इन दिनों गर्दिश में हूं, आसमान का तारा हूं (1)
--27 दिसंबर सन 60 को चंबल घाटी के भिंड में पैदा हुआ। मुरैना जिले के गांव रछेड़ का रहने वाला हूं। इसी जिले में महिला डाकू पुतली बाई और क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल भी पैदा हुए थे। मातृसत्तात्मक परिवार है मेरा। माताजी एमए और बीएड करने वाली इलाके की पहली महिला हैं। पिता जी आठवीं पास थे। मां ने उन्हें एक तरह से मार-मार के पढ़ाया। माता जी जिस स्कूल में प्रिंसिपल थीं, वहां पिताजी टीचर बने। मेरे परिवार में भी बागी रहे हैं। हमारे यहां डाकुओं को सगर्व बागी बोलते हैं। लाखन सिंह तोमर दादाजी के मौसेरे भाई थे जो जाने माने बागी थे। प्राइमरी से लेकर ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई भिंड में की। घर में पढ़ाई-लिखाई का माहौल होने और मां-पिता के टीचर होने का फायदा यह हुआ कि मुझे सीधे कक्षा चार में एडमिशन दिलाया गया और 17 साल की उम्र में ही भिंड के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया महाविद्यालय से वर्ष 1978 में बीएससी कंप्लीट कर लिया। मां-पिता डाक्टर बनाना चाहते थे इसलिए जबरन बायोलाजी पढ़वाया। बैच का सबसे जूनियर छात्र था। पढ़ाई के साथ खेती भी करता था। 21 किमी साइकिल से
कोर्स से हटकर किताबें पढ़ने का चस्का लग चुका था। मां-पिता के पोलिटिकल साइंस में पढ़े होने से अरस्तू, कांट्स, सुकरात आदि को पढ़ गया था और लोकतंत्र, साम्राज्यवाद व साम्यवाद के बारे में जानने लगा था। घर में वीर अर्जुन और हिंदुस्तान अखबार आते थे। इनका नियमित पाठक था। मेरी एक दीदी एमए हिंदी से कर रहीं थीं तो उनसे शेखर एक जीवनी पढ़ने को मिला तो मैं अज्ञेय का मुरीद हो गया। अज्ञेय की अन्य किताबों के लिए भिंड शहर के गोल मार्केट लाइब्रेरी पहुंचा। वहां से अपने-अपने अजनबी को घर लाकर पढ़ा। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हमेशा जीतता था। कह सकते हैं, बकवास करने की आदत बचपन से है। मेरे नानाजी ठाकुर पुत्तू सिंह चौहान अपने जमाने की मशहूर पत्रिका सरस्वती के संपादक मंडल में थे। उन्होंने मेरी मां को बेहतर शिक्षा दी। मां की भाषा बहुत अच्छी है। हालांकि उनको अंग्रेजी अच्छी नहीं आती थी पर मुझे अंग्रेजी पढ़ाने-सिखाने के लिए जी-जान से जुटी रहती थीं। शायद उन्हें यह अंदाजा था कि आगे अंग्रेजी की उपयोगिता ज्यादा है। मां-पिता की इच्छा के अनुरूप मुझे डाक्टर बनने के लिए पीएमटी की परीक्षा देनी थी पर उम्र परीक्षा में शामिल होने की हुई नहीं।
इसी दौरान धर्मयुग का एक अंक हाथ में पड़ गया। बाद में इस पत्रिका के कई अंक पढ़े। उदयन शर्मा और एसपी सिंह का लिखा बहुत पढ़ता था। तभी समझ में आया कि लिखना भी कोई विधा है। उदयन शर्मा मेरे मानस गुरु और एक तरह से प्रेरणा बने। रविवार में उदयन जी का लिखा बहुत पढ़ा। उन्हें पत्र लिखने लगा। छपने के लिए कुछ लिखकर भेजने लगा। उदयन जी का जवाब आया कि निबंध की शैली में नहीं, रिपोर्ट की शैली में लिखो। भिंड की लाइब्रेरी में एक बार नवभारत टाइम्स देखा तो उसमें टाइम्स आफ इंडिया प्रशिक्षु पत्रकारों के लिए वैकेन्सी निकली थी। मैंने भर दिया। नभाटा वालों ने शायद भिंड को मुंबई के पास समझा और मुझे टेस्ट के लिए मुंबई आफिस बुला लिया। घर वालों को बोला कि मैं ग्वालियर जा रहा हूं और निकल पड़ा मुंबई के लिए। रेल में रिजर्वेशन भी होता है, तब मुझे यह पता न था। मेरी उम्र 18 की नहीं हुई थी। पंजाब मेल के जनरल डिब्बे में बैठकर मुंबई गया। बीच में मेरे जूते गायब हो चुके थे। नंगे पांव स्टेशन पर उतरा। 12 रुपये में प्लास्टिक का चप्पल खरीदा। नभाटा आफिस बांबे वीटी के सामने ही था। मेरा हुलिया देख दरबान ने घुसने नहीं दिया लेकिन जब उसे टेस्ट के लेटर वगैरह दिखाए तो अविश्वास के साथ घूरते हुए अंदर जाने दिया।
तब मेरा नाम हुआ करता था आलोक कुमार सिंह तोमर 'पतझर'। इसी नाम से धर्मयुग में गीत लिखगा था। नभाटा में रिटेन दिया और टाप कर गया। मेरा इंटरव्यू डा. धर्मवीर भारती, राम तरनेजा और फिल्म अभिनेता राजेंद्र कुमार ने लिया। डा. भारती बोले- ''तुम अभी 18 के नहीं हुए हो और नौकरी देने का मतलब है कि बाल श्रम का आरोप लगना। तुम हम लोगों को जेल में बंद करवाओगे!'' मैंने कहा- ''देर से पैदा होने पर मेरा क्या कसूर।'' आखिरकार उन लोगों ने मुझे नहीं लिया क्योंकि कानूनन यह संभव न था। मुझे लौटने का किराया दिलवा दिया। ग्वालियर लौटा तो अखबार में काम करने का कीड़ा अंदर पैदा हो चुका था। चंबल वाणी, स्वदेश, भास्कर आदि अखबारों के दफ्तर के चक्कर लगाने लगा। संघ की आइडियोलाजी वाले अखबार दैनिक स्वदेश के संपादक राजेंद्र शर्मा हुआ करते थे। उन्होंने मुझे प्रूफ रीडर पद पर 175 रुपये की तनख्वाह पर भर्ती कर लिया। तीन माह बाद पीटीआई और यूएनआई की खबरों के हिंदी अनुवाद की मेरी योग्यता को देखते हुए मुझे फ्रंट पेज प्रभारी बना दिया गया और तनख्वाह कर दी गई 350 रुपये।
उसी दौरान एक घटना हुई। मुरैना के एक गांव के स्कूल में विषाक्त दलिया खाकर 23 बच्चे मर गए। इस घटना को दबा दिया गया था। उस समय अर्जुन सिंह एमपी के सीएम हुआ करते थे। तत्कालीन विधायक के मुंह से इस घटना के दबाए जाने के बारे में एक जगह मैंने सुन लिया। मैं उस गांव गया और सबसे बातचीत की और फ्रंट पेज पर छाप दिया। जनसंघ तब विपक्ष में था और यह अखबार भी उसी के विचारधारा का था। विधानसभा में हंगामा मच गया। अर्जुन सिंह ने डीएम से फोन पर पूछा तो डीएम ने बता दिया कि जिस गांव में घटना होने की बात बताई जा रही है, उस गांव का तो अस्तित्व ही नहीं है। मतलब स्टोरी को फर्जी करार दिया गया। मैं फिर गांव पहुंचा और उस गांव के सरकारी पशु चिकित्सालय, खाद्य निगम आफिस आदि के डिटेल और गांव के उन परिजनों की तस्वीरें जिनके बच्चे नहीं रहे, इकट्ठा कर फिर फ्रंट पेज पर प्रकाशित किया।
तब 72 प्वाइंट लीड की सबसे बड़ी हेडिंग होती थी। उसके उपर के फांट के लिए बड़े पोस्टर वाले फांट का इस्तेमाल करना होता था। ये स्टोरी बड़े पोस्टर वाले फांट में 108 प्वाइंट में प्रकाशित हुई। मुख्यमंत्री झूठ बोलते हैं हेडिंग और आलोक कुमार सिंह तोमर की बाइलाइन के साथ स्टोरी प्रकाशित हुई। फिर तो इतना हंगामा हुआ कि अर्जुन सिंह को गांव आना पड़ा। तब पहली बार किसी सीएम या मंत्री को नजदीक से देखा था। अर्जुन सिंह से मुझे मिलवाया गया तो मैं डरता हुआ पहुंचा था कि जाने अब क्या होगा। अर्जुन सिंह को जब बताया गया कि यही आलोक कुमार सिंह तोमर हैं तो उन्होंने लगभग 18 साल के ''बच्चे'' को ऊपर से नीचे तक देखा और बोले कि यह जज्बा और हिम्मत काबिले-तारीफ है। वे मुझे अपने साथ हेलीकाप्टर में बिठाकर उस गांव ले गए। तब पहली बार हेलीकाप्टर में बैठा था और सीएम के साथ वाले लोग मुझसे उस गांव का रास्ता पूछ रहे थे पर उपर से गांव का रास्ता मुझे सूझ ही नहीं रहा था।
-आप बता रहे थे कि घरवाले डाक्टर बनाना चाहते थे और आपने पत्रकारिता शुरू कर दी। घरवालों ने आपको यूं ही पत्रकारिता करने दिया?
-आपने पहली स्टोरी ब्रेक की और सीएम तक हिल गए। दूसरी बड़ी स्टोरी क्या ब्रेक की?
--एक बार रछेड़ इलाके के भिडोसा गांव में शादी में गया था। वहां देखा कि एक लंबे से व्यक्ति को लोग बहुत ज्यादा सम्मान दे रहे हैं और उसका खास ध्यान रख रहे हैं। मुझे भी उत्सुकता हुई। पता चला कि वे मशहूर बागी पान सिंह तोमर हैं जो कभी बाधा दौड़ में टोक्यो एशियाड में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। मतलब, एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी बागी बन गया। हां, एक चीज बताना भूल गया। उन दिनों मैं यूनीवार्ता का पार्ट टाइम स्टिंगर भी बन चुका था। मैंने पान सिंह तोमर से बातचीत करने के बाद उनके खिलाड़ी से बागी बनने की यात्रा पर यूनीवार्ता के लिए आठ टेक में स्टोरी फाइल कर दी। देश के सभी बड़े हिंदी अंग्रेजी अखबारों ने इस स्टोरी को फ्रंट पेज पर प्रकाशित किया। स्टोरी छपने के बाद एमजे अकबर और उदयन शर्मा सरीखे लोग पान सिंह तोमर के इंटरव्यू के लिए आए। माध्यम बना मैं। बाद में इन्होंने जो स्टोरी लिखी तो अपने नाम के साथ मेरा नाम भी जोड़ा। संयुक्त बाइलाइन गई। मतलब MJ Akbar with Alok। उदयन शर्मा / आलोक तोमर। इससे दिल्ली में मेरी पहचान बढ़ी।
-पान सिंह तोमर की स्टोरी के जरिए दिल्ली की पत्रकारिता में एक तरह से आपके नाम का प्रवेश हो चुका था। दिल्ली यात्रा कैसे हुई?
--उन दिनों दिल्ली में दैनिक हिंदुस्तान की संपादक हुआ करती थीं शीला झुनझुनवाला। मैंने इस अखबार के संपादकीय पेज के लिए एक लेख भेजा- क्या भारत अणु बम बनाए। तब पोखरण एक हो चुका था। मेरा लेख संपादकीय पेज पर मुख्य आर्टिकल के रूप में प्रकाशित हुआ। शीला जी की चिट्ठी भी आई, लिखते रहिए के अनरोध के साथ। मैं विज्ञान आधारित लेखों के फटाफट छपने को देखते हुए अपनी विज्ञान की पढ़ाई का इस्तेमाल करते हुए विज्ञान लेखक बनने की ओर बढ़ चला। दैनिक हिंदुस्तान में लगातार छपने लगा। उन्हीं दिनों एमए का रिजल्ट आया। 70 फीसदी नंबर हिंदी में आए जो एक रिकार्ड बना। और इससे रिकार्ड टूटा अटल बिहारी वाजपेयी का जो ग्वालियर के इसी महारानी लक्ष्मीबाई महाविद्यालय के हिंदी के छात्र रहे थे और उन्होंने तब 59 प्रतिशत अंक हिंदी में पाकर रिकार्ड बनाया था। तब इसका नाम विक्टोरिया कॉलेज था। मेरे बारे में तब अखबारों में छपा, आलोक तोमर का सुयश शीर्षक के साथ। इसमें मेरी फोटो भी छपी। एमए टाप करने के बाद मेरी अस्थायी नौकरी महिलाओं के कालेज में लग गई। इस कालेज में जिन्हें मैं पढ़ाता वो मुझसे बड़ी लड़कियां और औरतें हुआ करती थीं। मैं जब उनके सामने विद्यापति, बिहारी, देव, जायसी के लिखे ऋंगार की व्याख्या करता तो वे मुझे हूट कर देती थीं। यहां तनख्वाह 1600 रुपये थे जो बहुत अच्छी थी पर लड़कियों-औरतों के इस व्यवहार से मैंने नौकरी छोड़ दी और फिर स्वदेश में आ गया। इन्हीं दिनों में मैंने एक आफ बीट विषय, जो मुझे हमेशा से पसंद रहे हैं पर स्टोरी की। अटल जी के बचपन व उनके कालेज पर, बगैर अटल जी को पेश किए। अटल जी तब भी महान नेता हुआ करते थे। स्वदेश के पहले संपादक भी वही थे। यह स्टोरी अटल जी को दिखाई गई। जब वे आए तो मुझे नाम लेके बुलाया और पीठ ठोंकी। तब मेरी तनख्वाह 450 रुपये हुआ करती थी जिसे बढ़ाकर 500 रुपये कर दिया गया।
उन दिनों मैं और प्रभात झा स्वदेश अखबार के रील वाले कमरे में ही सो जाते थे। प्रभात झा अब सांसद हैं। इसी बात पर याद आ रहा है मेरे तीन रुम पार्टनर इन दिनों सांसद हैं। प्रभात झा, राजीव शुक्ला और संजय निरुपम। स्वदेश में रहते हुए टीओआई के लिए एक बार फिर टेस्ट दिया था जिसमें पास हो गया पर अप्वायंटमेंट लेटर स्वदेश के पते पर आया तो मुझे मिला ही नहीं। इस तरह टीओआई में कभी काम नहीं कर पाया। ग्वालियर में मुझे लगने लगा था कि अब इस शहर में मेरा निबाह नहीं होगा। सीमाएं छोटी महसूस होने लगीं। जितना करना, बनना, पाना था वो हो चुका था। स्वदेश में 1978 से 81 लास्ट तक रहा। सरकारी नौकरी करनी नहीं थी, डाक्टर बनना नहीं था। ऑफिस से साइकिल खरीदने के लिए एडवांस मांगा और 1981 लास्ट में दिल्ली आ गया। मेरे मित्र हरीश पाठक दिल्ली प्रेस में नौकरी करते थे। वे कालेज के मेरे सीनियर थे। दिल्ली में स्टेशन पर उतरा तो आटो वाले ने निजामुद्दीन से आरके पुरम संगम सिनेमा के पीछे का 70 रुपये किराया उस जमाने में ले लिया। दिल्ली में हिंदुस्तान की संपादक शीला जी, माया के ब्यूरो चीफ भूपेंद्र कुमार स्नेही, दिल्ली प्रेस वालों से, यूएनआई के शरद द्विवेदी जी से मिला। नौकरी के लिए भटकता रहा।
चंद्रा स्वामी से डेढ़ लाख रुपये लेकर मैंने शब्दार्थ फीचर एजेंसी शुरू की। मैं इसे स्वीकार करता हूं कि मैंने चंद्रास्वामी से फीचर एजेंसी खोलने के लिए पैसे मांगे थे और उन्होंने अपने दराज में हाथ डालकर पचास पचास हजार की तीन गड्डियां सामने रख दी थीं। फीचर एजेंसी का काम चल निकला था। तब तक शादी हो चुकी थी। बेटी थी। बाद में सन 2000 में इंटरनेट न्यूज एजेंसी डेटलाइन इंडिया नाम से शुरू कर दी। टीवी में भी काफी काम किया। जी न्यूज और आज तक में रहा। टीवी पर चुनाव के विशेष प्रोग्राम करता रहा।
-आपने जैन टीवी के मालिक जेके जैन को एक बार पीटा था, क्या यह सही है?
--हां यह सही है। आज तक छोड़कर जैन टीवी चला आया था। यहां स्थितियां ठीक नहीं थी तो छोड़ दिया। तनख्वाह के पैसे नहीं दे रहे थे तो एक बार अशोका होटल में जैन मिल गए। उन्हें पीटा। वे बीजेपी से टिकट लेकर चुनाव लड़ना चाहते थे। उन्हें टिकट नहीं मिलने दिया। डा. जेके जैन सर्जन तो अच्छा है पर आदमी बुरा है। मैंने तय कर लिया है कि जब तक मैं जीवित हूं उसे किसी बड़ी पार्टी की टिकट नहीं मिलने दूंगा चुनाव लड़ने के लिए।
-आप एस1 चैनल और सीनियर इंडिया मैग्जीन में रहे। वहां से भी आप निकाल गए थे?
--मैंने जहां भी नौकरी की वहां से अमूमन निकाला ही गया। अलका सक्सेना मेरी तबसे दोस्त हैं जबसे वे दो चोटियां बांधती थीं। उनके कहने पर एस1 के विजय दीक्षित ने राजनैतिक संपादक बना दिया। यहीं पर मैंने मैग्जीन निकालने का आइडिया दिया। हालांकि सीनियर इंडिया नाम मुझे पसंद नहीं था पर दीक्षित जी इस नाम को पहले ही बुक कराकर बैठे थे। इसी मैग्जीन में एक स्टोरी छपी जिसमें बताया गया था कि तत्कालीन दिल्ली पुलिस के आयुक्त केके पाल के बेटे अमित पाल जो सुप्रीम कोर्ट में वकालत करते हैं, वे कोर्ट में उन अपराधियों का डिफेंस करते हैं जिन्हें केके पाल के
--जब मैं ग्वालियर में एमए प्रीवियस में था तो कस के प्रेम किया। प्रेम कविताएं लिखीं। वो मेरे से जूनियर थीं। बंगाली लुक लगती थीं। उनकी जिद थी कि मैं सरकारी नौकरी करूं तभी वो शादी करेंगी। वो नवगीत में पीएचडी लिख रही थीं। बाद में उन्होंने शादी किसी और से की। आजकल वो प्रोफेसर हैं। इसके भी पहले, किशोरावस्था में मैंने फिल्म गुड्डी देखी थी। इसमें जया जी मुझे बेहद भा गईं। मासूम चेहरा और ओस से भीगी आवाज़। मैं उनसे प्रेम करने लगा। उन्हें प्रेम में डूबी एक लंबी चिट्ठी भी लिख भेजी। मैंने तय कर लिया था कि जया जी से ही शादी करूंगा। जया जी से शादी के लिए मैंने बंगाली सीखने का ठानी। बंगाली रैपिडेक्स ग्रामर कोर्स खरीदकर सीखने की शुरुआत भी कर दी। बाद में पता चला कि जया जी से मेरी शादी नहीं हो सकती। हालांकि तब भी मैंने तय कर लिया था कि मैं जया जी जैसी या उनसे सुंदर लड़की से ही शादी करूंगा। और किया भी। सुप्रिया, मेरी पत्नी, बंगाली हैं और, यह मैं जया जी को भी बता चुका हूँ की उनसे सौ गुना ज्यादा खूबसूरत हैं। उनसे मैंने प्रेम किया और शादी की। दिल्ली आने पर जो पहली दोस्त बनी वो भी बंगाली। नाम- शर्मिष्ठा जो विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी की बेटी हैं। हम दोनों साथ खूब घूमते थे। बीअर, जिन, वोदका पीते रहते थे। हम दोनों ही स्वभाव के यायावर रहे। बाद में हम लोगों ने विश्लेषण किया कि हम दोनों अगर एक साथ रहने लगें तो पट नहीं सकती क्योंकि दोनों का मिजाज एक जैसा था। शर्मिष्ठा आज भी मेरे घनिष्ठ मित्रों में से एक हैं। वे कथक की बेहतरीन डांसर हैं।
-आपने सुप्रिया से शादी की। उनसे मुलाकात कैसे हुई। शादी कैसे संभव हो पाई।
--सुप्रिया दिल्ली प्रेस में काम करती थीं। असाध्य रूप से सुंदर थीं और हैं। दिल्ली प्रेस में उनके एक साथी उन पर मर मिटे थे। वे साथी सुप्रिया को लेकर मेरे पास आए इंप्रेशन झाड़ने के लिए। इतवार का दिन था। दिल्ली में बम विस्फोट होने के चलते आफिस में काम ज्यादा था इसलिए मैं उन लोगों से बातचीत कम कर पाया और काम में ज्यादा उलझा रहा। नंगे पांव आफिस में इधर-उधर टहलता रहा। मैं आफिस में नंगे पांव ही रहता था। मैं ठीक से सुप्रिया को तब देख
-''गुड्डी'' में जया जी को देखकर आप उनसे प्रेम करने लगे और प्रेम पत्र भी लिखा, शादी तक का प्लान कर डाला। क्या कभी ये बात जया बच्चन जी को बताई?
--हां, बताई। केबीसी लिखने के लिए मुंबई में था। कौन बनेगा करोड़पति उर्फ केबीसी का नाम, इसके डायलाग...लाक कर दिया जाए...आदि ये सब मेरा लिखा है। हां, तो कह रहा था कि केबीसी को लेकर अमित जी के घर पर मीटिंग में देर रात तक रहता था तो वहां जया बच्च्न भी होती थीं। एक दिन उन्हें अकेले में बताया कि आप से मैं कभी प्यार करता था और शादी करना चाहता था। साथ ही यह भी बताया कि जब यह समझ में आया कि शादी नहीं हो सकती आपसे तो मैंने आपकी ही तरह किसी लड़की से शादी करने की ठानी थी और ऐसा किया भी। इस पर जया जी ने सुप्रिया की तस्वीर मांगी। जब उन्हें दी तो उनका कहना था कि सुप्रिया तो मुझसे ज्यादा सुंदर है। मुझे बेटी चाहिए थी और बेटी मिली भी। बिटिया का नाम है मिष्टी।
--जनसत्ता, मुंबई में था तो वहां सरकुलेशन वार शुरू हुआ। भइयों का एक गैंग कृपाशंकर सिंह के नेतृत्व में था। नभाटा वालों के कहने पर गैंग जनसत्ता मार्केट में जाने से पहले हाकरों से खरीदकर समुद्र में फेंक देता था।
इधर, हम लोगों के अखबार का सरकुलेशन लगातार बढ़ रहा था लेकिन अखबार समुद्र में मछलियां पढ़ रहीं थीं। इसी कोई वैधानिक हल नहीं दिखा तो मैंने नूरा इब्राहिम से संपर्क निकाला। उससे मैंने नभाटा की कापियां समुद्र में फिंकवाना शुरू करा दिया। बात में नभाटा वालों से संधि हुई और यह अखबार फिंकवाने का धंधा दोनों तरफ से बंद करने पर सहमति बनी। इसके बाद नूरा से दोस्ती हो गई। कालीकट-शारजाह की जब पहली फ्लाइट शुरू हुई तो उसमें यात्रा करने के लिए मुझे भी न्योता मिला। शारजाह में सब कुछ नानवेज मिलता था और मैं ठहरा वेजीटीरियन। वहां शराब पर पाबंदी थी और मैं उन दिनों था मदिरा प्रेमी। वहां मैंने अपने लिए अंडा करी मंगाया तो उसमें भी हड्डी थी। मैंने नूरा को फोन किया। बगल में दुबई था। वहां से एक बड़ी गाड़ी आई। उस जमाने में भारत में मारुति से बड़ी गाड़ी नहीं थी। वो जो गाड़ी आई उसे छोटा राजन ड्राइव कर रहा था और उसमें छोटा शकील बैठा था। मैं उनके साथ गया। दुबई में दाऊद इब्राहिम से मुलाकात हुई। यहां यह साफ कर दूं कि ये बातें मुंबई ब्लास्ट के पहले की हैं। दाऊद ने मुझे एंस्वरिंग मशीन भेंट की। मैं मोबाइल फोन और इंस्ट्रूमेंट का शौकीन था। मैंने दाऊद से मुलाकात और उससे बातचीत के आधार पर जो रिपोर्ट दी वह जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस दोनों में फ्रंट पेज पर छपी। मैं बहुत सारे माफियाओं से मिल चुका हूं। चंबल के डाकू, मुंबई के भाई, दिल्ली के दीवान देवराज...। ये सब बेहद विनम्रता से ''भाई साहब-भाई साहब'' कहकर बात करते हैं।
-आपके जीवन में कभी ऐसा भी क्षण आया जब आपको अंदर से डर लगा हो?
-अपने करियर की सबसे बेहतरीन रिपोर्टिंग आप किसे मानते हैं?
-आप एक ऐसे पत्रकार हैं जो लेखन में बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। विज्ञान से लेकर नृत्य-संगीत, फिल्म तक पर आपने काम किया है। जरा इस बारे में बताएं?
--मेरी जितनी भी महिला मित्र हैं वे सब या रही हैं, ज्यादातर- नृत्य, संगीत और साहित्य के क्षेत्र की रहीं हैं। एक मित्र हैं जयन्ती। उस समय धर्मयुग में थीं। कोयल की तरह मीठी आवाज़ और बहुत प्रतिभाशाली। अब दिल्ली में हैं, वनिता की संपादक रह चुकीं हैं। मैं खजुराहो नृत्य समारोह का आफिसियल क्रिटिक रहा हूं। विज्ञान कथा की तरह फाइनेंसियल एक्सप्रेस में रेगुलर क्रिटिक रहा हूं। कविताओं का प्रेमी हूं। अग्निपथ, खिलाड़ी, जी मंत्री जी, केबीसी जैसे सीरियल लिखे। ये सब रुटीन में चलता रहता है। जहां से जो मांग आती है उसके लिए काम करता हूं।
-आगे की क्या योजना है?
--टीवी की जो भाषा है वो आजकल पत्रकारिता की भाषा हो गई है। उसको सुधारने का मौका मिलेगा तो काम करूंगा। मौका न मिला तो भी काम करूंगा। जैसा हम बोलते हैं वैसा ही लिखना चाहिए। टीवी की भाषा बहुत फूहड़ हो गई है। हालांकि भाषा को लेकर लोग अब सजग होते भी दिख रहे हैं। पुण्य प्रसून भाषा और सरोकार से समझौता नहीं करते। वे इस वक्त आदर्श टीवी पत्रकार का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रिंट में प्रभाष जी के बाद बहुत लोग हैं जो अच्छा लिखते हैं। आशुतोष बहुत अच्छा लिखते हैं पर वे टीवी में चले गए। मधुसूदन आनंद सटीक और सीधा लिखते हैं। मृणाल जी बहुत अपाच्य लिखती हैं। अभिषेक श्रीवास्तव और कुमार आनंद अच्छा लिख रहे हैं। राजकिशोर के पास भाषा और कंटेंट दोनों हैं। कई अच्छी प्रतिभाएं टीवी में चली गईं। रह गए वे लोग जो इस चक्कर में अच्छा नहीं लिख पाए की उन्हें टीवी में जाना है। वे एसपी सिंह की भाषा याद नहीं करते।
मैं यहां बता दूं कि टीवी में मेरा प्रवेश रजत शर्मा के चलते ही हुआ था। मुझे लगता है कि ये जो टीआरपी का तंत्र है उसे बदलना चाहिए। एक पैरलल टीआरपी तंत्र विकसित करने की इच्छा है। इसकी टेक्नालाजी कया हो, मेथोडोलाजी क्या हो, ये सारे विषय अभी तय किए जाने हैं पर पैरलल टीआरपी सिस्टम को लेकर काम करना है, यह तय है। जिस तरह सेंसर बोर्ड वाहियात फिल्मों पर नजर रखने के लिए हैं उसी तरह अगर मित्रों की मंडली सार्थक खबरें बना सके, पठनीय बना सके तो ज्यादा उचित काम हो सकता है। यह करने की सोच है। एक खंडकाव्य लिखना चाहता हूं। दुष्यंत कुमार को लोग उनकी गजलों के लिए जानते हैं लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्होंने एक कंठ विषपाई नामक एक खंड काव्य भी लिखा है। इस खंड काव्य की चार लाइनें शंकर जी पर हैं, वे इस तरह हैं- विष पीकर क्या पाया मैंने, आत्म निर्वासन और प्रेयसी वियोग। हर परंपरा के मरने का विष मुझे मिला, हर सूत्रपात का श्रेय ले गए और लोग।। मुझे तो ये लाइनें उनकी सारी गजलों पर भारी पड़ती दिखती हैं।
-आप जीवन में किनकी तरह बनना चाहते थे?
--मैं उदयन शर्मा की तरह बनना चाहता था पर आज तक नहीं बन पाया।
-राजनीति में आपको कौन से लोग अच्छे लगते हैं और क्यों?
--अटल जी को मानवीय गुणों की वजह से सर्वश्रेष्ठ राजनेता मानता हूं। अर्जुन सिंह जी से परिचय उनके खिलाफ ख़बर लिखने से हुआ था, मगर पिता की तरह आज भी स्नेह देते हैं। कमलनाथ को अच्छा नेता इसलिए मानता हूं कि वे दुनियादार और मेहनती हैं, मेरे दोस्त हैं। रमन सिंह को इसलिए मानता हूं क्योंकि उनके अंदर मानवीय सरोकार गजब के हैं। उन्हें आज तक ये भरोसा नहीं है कि वे सीएम बन गए हैं।
-आपको आगे किसी मीडिया हाउस की तरफ से नौकरी करने के लिए प्रस्ताव आता है तो ज्वाइन करेंगे?
-दिल्ली से लांच हो रहे नई दुनिया के बारे में आपकी क्या धारणा है? इसका भविष्य कैसा दिख रहा है?
--नई दुनिया नखदंत विहीन शेर है। एक जमाने में यह पत्रकारिता का मानक था। अपोलो सर्कस अगर किसी शंकराचार्य से विज्ञापन करवा ले तो वह तीर्थ नहीं बन जाएगा। संवाद, विवाद, अपवाद, सरोकार...इन सबसे कोई बचेगा तो वो किस बात का अखबार होगा। आलोक मेहता हैं इसलिए थोड़ी-बहुत उम्मीद है।
-अब कोई दूसरा आलोक तोमर नहीं दिखता, ऐसा क्यों?
-आप अपनी कुछ कमियों के बारे में बताएं?
--सबसे बड़ी कम यह है कि मैं बहुत आलसी आदमी हूं। हिंदी टाइपिंग बहुत कोशिश के बाद भी आज तक नहीं सीख पाया, ये भी मेरी बहुत बड़ी कमी है। अपने मां-पिता को बहुत समय नहीं दे पाता, यह मेरी कमी है। मां नहीं होती तों मैं पत्रकार नहीं बन पाया होता। मैं अंग्रेजी नहीं पढ़ और बोल पाता। मैं कभी पीआर नहीं कर पाया, ये मेरी कमी है। अचानक दो साल बाद किसी काम से कोई याद आएगा तो फोन करता हूं वरना फोन नहीं करता। ये मेरी कमी है। मैं नेटवर्किंग नहीं कर पाता। शराब की कुख्याति जुड़ी हुई है मेरे साथ, इसने मेरा बड़ा नुकसान किया है।
-आप अपने को कितना सफल और असफल मानते हैं?
-आप दोस्ती कितना निभा पाते हैं?
--मुंहफट होने की वजह से रिश्ते बिगाड़ता बहुत जल्दी हूं। रविशंकर जो आजकल वीओआई में है, एक्सप्रेस के जमाने से मेरा दोस्त है। किसी बात पर झगड़ा हो गया। जी मंत्री जी की उसने समीक्षा लिखी तो मैंने फोन किया तो उसने कहा कि मैं तुमसे बात नहीं करना चाहता, तुम्हारा काम अच्छा है इसकी तारीफ करता हूं पर तुमसे बात करना जरूरी नहीं है। इसी तरह राजकिशोर से नहीं पटती। उनका लिखा मुझे अच्छा लगता है। अगर राजकिशोर और मुझको एक कमरे में बंद कर दो तो दोनों में से कोई एक ही बाहर निकलेगा और जो बाहर निकलेगा वो मैं ही हूंगा।
-आपको किस चीज से घृणा होती है?
--हिंदी पत्रकारिता में जो छदम आक्रामकता है, उससे मुझे घृणा है। प्रो एक्टिव जर्नलिज्म करनी है तो फिर सड़क पर आइए। हम लोगों ने भी आक्रामक पत्रकारिता की है और उसे सड़क पर आकर आखिर तक निभाया है। एक उदाहरण देना चाहूंगा। न्यू बैंक आफ इंडिया का आफिस जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस की बिल्डिंग में ही था। इस बैंक के घपले और घोटाले के बारे में पता चला तो अखबार मालिकों के बिजनेस के इंट्रेस्ट के होते हुए भी हम लोगों ने इनके खिलाफ खुलकर लिखा और साथ ही, खुराना और वीपी सिंह के जरिए लोकसभा में सवाल उठवाए। आखिरकार यह बैंक बंद कर दिया गया।
--बहुत दिनों से मैं शराब छोड़ चुका हूं। एम्स के डी-एडिक्शन सेंटर गया था। उन लोगों ने काफी सारी दवाइयां दीं लेकिन विल पावर हो तो दवाओं की कोई जरूरत नहीं होती। छोड़ दिया तो छोड़ दिया। इस जन्म का कोटा मैं पूरा कर चुका हूं। पर मैं अखबार में विज्ञापन देकर तो दुनियावालों को नहीं बता सकता न कि अब मैं शराब छोड़कर शरीफ बन गया हूं, आप सब लोग मुझ पर विश्वास करो (हंसते हुए)।
शराब को मैं बुराई नहीं मानता। शराब पीकर आदमी पारदर्शी हो जाता है। भावनाओं को ईमानदारी से व्यक्त करता है। शराबी से ज्यादा ईमानदार व्यक्ति कोई दूसरा नहीं होता। पर जिंदगी का जो कैलेंडर लेकर हम लोग आए हैं उसमें हमें तय करना होगा कि हम शराब पीने और हैंगओवर उतारने में कितना समय दें। शराब से मेरे कई बड़े निजी नुकसान हुए। राजीव शुक्ला की मैरिज एनीवरसरी उदयन शर्मा के घर पर थी। वहां कई दोस्त मिल गए और जमकर पी गया। टुन्न होकर घर लौट रहा था। रास्ते में एक्सीडेंट हो गया। पत्नी के माथे पर 32 टांके आए। इस घटना के लिए मैं अपने को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा।
-कौन सा ब्रांड आपका फेवरिट था?
--मैं व्हिस्की पीता नहीं। रम और वोदका पीता था। वोदका में फ्यूल जो लैटेस्ट ब्रांड था, मेरा फेवरिट था। स्थिति यह थी कि जिस होटल में मेरे लिए कमरा बुक होता था उसमें फ्यूल की बोतलें पहले से रख दी जाती थीं।
-शराब ने कुछ फायदे भी दिए होंगे?
--शराब ने काफी कुछ दिया। शराब न पीता तो शर्मिष्ठा जैसी दोस्त न मिली होती। हम दोनों पार्टी में ही पहली बार मिले थे। शराब पीने के बाद ही एक बार पार्टी खत्म होने पर पदमा सचदेव और सुरेंद्र सिंह जी मिले, इन लोगों ने मुझे घर छोड़ा तो नशे की भावुकता में मैंने इनके पैर छू लिए। ये 20 साल पुरानी घटना है। वो रिश्ता आज तक कायम है। ज्यादातर ब्रेक मुझे दारू की पार्टी में ही मिले। जनसत्ता से निकाले जाने के बाद दारू की पार्टी में ही कई आफर मिले। सभी बड़े चैनलों के मालिकों ने वहीं आफर किए। दारू संपर्कशीलता को बढ़ाता है बशर्ते आप संयम में रहें और दूसरे को पीने दें। अटल जी के मैं बेहद नजदीक रहा, अब भी हूँ। यह रिश्ता कैसे घनिष्ठ हुआ, यह तो नहीं बताऊंगा पर उन्होंने एक दिन अपना प्रेस सलाहकार बनने के लिए कहा तो मैंने साफ मना कर दिया कि मैं सरकारी नौकरी नहीं करूंगा। कई लोग जानते भी हैं कि अटल जी के लाल किले के पहले भाषण को मैंने लिखा था। उसका एक डायलाग काफी हिट हुआ था जो पाकिस्तान के लिए कहा गया था, जंग करना चाहते हैं तो आइए जंग ही कर लें, लेकिन ये जंग दोनों मुल्कों में फैली बीमारियों से होगी, दोनों मुल्कों में जड़ जमा चुकी दुश्वारियों से होगी....। गोवा में एक बार बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक थी। वहां की एक तस्वीर पड़ी होगी हम लोगों के पास जिसमें अटल जी टीशर्ट और जींस पहने नारियल पानी पी रहे हैं। यह भी पूरी एक कथा है जिसे बताना ठीक नहीं है।
--कई आरोप रहे हैं। एक तो यही कि शराबी हूं। झूठ बोलने के आरोप लगे। परिचित की गर्लफ्रेंड छीनने का आरोप लगा।
-आपको कौन सी कविता या शेर या गजल या गीत सबसे ज्यादा पसंद है?
--दिनकर जी की कुछ लाइनें मुझे बेहद पसंद हैं। वे इस तरह हैं- अंधतम के भाल पर पावक जलाता हूं। बादलों के शीश पर स्यंदन चलाता हूं। मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं। उर्वशी, अपने समय का सूर्य हूं मैं।
-आपको सबसे ज्यादा संतुष्टि किस चीज में मिलती है?
--अपनी बेटी की मुस्कान देखकर संतोष होता है। डीपीएस से आकर जब वो कहती है कि मेरे यहां लालू यादव की भतीजी भी पढ़ती है और जब उनके पापा को पता चला कि मैं आपकी बेटी हूं तो उन्होंने खुद को आपका मित्र बताते हुए मुझे बेस्ट विशेज दीं। यह कहते हुए बेटी के चेहरे पर जो दर्प और गर्व देखता हूं, उससे संतोष मिलता है। इससे बड़ी खुशी मेरे लिए कोई नहीं हो सकती।
-आपको दुख किस बात पर होता है?
-आलोक तोमर को उनके न रहने पर किस लिए याद करें? आपकी निजी इच्छा क्या है?
--मुझे अपने मां के बेटे के तौर पर और अपनी बेटी के पिता के तौर पर याद करें, इससे ज्यादा खुशी मुझे और किसी चीज में नहीं होगी। वैसे जल्दी निपटने वाला नहीं...मेरी गुरबत पे तरस खाने वालों मुझे माफ करो, मैं अभी जिंदा हूँ, और तुम से ज्यादा जिंदा। इन दिनों तो खैर गर्दिश में हूँ, आसमान का तारा हूँ।
--पहली बात तो हिंदी मीडिया के साथियों से मदद नहीं मिल पा रही है, यह सच है लेकिन यह भी सच है कि मुझे मदद की अपेक्षा भी नहीं। दरअसल कई साथियों को तो मजे लेने का बहाना मिल गया है। मीडिया जगत के साथियों के ये विवेक पर निर्भर करता है कि वे मदद करें या न करें। मैंने उनके कहने पर तो ये मामला शुरू नहीं किया। अकेले लड़ लूंगा। दुष्यंत की लाइनें हैं- हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग, रो-रो के बात कहने की आदत नहीं रही /हमने तमाम उम्र अकेले सफर किया, हम पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही।
डेनिश कार्टून छापना या केके पाल से अदावत अगर कोई गलती थी तो ये मेरी गलती थी और इससे मैं खुद ही निपटूंगा। मुझे किसी से कोई उम्मीद नहीं है। जो वकील मेरा मामला देख रहे हैं, दोस्त बन गए हैं, संजीव झा नाम है उनका। मुझसे कभी फीस नहीं मांगी। हां, इस प्रकरण के चलते मुझे भी दिक्कतें आ रही हैं। आईआईएमसी के डायरेक्टर के तौर पर मेरा सब कुछ हो गया था लेकिन पुलिस वेरीफिकेशन में इस मामले के चलते रुकावट आ गई। नार्वे में एक प्रोग्राम के सिलसिले में निमंत्रण मिला था लेकिन मुझे वीजा नहीं मिला। तो ये सब दिक्कतें आईं। सबसे बड़ी दिक्कत मेरे परिजनों को तब हुई जब मैं तिहाड़ में था। मैं 12 दिन जेल में रहा और पत्नी व बिटिया यह सोचकर परेशान थीं कि जेल में मेरे साथ जाने क्या क्या हो रहा होगा। ये अलग बात है कि जेल में पप्पू यादव मुझे अंडे के पराठे खिलाते थे और बैडमिंटन खेलता था। पर उन लोगों ने तो फिल्मों की जेल देख रखी है। सोचते होंगे कि मैं चक्की पीस रहा हूं। तो ये सोचकर जो मानसिक यातना मेरी बेटी और पत्नी को हुई है, उसके लिए मैं केके पाल को कभी माफ नहीं कर सकता। केके पाल इन दिनों यूपीएससी का सदस्य है तो मैं यूजीसी की गवर्निंग बाडी का सदस्य हूं।
सच्चे क्षत्रिय और राजपूत की तरह कहता हूं-जो इसे जातिगत दर्प मानें, वे ठेंगे से, कि केके पाल के चलते मेरे परिजनों ने जो मानसिक यातना झेली है उसका बदला मैं न्याय की सीमा में लूंगा। मैं तब तक चैन से नहीं बैठूंगा जब तक वे अपने कर्मों के लिए दंडित नहीं होते।
-आलोक जी, आपको बहुत-बहुत शुक्रिया। आपने इतना वक्त दिया।
--धन्यवाद।
आज आपकी और अधिक जरूरत थी आलोक भैय्या
18 मार्च, 2011 की रात करीब साढ़े दस बजे मैं कम्प्यूटर के सामने बैठा कुछ काम कर रहा था कि एकाएक आलोक कुमार का फोन आया। आलोक भैय्या (तोमर) की खराब सेहत का हवाला देते हुए बताया कि सुप्रिया भाभी बात करना चाहती हैं। मैं एकदम हतप्रभ रह गया और भाभी से बातचीत में भी यह छिपा नहीं पाया कि भैय्या से मैं नाराज हूं। भाभी की शीतल बातों से मन शर्मसार सा हो गया। मेरी पत्नी ममता से भाभी ने बात की और फिर कैंसर से पीड़ित और खराब हालात में बत्रा में दाखिल आलोक तोमर को लेकर मेरे मन में संबधों के 28 साल पुरानी फिल्म घूमने लगी।
आलोक तोमर से मेरा रिश्ता एक लंबी नदी की तरह है। कभी हम दोनों में भरपूर प्यार लबालब रहा, तो कभी सूखी हुई नदी की तरह भावहीन से हो गए। मन में तमाम शिकायतों के बाद भी सामने नाराजगी प्रकट करने की हिम्मत कभी नहीं रही, तो सामने देखकर भैय्या ने भी कभी मेरी उपेक्षा नहीं की। अलबता पिछले करीब आठ साल से हम दोनों के बीच कोई वार्तालाप तक नहीं हुआ, फिर भी मन में आदर के साथ शिकायत भी बना रहा है। भड़ास4मीडिया से कैंसर की जानकारी मिलने के बाद भी बात करने की पहल हमने भी नहीं की (इस गलती का अहसास कल रात को हुआ)।
जनसता के प्रकाशन के साथ ही 1983 से मैं आलोक तोमर से पत्र संपर्क के जरिए (तब तक तो मैं दिल्ली भी नहीं आया था) जुड़ गया। पहले पत्र से ही मैंने भैय्या का संबोधन दिया था। पहले पत्र में मैंने भाभी को भी प्रणाम लिखा था। लौटती डाक में भैय्या ने मुझे भाभी को किया गया प्रणाम यह कह कर लौटा दिया कि अभी तेरी कोई भाभी नहीं है। हमारे बीच पत्र का रिश्ता बना रहा और लगभग हर माह चार-पांच पत्र आते ही रहते थे। (कुछ पत्र तो मेरे घर देव में आज भी सुरक्षित होंगे)।
आलोक भैय्या से पहली मुलाकात 1985 में हुई। वे चाहे जितने भी बड़े पत्रकार होंगे, मगर आलोक भैय्या के रूप में वे हमारे लिए ज्यादा बड़े थे। जनसत्ता दफ्तर में जाकर पहली बार मिलना कितना रोमांचक रहा, इसका बयान मैं नहीं कर सकता। उनसे मिलना वाकई मेरे लिए किसी कोहिनूर को पाने से कम नहीं था। आलोक भैय्या ने भी करीब एक घंटे तक अपने सामने बैठाए रखा और घर परिवार से लेकर बहुत सारी तमाम बाते पूछी। फिर बिहार लौटने से पहले दोबारा मिलकर जाने को (आदेश) कहा।
उनसे मेरी दूसरी मुलाकात कितनी अद्भभुत रही, इसको याद करके मैं आज भी सोचता हूं कि वे वाकई (उस समय) रिश्तों को खासकर हम जैसे छोटे गांव से पहली बार दिल्ली आने वाले को कितना मान देते थे। उस समय तक तो हमलोग नौसीखिया पत्रकार भी ठीक से नहीं बन पाए थे। कभी-कभी तो शर्म भी आती है कि सामान्य शहरी शिष्टाचार के मामले में भी मैं कितना अनाड़ी था। आलोक भैय्या से मुलाकात हो गई। कैंटीन से चाय और समोसे भी खिलाए। थोड़ी देर के बाद वे उठे और बोले बबल, तुम बैठो मैं अभी थोड़ी देर में आता हूं (यह आमतौर पर मुलाकात खत्म करने का सामान्य तरीका है)। मैं इस दांवपेंच को जानता नहीं था, लिहाजा उनके टेबुल के सामने ही करीब दो घंटे तक बैठा अपने आलोक भैय्या के आने की राह देखता रहा। वे आए और मुझे बैठा देखकर लगभग चौंक से गए। मुझसे बोले अभी तक गए नही? मैनें मासूमियत से जवाब दिया आपने ही तो कहा था कि तुम बैठो, मैं अभी आता हूं? मेरी मासूमियत या यों कहें बेवकूफी को भांपते हुए फौरन मेरा मान रखने के लिए अपनी भूल का अहसास करते हुए फौरन कहा हां, मैं एकदम भूल गया कि तुम बैठे हो। थोड़ी देर तक बातचीत की और एकबार फिर चाय पीलाकर मुझे रूखसत किया। इस घटना से उनके बड़प्पन का बोध आज भी मन को उनके प्रति आदर से भर देता है।
साल 1985 में मेरे संपादन में एक कविता की किताब संभावना के स्वर भी छपा, जिसकी प्रति भैय्या को दी। 1987 मे मैं भारतीय जनसंचार संस्थान में दाखिला लेकर दिल्ली आ गया। तब मेरे साथ आलोक भैय्या हमारे भैय्या है, इसका एक विश्वास हमेशा मन को बल देता रहा। 1990 में चौथी दुनिया (तबतक संतोष भारतीय एंड कंपनी अलग हो चुकी थी) की रिपोर्टिग के दौरान मैंने अपने लिए ढेरों लोगों से समय तय कराया। 1992 में समय सूत्रधार के लिए चंद्रास्वामी के इंटरव्यू के लिए भी समय तय कराया। पूरे इंटरव्यू के दौरान वे हमारे साथ भी रहे। मेरे आलोक भैय्या प्रेम को देखकर वे कई बार आगाह भी करते कि सब जगह मेरा नाम मत लिया कर वरना कभी-कभी घाटा भी उठाना पड़ सकता है। हालांकि जिदंगी में ऐसा मौका कभी नहीं आया।
1991 के बाद आलोक भैय्या से हमारा रिश्ता ही और ज्यादा प्रगाढ़ हो गया। हर एक लेख या रिपोर्ट 300 रूपए के हिसाब से शब्दार्थ के लिए मैनें 50 से भी अधिक लेख या रिपोर्ट लिखे। तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएन शेषन से किया गया लंबा आक्रामक इंटरव्यू भी (जो बाद में सैकड़ों जगह प्रकाशित हुआ) शब्दार्थ के लिए किया। शब्दार्थ के लिए ही मैं गुमला झारखंड के जंगलों में जाकर आदिवासियों की समानांतर सरकार की रिपोर्टिग की।
1993 में मयूर विहार फेज तीन में मैंने एक एलआईजी फ्लैट खरीदा। मकान तो खरीद लिया, मगर अंत में पांच हजार रूपए घट गए। जिसकी अदायगी नहीं होने तक प्रोपर्टी डीलर ने नए फ्लैट पर अपना ताला डाल दिया। तब तक मोबाइल तो दूर की बात लैंडलाईन का किसी घर में होना भी स्टेटस सिंबल होता था। घर से पैसा मंगवाने में भी आठ-दस दिन तो लग ही जाते। मैंने अपनी समस्या आलोक भैय्या को बताया, तो उन्होनें शब्दार्थ के लिए 20-25 रिपोर्ट लिखकर लाने को कहा। मैं दो दिन तक लक्ष्मीनगर वाले किराये के मकान में खुद को बंद करके तीसरे ही दिन करीब 30 रिपोर्ट कस्तूरबा गांधी मार्ग वाले पेट्रोल पंप के पीछे शब्दार्थ में दे दिया। आलोक भैय्या ने रिपोर्ट को देखे बगैर ही फौरन पांच हजार रूपए हमें दे दिए।
इस बीच अपने घर के प्रोपर्टी डीलर पुराण की गाथा मैं लक्ष्मीनगर में राकेश थपलियाल के घर पर बैठकर बता ही रहा था कि राकेश के पापा कमलेश थपलियाल अंकल अपने कमरे में गए और पाच हजार रूपए लाकर मेरी और बढ़ाया। यह मेरे लिए एक चमत्कार सा कम नहीं था। मैं एकदम चौंक सा गया। मैंने कहा कि अंकल पैसा तो मैं ले लूंगा मगर, इसे कब लौटाऊंगा यह मैं अभी नहीं कह सकता? मेरे ऊपर पूरा विश्वास दिखाते हुए उन्होंने कहा तुम पैसे ले जाकर पहले घर को अपने कब्जे में करो। मेरा पैसा कहीं भाग नहीं रहा है, मुझे पता है कि पैसा आने पर सबसे पहले तुम यहां पैसा देकर ही जाओगे। आलोक भैय्या से पांच हजार लेते समय यह बताया कि मुझे कमलेश थपलियालजी भी पैसा देने के लिए राजी है, जिसपर उन्होंने कहा कि पैसे तो मिल ही गए, फिर क्यों किसी का अहसान लोगे?
1993 अक्टूबर में मां पापा और पत्नी ममता जब पहली बार दिल्ली आए तो आलोक भैय्या भाभी और छोटी मिष्ठी को लेकर मयूर विहार फेज तीन घर पे आए। सबों से मिलकर भैय्या और भाभी भावविभोर हो गए। भैय्या ने ममता को कहा भाई मेरा बर्थडे 27 दिसंबर को होता है, मैं चाहता हूं कि मुझे ताऊ बनाने वाले का जन्मदिन भी 27 दिसंबर ही हो, ताकि एक साथ ही जन्मदिन मनाया जा सके। यह एक अजीब संयोग रहा कि मेरी बेटी कृति का जन्म भी 27 दिसंबर 94 में हुआ।
भैय्या से भाभी को लेकर यदा- कदा बहुत सारी बातें हुई। यहां तक कि कैसे भैय्या ने भाभी को पटाया और प्यार और विवाह का प्रस्ताव रखा। उधर से हरी झंडी मिलते ही हमारे भैय्या इस कदर भाव विभोर होकर खुश हो गए कि अपने स्कूटर को सीधे जाकर एक गाड़ी से भिड़ा दिया और सीधे अस्पताल में दाखिल हो गए। तब भाभी झंडेवालान दफ्तर जाने की बजाय भैय्या की देखभाल करती रही। भाभी को नवभारत टाइम्स में लगवाने से लेकर 1990 में जनसत्ता छोड़ने के तमाम कारणों पर भी भैय्या ने पूरी कहानी बताई।
इस बीच राष्ट्रीय सहारा से मैं 1993 दिसंबर में जुड़ गया। बात 1995 की है। डेटलाइन इंडिया के लिए भी मैंने 30-35 रिपोर्ट लिखे, मगर इस बार मुझे पैसा नहीं मिला। काफी समय बाद फिर बात 2000 की थी, जब एक दिन भैय्या ने दीपक बाजपेयी (तब डेटलाइन देख रहे थे) से फोन करवाया और रिपोर्ट लिखने के लिए कहलवाया। बाद में फोन लेकर भैय्या ने कहा अनामी इस बार तु्म्हें जरूर पैसे दूंगा। मैंने कहा भैय्या आपने फोन किया यही मेरे लिए काफी है। मगर, भैय्या बार-बार बोलते रहे नहीं अनामी, इस बार तुम्हें शिकायत नहीं होगी, बस जुट जाओ डेटलाइन को जमाना है। इसके बाद करीब दो माह तक यह रोजाना का सिलसिला सा बन गया कि सुबह 8-9 के बीच भैय्या का फोन आता और मैं दो एक रिपोर्ट का टिप्स भैय्या को पूरे विवरण के साथ लिखवाता, जिसे बाद में भैय्या अपनी तरफ से कभी मेरे नाम तो और भी कई नाम से रोजाना डेटलाइन के लिए जारी करते।
भैय्या के घर में जाकर दो बार मिला। एक बार कालकाजी वाले मकान और दोबारा चितरंजन पार्क में। दोबारा जाने पर तो एकाएक भाभी को सामने देखकर मैं पहचान ही नहीं पाया। इस पर भाभी नाराज होकर बोली और मत आया करो, बाद में तो फिर पहचानोगे ही नहीं? भैय्या हमेशा मेरे लिए सुपर ब्रांड रहे, यही वजह है कि चाहे आलोक कुमार, अनिल शर्मा (छायाकार), नवीन कुमार, अशोक प्रियदर्शी आदि को मैंने ही भैय्या से मिलवाया। सारे लोग किसी ना किसी तरह से आज भी संपर्क में हैं, मगर मैं ही कट सा गया।
इसी दौरान तीन नए राज्य बने, और मुझे झारखंड में रांची, हजारीबाग जाना पड़ा। भैय्या ने मुझसे कुछ रिपोर्ट लाने को कहा। नए राज्य के गठन के समय नए उत्साह और नए माहौल में भागते हुए करीब 15-16 रिपोर्ट के लिए मैटर जमा कर वापस दिल्ली लौटा। एक दिन रात में भैय्या फोन करके रिपोर्ट के बाबत पूछ रहे थे। मेरी जेब में उस समय केवल 13 रूपए ही थे। मैंने भैय्या से कहा कि कुछ पैसे तो दीजिए भैय्या, जेब एकदम खाली है। इस पर भैय्या ने कहा जल्द ही मैं भिजवाता हूं। उस दिन के बाद फिर आलोक भैय्या का फोन आना बंद हो गया। बहुत सारी रिपोर्ट होने के बाद भी मैं इस डर से फोन नहीं किया कि कहीं भैय्या को यह ना लगे कि पैसों के लिए मैंने फोन किया है? बातचीत बंद होने का यह सिलसिला इस कदर गहराया कि रिश्तों पर ही विराम लग गया। अलबता कई साल के बाद एक दिन बंगाली मार्केट में बंगाली स्वीटस में मुझे देखकर भैय्या ने आवाज दी। अनामी सुनकर मैं भी चौंक पड़ा। उनसे मिला और हमेशा की तरह पैर छूआ। घऱ का हाल चाल पूछे। करीब पांच मिनट की इस मुलाकात के बाद यह मेरा दुर्भाग्य है कि 28 साल पुराने रिश्ते पर विराम लगे एक दशक गुजरने के बाद भी हम दोनों को (मेरी गलती अधिक है क्योंकि मैं छोटा भाई हूं) खत्म हो गए इस रिश्ते की कभी लेखन, तो कभी पारिवारिक स्तर पर हर समय खबर तो मिलती ही रहती थी, मगर अपने बीमार भाई से जाकर मैं नहीं मिल पाया।
कल दोपहर में ही रायपुर से रमेश शर्मा का फोन आया और भैय्या की सेहत को लेकर काफी देर तक बातें होती रही। आलोक भैय्या से भाभी को पहली बार मिलाने वाले रमेश शर्मा कई साल तक एक साथ काम करते थे। एक बार हिन्दी की विख्यात लेखिका चित्रा मुदगल जी के यहां गया था। जहां पर चर्चा के दौरान भैय्या की मानस मां चित्रा आलोक तोमर को लेकर भावविभोर हो गईं।
कल रात भाभी से बात होने के साथ ही मेरे मन का सारा मैल धुल गया। आंखों से आंसू की तरह तमाम शिकवा गिला भी खत्म हो गए। अपने आप पर शर्म आ रही है कि क्या मैं वाकई इतना बड़ा हो गया हूं कि अपने उस भाई से भी नाराज हो सकता हूं ? यह सब मेरे जैसे छोटी सोच वालों से ही संभव है। वाकई भैय्या आपसे नाराज और दूर होकर मैने अपना कितना नुकसान किया? यह बता पाना मेरे लिए कठिन है। सचमुच भैय्या अपनी जिद्द और लगन से अभी तक सबकुछ संभव साबित किया है। हमने कामना की थी कि हमलोगों की दुवाओं से नहीं भैय्या बल्िक आपको अपनी जिद्द और कठोरता से इस बार फिर कैंसर को परास्त करना है, ताकि एक बार फिर सब कुछ सामान्य हो सके। क्योंकि आज आपकी और अधिक जरूरत है। आज जब मीडिया के ही लोग दलाल बनकर सामने आ रहे है, तो उनको बेनकाब करने का साहस आपके सिवा और किसमें है? सचमुच भैय्या वाकई आपकी आज ज्यादा आवश्यकता है। पर शायद भगवान को यह मंजूर नहीं था।
अनामी शरण बबल 20 मार्च 2011 दोपहर 2बजे।
अभी अभी मैं घऱ में बैठा ही था कि माणिक का फोन आया और एक धमाके के साथ उसने बताया कि आलोक तोमर नहीं रहे। यह सुनकर मैं कांप सा गया। फौरन भडास खोला ताकि यह पता चल सके कि भैय्या को लेकर क्या खबर है। भैय्या पर लिखा मेरा लेख भी लग गया था। भडास में यह लेख कल नहां लगा तो इसे मैने विनोद विप्लव को उसके वेब के लिए दिया और मैं चाहता था कि यह किसी तरह कहीं जारी हो, ताकि भैय्या से जब मैं 21 मार्च को मिलने जाऊं तो यह वे जरूर पढ़े। भाभी से मिलने या भैय्या को देखने की मेरी हसरत ही रह गई, क्योंकि होली की वजह से मैं 19 को नहीं जा सका। आलोक ने बताया तो था तो था कि भैय्या की हालत काफी नाजुक है, मगर हमें लगा कि अब दो दिन के बाद ही जाकर मिलूंगा। मगर हमेशा की तरह इस बार भी मैं फिर गलत साबित हुआ । शायद भैय्या मुझसे इस कदर नाराज थे कि हमें माफी मांगने का मौका देना भी उन्हें गवारा नहीं लगा। सचमुच भैय्या नाराजगी के लिए मैं आपसे माफी तक नहीं मांग सका , और इसका मलाला जीवन भर रहेगा। सचमुच भैय्या आपको खोकर वाकई लग रहा है मानो अपनी भूल से मैं अपने उस रिश्तें का भी मान नहीं रखा, जिसके लिए आपने मुझ अबोध पत्रकार को ठेठ गंवार या बुद्धू नहीं बनने दिया था। आपका छोटा भाई आज आपके सामने लज्जित है भैय्या मुझे क्षमा कर दे, क्योंकि अब तो मैं आपके सामने काम पकड़ कर भी क्षमा नहीं मांग सकता।
लेखक अनामी शरण बबल दिल्ली में पत्रकार हैं. काफी समय तक आलोक तोमर के साथ जुड़े रहे हैं.
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दूसरा आलोक तोमर न दिखने के सवाल पर आलोक तोमर का जवाब
''आलोक तोमर इसलिए मिले क्योंकि प्रभाष जोशी थे। अच्छा गहना बनाने के लिए शिल्पी चाहिए। दिल्ली प्रेस में भर्ती हो जाता तो वहीं रह जाता। अगर प्रभाष जी नहीं मिले होते तो ये आलोक तोमर नहीं होता। नाम मेरा जनसत्ता से हुआ। टीवी में संप्रेषण और अभिव्यक्ति की सीमा है। आपके और आपके दर्शक के बीच में तकनीक है। फुटेज, इनजस्ट, साउंड क्वालिटी, विजुअल क्वालिटी ये सब ज्यादा प्रभावी हो जा रहे हैं। पुण्य प्रसून में जिस तरह का रचनात्मक अहंकार और दर्प है, वो अब बाकी लोगों में गायब होता दिख रहा है। लोग जहां जाते हैं, वहां वैसा लिखने लगते हैं। टीवी सुरसा है जो सबको निगल रही है। आज के जमाने में अगर गणेश शंकर विद्यार्थी, पराड़कर होते और उनका नवभारत व हिंदुस्तान के लिए टेस्ट करा दिया जाता तो वे फेल कर दिए जाते। आज की जो हिंदी पत्रकारिता है, उसे सुधारना है तो दूसरा प्रभाष जोशी चाहिए। महात्मा गांधी से बड़ा पत्रकार कौन है। उनके एक संपादकीय पर आंदोलन रुक जाया करते थे। मैं हरिवंश का प्रभात खबर सब्सक्राइव कर मंगाता हूं। वर्तमान में यह एक ऐसा अखबार है जिसमें सरोकार बाकी है। आजकल पत्रकारों से ज्यादा समाज के बारे में निरक्षर कोई दूसरा नहीं है। अगर भारत में भूख के बारे में लिखना है और नेट पर सर्च करेंगे तो विदेश के पेज खुलेंगे। कालाहांडी में भूख से मौत के बारे में मेरे पास सूचना विदेश से आती है।''
आलोक की बेबाकी, साहस, साफगोई उनके इंटरव्यू से झलकता है, जिसे मैंने बहुत मन से किया और प्रकाशित किया. आलोक के दो पार्ट के ये इंटरव्यू भड़ास4मीडिया के सबसे पापुलर इंटरव्यूज में से हैं जिसे करीब एक लाख बार पढ़ा जा चुका है. इस इंटरव्यू में आलोक ने अपने जीवन के सारे पन्ने खोल दिए. दोनों पार्ट को आज के दिन फिर से पढ़ने पर लगता है कि हम लोगों ने अपने समय का एक शेर, एक हीरा, एक अदभुत और अद्वितीय पत्रकार खो दिया है.
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