उसके चहेरे पर सरकती पसीने की बूंद भी इंजीनियर बाबू को ओस-सी लगती थी। अगर कभी पास से गुज़र जाती तो एक सौंधी-सी महक आसपास कई क्षणों तक मंडराती रहती।
मिट्टी की टोकरी सिर पर उठाए जब वह ऊबड़-खाबड़ सड़क पर चलती तो उसके नितम्ब किसी महान गायक के आलाप की चढ़ती-उतराती स्वर लहरियों से उद्वेलित होते।
"ए...मधबनिया...!! जरा इंजीनियर बाबू को चाय तो देके आ... " पच्चीसों आदिवासी मजदूरों में ठेकेदार की रसना भी मधबनिया नाम के उच्चारण में ही चरम सुख पाती।
इंजीनियर बाबू की नज़रें मधबनिया के उभारों को महसूस करती और उंगलियाँ चाय की प्याली के बहाने उसकी मिट्टी से सनी छुअन को पाने के लिए लालायित रहती।
मधबनिया खनकती हँसी बिखेरते हुए मैली उंगलियाँ साफ उंगलियों के चंगुल से छुड़वाती और मिट्टी का एक दाग उन कोरी उंगलियों पर छोड़ जाती।
मगर आज वहीं ठहरकर, बड़े ही मनुहार से मधबनिया बोल पड़ी " बाबू ..!! ठेकेदार को पगार खातिर बोल देते तो बड़ी किरपा होती...वरना शनिचर का पीर कर देता है जालिम।"
इंजीनियर बाबू ने खुद को संयत करते हुए ज़रा नरमी से कहा,
"वह प्राइवेट ठेकेदार है और मैं सरकारी मुलाज़िम, मैं उससे मजदूरों के वेतन के बारे में कुछ नही कह सकता....समझी?"
मधबनिया थोड़ा इठलाती-सी इंजीनियर बाबू के नजदीक आकर अपना होंठ दांतों में दबाते हुए बोली
"अरे सरकारी बाबू! ..ऐसा कौनो काम है भला.. जो तुम न कर सको हो?"
इंजीनियर बाबू ने तुरंत गर्दन दाँए-बाँए घूमाकर आस-पास का जायजा लिया और
कोई देख नही रहा इस बात की तस्दीक होते ही एक आँख दबाकर खिंसियानी हँसी हँसते हुए बोल उठा,
"जा बोल दूँगा....अच्छा सुन,... रात को क्वार्टर पर आ जाना।"
मधबनिया पल्लू को मुँह में दबाये मादक मुस्कान फेंकती, सड़क किनारे पड़े हुए गिट्टी के टीले की ओर चंचल हिरनी-सी चल पड़ी।
मधबनिया के टोकरी उठाते ही कुछ मजदूरों ने काम छोड़कर उसे घेर लिया लेकिन ठेकेदार की रौबदार आवाज सुनते ही क्षणभर में वे वापस अपने काम पर लग गए।
इंजीनियर बाबू ने ठेकेदार को वेतन बाँटने का आदेश तो दे दिया लेकिन मजदूरों की मधबनिया को घेरने वाली हरकत देखकर
उसे कुछ गड़बड़ का अंदेशा हो चला था। अब तो उसे रात को मधबनिया के क्वार्टर पर आने में भी संशय होने लगा क्योंकि उसे लग रहा था कि शायद मधबनिया के पति और साथी मजदूरों ने उसकी नियत को भांप लिया है।
वैसे तो इंजीनियर बाबू शराब के आदी नहीं थे लेकिन रात की ठंडक और मधबनिया के आने की उम्मीद ने अलमारी में रखी विदेशी शराब की बोतल को टेबल पर लेकर आने के लिए मजबूर कर ही दिया।
गांव में वैसे भी सूरज ढलते ही रात हो जाती है। सात बजते ही झींगुर बोलने लगते हैं और रास्ते सुनसान हो जाते हैं।
इंजीनियर बाबू ने हलक के अंदर उतारने के लिए कांच के गिलास में शराब डाली ही थी कि दरवाजे पार बरामदे से आदिवासी नवयौवना के गहनों की झंकार उसके मन मस्तिष्क को भरमाने लगी।
उसने शराब से भरा गिलास टेबल पर रखा और तत्काल प्रभाव से दरवाजे की ओर लपका।
मधबनिया दरवाजे पर दस्तक देती उससे पहले ही इंजीनियर बाबू ने झट से दरवाजा खोल दिया।
"बड़े बेसबर हो बाबू....पहिले ऊ..सराब तो पी लेते।" मधबनिया की नज़र सामने टेबल पर रखे गिलास की ओर उठी।
"वो..वो.. मैं....मैने सोचा तुम्हे बाहर ठंड में इंतजार न करना पड़े..आओ... जल्दी से आओ..अंद..र" बाबू ने बड़ी मुश्किल से थूक निगलते हुए अपने शब्दों को ठीक किया।
जब मधबनिया कमरे के अंदर दाखिल हो रही थी तब बाबू की नजरें उसके बदन की लचक और नितंबों की लहरियाँ तलाश रही थी लेकिन आश्चर्य कि सुबह की मदमस्त नदिया मधबनिया, रात को किसी झील की तरह एकदम शांत थी।
"ठेकेदार ने वेतन तो दे दिया न ?" इंजीनियर बाबू ने दरवाजे की चिटकनी चढ़ाते हुए पूछा।
मधबनिया को उसके प्रश्न ने नही बल्कि चिटकनी की कर्कश आवाज ने मुड़ने पर मजबूर किया।
"न..न..बाबू... चिटकनी चढ़ाने की कौनो जरूरत नाही।"
इंजीनियर बाबू को कुछ पल के लिए लगा जैसे मधबनिया अकेली नही आई है बल्कि उसका पति और साथी मजदूर बाहर खड़े बस उसके चिल्लाने का ही इंतजार कर रहे हैं।
"क्या हुआ था सुबह?....तुम्हारे पति या उसके साथियों ने तुमसे कुछ पूछा था क्या?"
मधबनिया उस कमरे में अपने लिए जगह तलाशने लगी।
करीने से सजे उस कमरे में शराब की बोतल, शराब से भरा गिलास रखी टेबल और कुर्सी के अलावा एक शानदार पलंग था, जिसके पास जाते ही किसी विदेशी इत्र की सुगंध नथुनों में भर जाती बिना किसी शुब्हा के मधबनिया को यकीन था कि यह इत्र उसकी आमद के कुछ समय पहले ही पलंग पर छिड़का गया है। "हा...हा...वाह.. बाबू!! तैयारी तो तुम पूरी करके रखे हो पर तनिक सोचो इस आदिवासी मजदूरन को खुश न कर पाए तो का होगा?"
कहकहा लगाती मधबनिया बेधड़क कुर्सी पर बैठ गई।
सरकारी बाबू इस सवाल से हतप्रभ रह गया।
"क्क ...क्या होगा?"
मधबनिया की बेतकल्लुफी देख उसे शब्द न सूझे।
"बाबू... हम आदिवासियों में, नर मादा को नही चुनता बल्कि मादा चुनती है कि उसे कौन सा नर पसंद है, एहीलिए तो हमारे आदिवासी समाज में बलात्कार नाही होत।
बाबू अगर तुम मुझे खुश नही कर पाए न तो आदिवासी समाज के पुरुष तुमपर नही हंसेंगे काहेकि उन लोगन के लिए तुम दया के पात्र होंगे। चच्च्च.. बेचारे!! लेकिन कल सुबह तुमपर मेरी सारी आदिवासी मजदूर बहिने जरूर हँसेंगी।"
इंजीनियर बाबू को तो जैसे काठ मार गया था।
"मतलब.. मतलब...उन्हें सब पता है?"
"उन सबकी पगार खातिर ही तो आई थी तोहार पास और जब ऊ सब लोग मुझे घेरकर खड़े हो गये थे न, तभी मैने खुशखबरी सुनाई कि इंजीनर बाबू हमको टाइम पर पगार जरूर दिला देंगे।"
"और और ...तुम्हारे पति ने तुम्हे मेरे पास भेज भी दिया ?"
"ऊ कौन होत है मुझे भेजने वाला? मैंने तुम्हे चुना है एहीलिये अकेले आई हूँ। मर्जी नही होती तो मेरी मजदूर बहिनें आती और मजदूर लोगन के हाथ तो तुम जानत ही हो कितने सख्त होते हैं।"
मधबनिया का चहेरा किसी मुर्दा जिस्म के मानिंद सर्द था ।
"बाबू! तुम नही जानत आदिवासी मजदूरों का दर्द , जब वक्त पर पगार नही मिलती न तो हमरी सीधी-सरल कौम के भूखों मरने की नौबत आ जात है।
कौनो गांव शहर का दुकानदार हमें उधार नही देत। जो लाला हमें पैसा उधार देत है ऊ हमसे तगड़ा सूद वसूलत है।
तुम या ऊ ठेकेदार हमारी पगार दबा लेत हो और हम आदिवासी औरतों पर बुरी नजर डालत हो। अब हम भी अपनी ताकत जानत हैं एहीलिए अब हम इस बुरी नजर को अपने हक में इस्तेमाल करत हैं।
बाबू जी! असभ्य हम नाही, तुम लोग हो क्योंकि तुम्हारे लिए औरत और मजदूर सिर्फ शोषण के वास्ते पैदा होत हैं।" मधबनिया का आत्मविश्वास अपने उरूज पर था।
"जब सुबह वापिस जाओगी तो तुमसे तुम्हारी कौम तुम्हारी इज्जत के बाबत कोई सवाल नही पूछेगी?"
इंजीनियर बाबू की सारी खुमारी हवा हो चुकी थी ।
मधबनिया ने जवाब देने की जगह शराब से भरा गिलास उठा लिया और एक साँस में खाली कर दिया।
"तुम मरद लोग जब वेश्या गमन करके आवत हो तो तुम्हरी कौम तुम्हरी इज्जत के बारे में कौनो सवाल पूछती है क्या?"
इंजीनियर बाबू अस्तव्यस्त पलंग पर सिर झुकाए बैठा था और द्रोपदी दुशासन का चीरहरण कर उसकी पूरी जात को नग्न करके जा चुकी थी।
#Anil_Makariya
Jalgaon (Maharashtra)
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