 जब ग्राहक बनकर कमरे में बैठा रहा / अनामी शरण बबल




 यह अपने बिंदासपन और एक पत्रकार होने के कारण ही मैंने नगर सुदंरियों के हाव भाव और जीवन को जानने की ललक की आपबीती लिखी। अभी तक छह किस्तों में अपने मेलजोल की लीला को मस्त तबीयत के साथ बखान भी किया । यदि मैं पत्रकार नहीं होता तो निसंदेह एक सामन्य नागरिक की तरह ही मैं भी अपनी इमेज और इज्जत (?) बचाने की जुगत में ही 24 घंटे लगा रहता। यदि मैं इन सुदंरियों और कोठे का दीवाना भी रहा होता तो भी अपनी इस बहादुरी पर पूरी बेशर्मी से ही पर्दा डालकर शराफत का नकाब पहने रहता। मगर किसी भी अपने सच को लंबे समय तक छिपाना मेरे लिए असंभव है। यह अलग बात हैं कि मेरे भीतर मेरे बहुत सारे दोस्तों के जीवन का काला सच छिपा है। मेरे उपर भरोसा करने वाले इन तमाम लोगों या परिचितों का मैं शुक्रगुजार हूं कि बातूनी स्वभाव के बाद भी मेरे उपर यकीन किय। और मैं भी जानता हूं कि इनका सच भी मेरे शव के साथ ही लोप हो जाएगा। अपने इन मित्रों ( जिनमें कई अब कहां हैं यह भी नहीं जानता) मेरे दो टूक बोल देने या साफगोई के कारण ही कोई महिला मित्र मेरे को नसीब नहीं हुई। और जो मेरी जीवनसाथी है वो भी अक्सर मेरी इसी साफगोई से ही तंग परेशान रहती है।
यहां पर मैं चाहता तो सुदंरियों की एक और किस्त बढा सकता था जिसमें दिल्ली के उन इलाकों की खबर ली जाती, जिसमें लड़किया औरतें ही खुलेआम सड़कों पर यारों की तलाश करती है। मगर इन इलाकों में मैं पिछले काफी समय से गुजरा नहीं हूं लिहाजा जमाना बदलने के साथ साथ और क्या क्या नफासत और ट्रेंड बदला या जुड़ा है इसकी अप टू ड़ेट रपट नहीं दी जा सकती थी। लिहाजा इसे कभी श्रृंखला 8 के लिए रख छोड़ते है। आज श्रृंखला सात में मैं खुद को ही नंगा कर रहा हूं। दूसरों को तो नंगा या बेनकाब करना तो सरल होता हैं मगर खुद को बेनकाब करना आसान नहीं होता। वेश्याओं के बारे में जब मैने जमकर रसीली बातें की हैं तो जरा अपना भी तो रस निकले। इस खबर कहें या रपट कहें या जो नाम दें जिसको मैं आज लिख रह हूं तो इसी के साथ मेरे मां पापा मेरी पत्नी बेटी सहित मेरे सभी छोटे भाईयों और इनकी पत्नी सहित बच्चों को भी पता चलेगा कि बड़े पापा क्या वाकई आदर इज्जत और सम्मान के लायक है ?  मेरे परिवार के सभी मेरे बड़े पापा चाचा मामा मामी  मेरे बड़े भैय्या भाभी और बच्चों समेत मेरी सास मां सहित मेरे भरे पूरे परिवार में भी मेरे  इस नंगई  का पर्दाफाश होगा कि पत्रकारिता का यह कौन सा चेहरा है ?अपने पाठकों सहित सभी चाहने वालों से यह उम्मीद करता हूं कि वे अपनी नाराजगी ही सही मगर अपने आक्रोश को जरूर जाहिर करे ताकि अगली बार इसी तरह की कोई रिपोर्ट करने के खतरे को भांपकर मैं ठहर जाउं। खुद को रोक लूं या अपने उपर काबू कर सकू कि हर हिम्मत सामाजिक तौर पर सही नही  होता। मैं अपने समस्त परिचितों से क्षमा मांगते हुए श्रृंखला सात को प्रस्तुत कर रहा हूं। आप चाहें तो कोई टिप्पणी नहीं भी कर सकते हैं क्योंकि कोई भी बहादुरी या सूरमा बनने के लिए जब किसी की सहमति अनुमति नहीं ली हैं तो फिर कमेंट्स के लिए प्रार्थना क्यों  ? 

यह घटना 2003 की है। वेश्याओं पर इतनी और बहुत सारे कोण से खबर करने और उनके दुख सुख नियति पीड़ा और दुर्भाग्य को जानने के बाद भी मुझे लगा कि अभी भी इन पर एक कोण से रपट नहीं किया जा सका है, और इसके बगैर इन लिखी गयी किसी भी बात का शब्दार्थ नहीं है। तभी मुझे लगा कि एक ग्राहक बनकर अकेले में उसके हाव भाव लीला को जाने बिना तमाम किस्तें बेमनी और केवल शब्दों की रासलीला में अपनी चमक दमक दिखाने से ज्यादा कुछ नहीं है। सूरमा बनकर तो बहुतों से बात की और रसीली नशीली बातें करके तो  मैं इन कोठेवालियों को भी मुग्ध कर डाला, मगर अपनी असली परीक्षा अब होने वाली थी। बहुत सारे कोठे और वेश्याओं और उनके घर को जानने के बाद भी ग्राहक बन कर कहां चला जाए ?इस समस्या के समाधान के लिए मैंने शाहदरा के एक पोलिटिकल मित्र को साथ चलने के ले राजी किया। इस किस्त को लिखने को लिखने से पहले मैं खास तौर पर शाहदरा में जाकर उसे मिला और नाम लिखने को बाबत पूछा।एक पल में ही सहर्ष राजी होते हुए उसने कहा अरे अनामी भाई जब तुम अपना नाम दे रहे हो तो कहीं पर भी मेरा नाम डाल सकते हो। उसके इस प्रोत्साहन पर मैं एकदम नत मस्तक हो गया तो हंसते हुए मेरा मित्र दर्शनलाल ने कहा कि मेरी पत्नी को मुझसे ज्यादा तुम पर भरोसा है कि जब अनामी भैय्या होंगे तो मैं चाहकर भी बहक नहीं सकता। 


अब समस्या थी कि जाए तो कहां जाए ?मेरे मित्र अपने कुछ रंगीन दोस्तों से सलाह मशविरा करने लगा। कईयों ने हम दोनों की खिल्ली भी उड़ाई कि अब कोठा पर जाने का जमाना कहां रह गय है। जब चाहो और  जहां चाहों किसी भी जगह कॉलगर्ल आ जाएगी। मैने कहा कि कॉलगर्ल कहां मिलेगी क्या इसकी जानकारी केवल उसी को हैं मगर हमें कोठे पर ही जाना है वेश्याओं कहो या रंड़ियों के पास। हाई फाई मौजी लड़कियों पर कभी काम किया तो बाद में मगर अभी केवल कोठा पर जाना है। मेरे मित्र दर्शनलाल ने कई दिनों के होमवर्क के बाद जीबीरोड के कुछ कोठे का हाल चाल पता लगा लिया। इस पर मैंने उन दो चार कोठे पर नहीं जाने के लिए कहा जहां पर कुछ  वेश्याओं नें मुझे गर्भवती बताकर ले गयी थी। दर्शनलाल ने यह कह रखा था कि कमरे में केवल तुम्हें जाना हैं, मैं बाहर बैठकर तब तक आंटियों और खाली लड़कियों को कुछ खिलाउंगा ।  छत पर जाने के साथ ही एक आंटी सामने थी।  मेरे मित्र ने कह कि यह मेरा दोस्त हैं और पहली बार यहां आया हैं सो इसकी हिम्मत नहीं हो रही थी तो मैं केवल साथ भर हूं। आंटी निराश सी हो गयी तो मेरे मित्र ने कहा तू उदास क्यों हो रही हैं कीमत से ज्यादा मैं खर्च मैं तुमलोग के साथ चाय पानी पर करूंगा।  मेरे समने हर तरह की करीब 10 वेश्याएं आकर खड़ी हो गयी। कुछ तो वाकई बहुत सुदंर चपल चंचल तेज और मर्दमार सी ही दिख रही थी। मगर इन्ही भीड़ में ही एक सबसे सामान्य संवली नाटी और किसी भी मामले में अपनी साथिनों के बीच नहीं ठहरने वाली मायूस और मासूम सी उदास लड़की दिखी।  मैने उसकी तरफ अंगूली कर दी, तो सारी लड़कियं एक साथ ठठाकर हंस पड़ी।  दो एक उस लड़की पर कटाक्ष किया अरे वंदना तू भी किसी की पसंद बन सकती है। आंटी मेरी तरफ देखने लगी और बोली हो जाता है हो जाता है तू चाहे तो फिर किसी को पसंद कर ले। मैने फौरन कहा क्यों ?  क्या कमी है इसमें । इसमें जितना सौंदर्य और आकर्षण हैं यहां पर खड़ी और किसी में कहॉ ?  सब आंख नाक मुंह और छाती उठाकर अपने को बिकाउ होने का बाजा बजा रही थी। मगर यहां पर यही तो केवल एक इस तरह की मिली जो एकदम शांत और अपने शारीरिक मानसिक सुदंरता का बाजार नहीं लगा रही थी।  आंटी ने 30 मिनट का समय और ढाई सौ रूपये कीमत का ऐलान किया। मेरे दोस्त नें पांच सौ रुपये का एक नोट निकाला और आंटी की गोद में यह कहते हुए डाल दिया कि बाकी रूपये का तुमलोग चाय पानी पी सकती हो। इस पर आंटी तुरंत मुझसे बोल पड़ी कि तू चाहे तो और ज्यादा समय तक भी अंदर रह सकता है। मैं और दर्शनलाल ने एक दूसरे को देखा और मैं अंदर जाने के लिए तैयार हो गया। मेरी पसंद वाली लड़की का उदास चेहरा एकदम खिल सा गया था, और एकदम चहकती हुई मेरा हाथ पकड़कर मेरे साथ एक कमरे में घुस गयी। कमरे में एक सिंगल बेड लगा था,और दीवारों पर कई उतेजक कैलेण्डरों के बीच भगवान शंकर और हनुमान जी के कैलेण्डर टंगे हुए थे। कमरे के बाहर ही मैं अपने जूते उतार दिए थे। कमरे का मुआयना करते हुए मैने कहा कि यहां पर इन भगवानों के कैलेण्डर क्यों टांग रखी हो ?इस पर वो खिलखिला पड़ी और चहकते हुए बोली कि यहां के हर कमरे में किसी न किसी भगवान का कैलेण्डर जरूर मिलेगा। मैं भी इस भक्ति पर हंस पडा कमाल है तुमलोग ने तो भगवान को भी अपने गुट के साथ शामिल कर ऱखी हो। छोटे से कमरे मे घुसते ही मैं चौकी पर जा बैठा। कमरे में हल्की खुश्बू और रौशनी थी, मगर मेरे बैठने पर वो चौंक सी गयी। अपने हाथ उठाकर कपड़े उतरने के लिए तैयार सी थी। मैने फट से कहा अरे अरे अभी रुको जरा।  मुझे कोई जल्दी नहीं है। अभी बैठो तो सही मैंने तो अभी तुमको ठीक से देखा तक नहीं है कि तुम उतावली सी होने लगी। मेरी बात सुनते ही वो हंस पड़ी। अऱे कमरे के भीतर बात नहीं मुलाकात की जाती है। लोग तो साले कमरे के बाहर ही हाथ डाल देते हैं और तुम यहां पर आकर भी सिद्धांत मार रहा है। अरे यार और लोग कैसे होते हैं यह तो मैं नहीं जानता मगर मैं वैसा ही पागल रहूं यह कोई जरूरी है क्या ?वो हंसने लगी तू क्या सोचता हैं कि यहां पर कोई आदमी आता है सारे सिरफिरे बेईमन और पागल ही हम रंडियों को गले लगाने आते है। फौरन मैं बोल पडा जैसा कि मैं भी तो एक पागल बेईमान, मूर्ख सिरफिरा और चरित्रहीन एय्याश यहं पर आया हूं। मेरी बातों को काटते हे वह बोल पड़ी नहीं रे तू ऐसा नहीं लगता हैं नहीं तो मुझे कभी पंसद नहीं करता। मेरे को माह दो माह में ही कोई तुम्हरी तरह का पागल ही पसंद करता है या जिसकी जेब में रूपए कम होते है। मगर तेरे साथ तो ऐसा कुछ नहीं है फिर भी मुझे क्यों चुना ?मैं उन नौटंकीबाज नखरेवालियों को जानता हूं मगर तू एकदम शांत बेभाव खड़ी थी तो लगा कि तुम अलग हो। बात करते करते करीब 15 मिनट गुजर गए थे। वो एकाएक व्यग्र सी हो उठी। अब उठो तो बतियाते बतियते ही समय खत्म हो जाएगी। तो हो जाने दो न फिर कभी आ जाउंगा। मेरी बात सुनकर वो भड़क उठी। साले मैं सुदंर नहीं हूं इस कारण तेरा मन नहीं कर रहा हैं तो तू हमें उल्लू बना रहा है । इस पर मैं हंसते हुए बोला तू पागल है । अब वो पहले से ज्यादा उग्र होकर बोली तो तू कौन सा सही है। तू भी तो पागल ही है कि पैसा खर्च करके रंडी की पूजा करने आया है। मैने कहा कि तू चाहे जितना बक बक कर ले मै 30 मिनट के बाद ही यहां से निकलूंगा। तो 30 मिनट क्यों अभी निकल और दो चार गंदी गंदी गालियों के साथ नपुंसक हिजडा छक्का आदि आदि मुझे तगमा देने लगी। दो चार मिनट तक शांत भाव से गालियां खाने के बाद मैं फिर बोल पड़ा कहां गयी तेरी गालियां। बस खत्म हो गया स्टॉक। मैने कहा चल मेरे साथ गाली बकने की बाजी लगा एक सांस में एक सौ गाली देकर ही ठहरूंगा। मेरी बाते सुनकर वो हंसने ली। मेरे मूड को देखकर वो अपने कपड़े ठीक कर ली। मैने अपने बैग से नमकीन और बिस्कुट  के पैकेट निकालकर दिए कि चल खा मेरे साथ। इन सामानो को देखकर वो फिर बमक गयी।  साला बच्चा समझता है कि पटाने के लिए ई सब थैला में रखकर घूमता है। ये छैला टाईप के लौंडिया बाज लोग ही करते हैं कि जहां देखे वहीं पटाने या मेल जोल बढने में लग गए। उसकी बाते सुनकर मैं खिलखिला पड़ा अरे यार तूने तो मेरी आंखे ही खोल दी मैं तो अपने बैग में जरूर कुछ न कुछ सामान अमूमन रखता हूं। इस पर वो हंसते हुए बोली तो तू कौन सा बड़ा ईमानदर है। मैने कहा कि ये लो जी आरोप लगाने लगी। फिर बौखलाते हुए बोली कि साला यहां पर आकर अपने आप को पाक दिखाने की कोशिश करना सबसे बड़ी कुत्तागिरी होती है। मैं बाहर जा रही हूं तेरे वश में कुछ नहीं है हरामखोर और रोते हुए कमरे से बाहर निकल गयी। उसके जाने बाद मैं भी बिस्तर पर पालथी मारकर बैठे आसन से उठा और दोनों हाथ उपर करके अपने बदन को सीधा किया। दरवाजे पर ही खडा होकर जूता पहनकर हॉल की तपऱ बढ गया। मेरे को देखते ही आंटी बोली भाग गयी क्या फिर बुलाउं ? मैने तुरंत कहा नहीं नहीं नहीं नहीं । आंटी भौंचक सी होकर मेरी तरफ देखने लगी। मेरा मित्र भी थोडा अचकचासा रहा था। मैने कहा कि तुमलोग चाय पी लिए क्या ?आंटी ने कहा हां जी बेटा इधर आते रहना। मैने भी आंटी को हाथ जोड़कर नमस्ते की और अपने दोस्त दर्शनलाल के साथ कोठे से बाहर जाने लगा।