गुरुवार, 5 अगस्त 2021

अनामी शरण बबल / राजेंद्र अवस्थी की याद में

 राजेन्द्र अवस्थी को याद करते हए



अनामी शरण बबल




दिल्ली शहर का चरित्र एकदम अनोखा और बेईमान सा है। एक बार दिल्ली से दिल लगने के बाद न तो कोई दिल्ली को छोड़ पाता है और ना ही दिल्ली अपने ग्लैमर पाश से उसको छोड़ती है। दिल्ली दिल में बस जाती है, और दिल्ली के तिलिस्म से भी कोई चाहकर भी बाहर नहीं हो पाता। मगर पिछले 28 सालों में यह देखा आजमाया या पाया है कि दिल्ली से दूर रहते हुए संबंधों में जो उष्मा बेताबी गरमी रोमांच लगाव, ललक आकर्षण और उत्कंठा होती है। यही लगाव दिल्ली पहुंचते ही नरमा जाता है। दिल्ली में रहते हुए भी आदमी अपनों से अपनों के लिए दूर हो जाता है।


















राजेन्द्र अवस्थी को याद करते हए


अनामी शरण बबल




जीवन में पहली बार मैं दिल्ली 1984 में आया था। फरवरी की कंपकपाती ठंड में उस समय विश्व पुस्तक मेला का बाजार गरम था। दिल्ली का मेरा इकलौता मित्र अखिल अनूप से अपनी मस्त याराना थी। कालचिंतन के चिंतक पर बात करने से पहले दिल्ली पहुंचने और दिल्ली में घुलने मिलने की भी तो अपनी चिंता मुझे ही करनी थी। उस समय हिन्दी समाज में कादम्बिनी और इसके संपादक का बड़ा जलवा था। इस बार की दिल्ली यात्रा में अवस्थी जी से मेरी एकाएक क्षणिक मुलाकात पुस्तक मेले के किसी एक समारोह में हुई थी। जिसमें केवल उनके चेहरे  को देखा भर था।

मगर 1984 में ही गया के एक कवि प्रवीण परिमल मेरे घर देव औरंगाबाद बिहार में आया तो फिर प्रवीण से भी इतनी जोरदार दोस्ती हुई जो आज भी है। केवल अपने लेखक दोस्तों से मिलने के लिए ही मैं एक दो माह में गया भी चला जाता था। इसी बहाने गया के ज्यादातर लेखक कवि पत्रकारों से भी दोस्ती सलामत हो गयी। जिसमें सुरंजन का नाम सबसे अधिक फैला हुआ था। दिल्ली से अनभिज्ञ मैं सुरंजन के कारण ही कादम्बिनी परिवार से परिचित हुआ।  जब भी दिल्ली आया तो पहुंचने पर कुछ समय कादम्बिनी के संपादकीय हॉल मे या कैंटीन में जरूर होता था। खासकर धनजंय सिंह सुरेश नीरव या कभी कभार प्रभा भारद्वाज दीदी  समेत कई लोग होते थे जिनके पास बैठकर या एचटी कैंटीन (जो अपने अखबार से ज्यादा कैंटीन के लिए ही आसपास में फेमस था) में कभी खाना तो कभी चाय नाश्ते का ही स्वाद काफी होता था।  

इस मिलने जुलने का एक बड़ा फायदा यह भी हुआ कि कादम्बिनी में उभरते युवा कवियों के लिए सबसे लोकप्रिय  दो पेजी स्तंभ प्रवेश में मेरी छह सात कविताएं लंबी प्रतीक्षा के बिना ही 1985 अक्टूबर में छप गयी । जिसके बाद औरंगाबाद और आसपास के इलाकों से करीब 100 से ज्यादा लोगों ने पत्र लिखकर मेरा हौसला बढाया । तभी मुझे कादम्बिनी की लोकप्रियता का अंदाजा लगा। देव के सबसे मशहूर लेखक पत्रकार और सासंद रहे शंकर दयाल सिंह (चाचा) का भी पटना से दिल्ली सफर के बीच लिखा पत्र भी मेरी खुशी में इजाफा कर गया।


दिल्ली लगातार आने जाने के चलते संपादक राजेन्द्र अवस्थी जी भी हमलोग को ठीक से पहचानने लगे थे। पहली बार कोई ( धनंजय सिंह सुरेश नीरव जी या कभी प्रभा जी) अवस्थी जी के कमरे में ले जाकर मुझे छोड़ देते थे। बारम्बार आने की वजह से अवस्थी जी से भी मैं खुल गया था । कई बार तो मैं अपन ज्यादा न समझ में आने के बाद भी उनके संपादकीय काल चिंतन पर ही कोई चर्चा कर बैठता तो कभी अगले तीन चार माह के भावी अंकों पर भी पूछ बैठता। कभी कभी मुझे अब लगता है कि इतने बड़े संपादक और साहित्यकात होने पर भी वे मेरे जैसे एकदम कोरा कागज से भी कितने सहज बने रहते थे। लेखक कवि से ज्यादा उत्साही साहित्य प्रेमी सा मैं उनके सामने बकबक कर देता तो भी वे मीठी मुस्कान के संग ही सरल बने रहते थे।

 मेरी आलतू फालतू बातों या नकली चापलूसी की बजाय सीधे भावी कार्यक्रमों योजनाओं पर या सामान्य अंक के बाद किस तरह किसी विशेष अंक  की रूपरेखा बनाते और तैयारी पर मेरा पूछना भी उनको रास आने लगा था । दो एक बार वे मुझसे पूछ बैठते कि भावी अंको को लेकर इतनी उत्कंठा क्यों होती है  ? इस पर मैं सीधे कहता था कि यदि अंक को लेकर मन में जिज्ञासा नहीं होगी तो उसे खरीदना पढना सहेजना या किसी अंक की बेताबी से इंतजार या दोस्तों में चर्चा क्यों करूंगा ? मेरा यह जवाब उनको हमेशा पसंद आता था। मैं अब महसूस करता हूं कि वे भी बड़ी चाव से अपने विशेष अंकों के बारे में ही मुझे बताते थे। कभी उबन सा महसूस नहीं करते।


उनदिनों 1987 में वे साप्ताहिक हिन्दुस्तान पत्रिका के संपादन का काम भी संभाल रहे थे। एक बार मैं अचनक टपका तो वे दो चार मिनट में ही बोल पड़े आज काफी बिजी हूं फिर आइएगा। मैने उठने की चेष्टा के साथ पूछ बैठा कोई खास अंक की रणनीति बना रहे है  क्या ?  उनके हां कहते ही मैंने मौके की गंभीरता और नजाकत को समझे बगैर ही कह डाला कि इसके लिए सर आप संपादकीय टीम के साथ बैठकर फाईनल टच दे और सबको इसमें सुझाव देने को पर जोर दे। इससे कई नए सुझाव के बाद तो विशेषांकों में और निखार आएगा। मेरी बात सुनकर वे एकटक मुझे देखने लगे। मुझे लगा कि मुझसे कोई गलती हो गयी। तो मैं हकलाते हुए पूछा मैने कुछ गलती कर दी क्या ? इस पर वे खिलखिला पड़े और हंसते हुए कहा बैठो अनामी बैठो तुम बैठो। मैं भी एकदम भौचक्क कि कहां तो वे मुझे देखते ही भगाने के फिराक में थे और अब ठहाका मारते हुए बैठने का संकेत कर रहे है। उन्होने पूछा कि चाय पीओगे क्या मेरी उत्कंठा और बढ़ गयी। चाय का आदेश देते हुए उन्होने कहा यार मुझे तुम जैसे ही लड़कों की जरूरत है। मैं एक पल गंवाए बिना ही तुरंत कह डाला कि सर तो वीकली में मुझे रख लीजिए न फिर कुछ सबसे अलग हटकर नया रंग रूप देते है। उन दिनों मैं दिल्ली में iimc-hj/1987-88 का छात्र थआ।  मेरी सादगी या बालसुलभ उत्कंठा पर मुस्कुराते हुए कहा जरूर अनामी तुम पर ध्यान रखूंगा पर साप्ताहिक हिन्दुस्तान तो अब केवल एक साल का बच्चा रह गया है।  इसको बंद किया जाना है लिहाजा मैं मैनेजमेट को कह नहीं सकता और साप्ताहिक के अंक तो बस पूंजीपतियों के लाभ हानि के हिसाब किताब के लिए छप रहा है।  पर अनामी मुझे तुम बहुत उत्साही लगते हो और मैं तुमको बहुत पसंद भी करता हूं। अपने उत्साह को किसी भी हाल में कभी मरने नहीं देना । यही आपकी पूंजी है जो कभी मौका मिलने पर आपको नया राह दिखाएगी। पहले तो मैं उनकी बाते सुनकर जरा उदास सा हो गया था, पर अवस्थी जी ,से अपनी तारीफ सुनकर मन पुलकित हो उठा।  मैने उनसे पूछा कि आप मेरे मन को रखने के लिए कह रहे है, या वाकई इन बातों से कुछ झलकता है ? मेरी बात सुनकर उन्होने कहा इसका फैसला समय पर छोड दो अनामी।


भारतीय जनसंचार संस्थान में नामांकन के बाद पूरे कादम्बिनी परिवार से महीने में दो एक बार मुलाकात जरूर कर लेता था। उस समय दिल्ली आज की तरह हसीन शहर ना होकर गंवार सा थका हुआ शहर था। जिंदगी में भी न रफ्तार थी न दुकानों में ही कोई खास चमक दमक ।  दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) का मासिक बस पास हम छात्रों को 13 रूपए में मिलता था। पूरी दिल्ली में घूमना एकदम आसान था । और दिल्ली के कोने कोने को जानने की उत्कंठा ही मुझे इधर उधर घूमने और जानने को विवश करती थी।

पत्रकारिता के पाठ्यक्रम के दौरान एक प्रोजेक्ट बनाना था। इसके लिए मुझे किसी एक संपादक से साक्षात्कार लेना था। और जाहिर है कि राजेन्द्र अवस्थी हमारे हीरो संपादक थे। फोन करके समय लिया और एकदम समय पर मैं उनके कमरे के बाहर खड़ा था। कमरे के भीतर गया तो हमेशा की तरह चश्मे के पीछे से मुस्कुराता चेहरा और उन्मुक्त हास्य के साथ स्वागत करने की उनकी एक मनोहर शैली थी। बहुत सारे सवालों के साथ मैं श्री अवस्थी की पत्रकारिता संपादकीय कौशल लेखन से लेकर आदिवासियों पर किए गए शोधपरक काम और घोटूल ( अविवाहित आदिवासी युवा लड़के लड़कियों का नाईट क्लब) जहां पर वे आपस में जीवन साथी पसंद करते है) पर अपनी जिज्ञासा सहित बहुत कुछ जानने की मानसिक उतेजना के साथ हाजिर था।

बहुत सारे सवालों का वे सटीक और सारगभित उतर दिया। तभी वे एकाएक खिलखिला पड़े अरे अनामी आपने मुझे कितना पढा है ? मैने तुरंत कहा कि कथा कहानी उपन्यास तो एकदम नहीं पर आपके संपादकीय कालचिंतन और इधर उधर के समारोह सेमिनारों में जो आपने विचार रखे हैं उसकी करीब 20-22 कटिंग के अलावा करीब एक दर्जन आपके इंटरव्यू का कतरन भी मेरे पास है और सबों को मिलाकर आपका पूरा लेखकीय छवि मेरे पास है। मेरी बात सुनकर वे फिर हंस पड़े। उन्होने कहाकि आदिवासियों पर काम करने वाला मैं हिन्दी का पहला साहित्यकार हूं इससे जुड़े सवाल को सामने रखे ताकि उसके बहाने मैं अपनी मेहनत और कार्य को फोकस कर सकूं।

मेरे पास इस संदर्भ से जुड़े तो कोई खास सवाल और गहन जानकारी थी नहीं। मेरे हथियार डालने पर कमान उन्होने खुद थाम ली। इस बाबत तब एक तरह से जानकारी देने के लिए अवस्थी जी खुद ही कोई सवाल करते और सुविधा जनक  तरीके से आदिवासियों के जनजीवन रहन सहन पर जवाब भी देकर बताने लगे। एकदम रसिक भाव से आदिवासी महिलाओं के देह लावण्य शारीरिक सौष्ठव से लेकर अंग प्रत्यंग पर रौशनी डालते हुए मुझे भी आदिवासी सौंदर्य पर मोहित कर डाला। घोटुल और उनकी काम चेतना पर भी अवस्थी जी ने मोहक प्रकाश डाला। करीब एक घंटे तक श्री अवस्थी जी अपना इंटरव्यू खुद मेरे सामने लेते देते रहे और मैं उनकी रसीली नशीली मस्त बातों और आदिवासी महिलाओं की देह और कामुकता का रस पीता रहा। और अंत में खूब जोर से ठठाकर हंसते हुए श्री अवस्थी जी ने इंटरव्यू समापन के साथ ही अपने संग मुझे भी समोसा और चाय पीने का सुअवसर प्रदान किया।


एक बार उन्होने पूछा आपने मेरा उपन्यास जंगल के फूल पढा है ? ना कहने पर फौरन अपने बुक सेल्फ से एक प्रति निकालकर मुझे दे दी। मगर इस उपन्यास पर अपनी बेबाक राय बताने के लिए भी कहा। इस बहुचर्चित उपन्यास को मेरे ही किसी उस्ताद मित्र ने गायब कर दी। तो सालों के बाद अवस्थी जी ने मुझे इसकी दूसरी प्रति 11 सितम्बर 1997 को फिर से दी। और हस्ताक्षर युक्त यह बहुमूल्य प्रति आज भी मेरे किताबों के मेले की शोभा है। और करीब एक माह के बाद इस किताब की बेबाक समीक्षा मैने उनके दफ्तर में ही उन्हें सुना दी।

पहले तो मेरे मन में श्री अवस्थी को लेकर एक छैला वाली इमेज गहरा गयी मगर दूसरे ही पल उनकी सादगी और निश्छलता पर मन मोहित भी हुआ कि मुझ जैसे एकदम नए नवेलों के साथ भी इतनी सहजत सरलता और आत्मीयता से बात करना इनके व्यक्तित्व का सबसे सबल और मोहक पक्ष है। इस इंटरव्यू समापन के बाद उनकी ही चाय और समोसे खाते हुए मैने पूछा कि आदिवासी औरतों के मांसल देहाकार पर आपका निष्कर्ष महज एक लेखक की आंखों का चमत्कार है या आपने कभी स्पर्श सुख का भी आनंद लिया है। मेरे सवाल पर झेंपने की बजाय  एकदम उत्सुकता मिश्रित हर्ष के साथ बताया कि मैं इनलोगों के साथ कई माह तक रहा हूं तो मैं सब जान गया था।

बात को पर्दे में रखने की कला का तो आदर करने के बाद भी घोटुल प्रवास पर रौशनी डालने को कहा, तो  इस सवाल को लेकर भी वे काफी उत्साहित दिखे। उन्होने कहा कि आदिवासी समाज में कई वर्जनाओं (प्रतिबंधों) नहीं है। घोटुल भी इस समाज की आधुनिक सोच मगर सफल और स्वस्थ्य प्रेममय दाम्पत्य जीवन की सीख और प्रेरणा देती है। मैने उनसे पूछा कि आमतौर पर आदिवासी इलाकों में अधिकारियों या कर्मचारियों द्वारा अपने साथ परिवार या पत्नी को लाने जाने वालों को मूर्ख क्यों समझा या माना जाता है  ? इस सवाल पर वे हंस पड़े और सेक्स को लेकर खुलेपन या बहुतों से शारीरिक संबंध को भी समाज में बुरा नहीं माना जाना ही इनके लिए अभिशाप बन गया है।

दिल्ली  विवि के हंसराज कॉलेज की वार्षिक पत्रिका हंस को किसी तरह अपने नाम करके और प्रेमचंद की पत्रिका हंस नाम का चादर ओढ़ाकर विख्यात कथाकार राजेन्द्र यादव और हंस का दरियागंज की एक तंग गली में जब पुर्नजन्म हुआ हंस के जन्म (1986 तक) से पहले तक  तो दिल्ली के लेखक और पाठकों के बीच कादम्बिनी नामक पत्रिका का ही बड़ा जलवा था। श्री अवस्थी जी को लेकर मेरे मन में आदर तो था पर उनके रोमांस और महिला मित्रों के चर्चे भी साहित्यिक गलियारे में खूब होती थी। कभी कभी तो मैं उन लेखकों को देखकर हैरत में पड़ जाता कि जो लोग अवस्थी जी को दिल खोलकर गरियाते और दर्जनों लेखिकाओं के साथ संबंधों का सामूहिक आंखो देखा हाल सुनाकर लोगों को रसविभोर कर देते थे। मगर  इसी तरह के कई लेखक जब कभी अवस्थी जी के सामने जाते या मिलते तो एकदम दास भक्ति चारण शैली में तो बेचारे कुत्ते को भी शर्मसार कर देते दिखे। और यह देख मेरी आंखे फटी की फटी रह जाती। शहरिया कल्चर और आधुनिक संबंधों की मस्तराम शैली ने मुझे एक तरह से महानगरीय  अपसंस्कृति से अवगत कराया। वही यह भी बताया कि किसी भी खास मौके पर किसी को भी बातूनी चीरहरण कर देना या चरित्रहनन कर देना किसी को अपमानित भले लगे मगर इन बातों से लेखकीय समाज में इनकी रेटिंग का ग्राफ हमेशा बुलंदी पर ही रहता। और नाना प्रकार के गपशप के बीच अवस्थी जी एचटी दरबारके
2

मोहक मदिरा को कोई न कहो बुरा


ई समाज में पता नहीं क्यों लोग दारू और दारूबाजों को ठीक नजर से नहीं देखते हैं। मेरा मानना है कि संयम के साथ किसी भी चीज के सेवन बुराई क्या है ? सामान्य लोग मानते हैं कि यह दारू मदिरा शराब से आदमी बिगड. जाता है। अपन परिवार भी कुछ इस मामले में तनी पुरानी सोच वाला ही है। खैर इस पारिवारिक बुढ़ऊंपन सोच के कारण गाहे बेगाहे दर्जनों मौकों पर अपने दारूबाज दोस्तों की नजर में मेरा जीवन बेकार एकदम अभिशाप सा हो गया। इन तगमों उलाहनों और प्रेम जताने के नाम पर दी जाने वाली मनभावन रिश्तों वाली गालियों को सहन के बाद भी दारू कभी मुझे अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर सकी। मेरी धारणा है कि दारू को कोई नहीं पीता अंतत दारू ही सबको पी जाती है। इन तमाम पूर्वाग्रहों और गंवईपन वाली धारणा के बाद भी एक घटना ने मेरी आंखे खोल दी। चाहे शराब की जितनी भी हम निंदा करे, मगर शराब कुछ मामलों में संजीवनी से कम नहीं।

सुरंजन के साथ मैं सहारनपुर में ही था।  तभी लांयस क्लब वालो नें अपने सालाना जलसे में खास तौर पर अवस्थी जी को बुलाया था। अपने परम सहयोगी सुरेश नीरव  के साथ पूरे आदर सम्मान के साथ वे सहारनपुर पधारे। कहना बेमानी होगा कि इनका किस तरह का स्वागत किया गया होगा। बढ़िया होटेल में इनको और नीरव जी को ठहराया गया। रंगारंग कार्यक्रम के बीच रात में खानपान भी था। और इनसे मिलिए कार्यक्रम में अवस्थी जी को शहर की गणमान्य महिलाओं और महिला लेखको से मिलना था। उनके दिल्ली से आते ही हमलोग की सहारनपुर में एकाध घंटे की मुलाकात हो गयी थी। नीरव जी के संग गपशप के अलावा अवस्थी जी भी हम दोनों को यहां देखकर बहुत खुश हुए।

 रंगारंग कार्यक्रम निपट गया था और इनसे मिलिए का आयोजन भी समापन के बाद खाने और पीने का दौर चलने लगा था। अवस्थी जी भी नशे मे थे। दारू का रंग दिखने लगा था। तभी एकाएक पता नहीं सुरंजन एकाएक क्यों सनक गया और करीब 25-30 मिनट तक अवस्थी जी को गालियां देने लगा । दर्जनो लांछनों के साथ सुरंजन ने अपनी अश्लील भाषा में कहे तो अवस्थी जी को बेनकाब कर दिया। चारो तरफ सन्नाटा सा हो गया। मगर किसी क्लब वालों ने सुरंजन को पकड़ने या मौके से बाहर ले जाने की कोई कोशिश नहीं की। एक तरफ कई सौ लोग खड़े होकर इस घटना को देख रहे थे और दूसरी तरफ सुरंजन के गालियों के गोले फूट रहे थे। खुमार में अवस्थी जी बारबार सुरंजन को यही कहते क्यों नाराज हो रहे हैं सुरंजन इस बार आपकी कविता कवर पेज पर छापूंगा। तो बौखलाहट से तमतमाये सुरंजन ने मां बहिन बीबी नानी बेटी आदि को दागदार करते हुए कुछ इसी तरह कि गाली बकी थी तू क्या छापेगा आदि इत्यादि अनादि।

मैं दो चार बार अवस्थी सुरंजन कुरूक्षेत्र में जाकर सुरंजन को पकड़ने रोकने की पहल की। कईयों को इसके लिए सामने आने के लिए भी कहा पर बेशर्म आयोजक अपने मुख्य अतिथि का अपने ही शहर में बेआबरू होते देखकर भी बेशर्म मुद्रा में खड़े रहे। वहीं मैं एकदम हैरान कि जिस सुरंजन के साथ मैं अपना बेड और रूम शेयर कर रहा हूं वो भीतर से इतना खतरनाक है। खाल नोंचने का भी कोई यह तरीका है भला।

इस बेशर्म वाक्या का मेरा प्रत्यक्षदर्शी होना मेरे लिए बेहदअपमान जनक सा था। इस घटना के बाद रात में ही मेरे और सुरंजन के बीच अनबन सी हो गयी और मैने जमकर इस गुंडई की निंदा की। वो मेरे उपर ही बरसने की कोशिश की। मैने देर रात को फिलहाल प्रसंग बंद रात काटी। और अगले दिन सुबह तैयार होकर होटेल जाने लगा। इस घटना के बाद सुरंजन की भी बोलती बंद थी. हमलोग होटेल पहुंचे। मेरे मन में  यह आशंका और जिज्ञासा थी कि अवस्थी जी कैसे होगे?
मगर यह क्या ? कमरे में हमलोग को देखते ही अवस्थी जी मुस्कुरा पड़े और आए आइए कहकर स्वागत किया। कमरे में नीरव जी पहले से ही विराजमान थे। हमलोग को देखते ही अवस्थीजी ने हमलोग को अपने साथ ही खिलाया चाय कॉफी में भी साथ रखा। माहौल ऐसा लग रहा था मानो कल रात कुछ हुआ ही न था या कल रात की बेइज्जती का उन्हें कोई आभास नहीं था।

हमलोग उनके साथ करीब दो घंटे तक साथ रहा और उनकी विदाई के साथ ही सुरंजन के साथ वापस दफ्तर लौटा। मेरे दिमाग में कई दिनों तक यह घटना घूमती रही। सुरंजन भी एकाध माह के अंदर ही कुछ विवाद होने के बाद विश्वमानव अखबार छोड़कर वापस दिल्ली लौट गया। मगर मैं 11 दिसम्बर 1988 तक सहारनपुर में ही रहा। एक सड़क हादसे में बुरी तरह घायल होने के बाद दिल्ली में करीब एक माह तक इलाज हुआ.। मगर जैसे आदमी अपने पहले प्यार को जीवनभर भूल नहीं पाता ठीक उसी तरह पहली नौकरी की इस शहर को 28 साल के बाद भी मैं भूल नहीं पाया हूं। आज भी इस शहर में बहुत सारे मित्र है जिनकी यादें मुझे इस शहर की याद और कभी कभार यहां जाने के लिए विवश कर देती है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें