निशंक का कोप : साप्ताहिक से मासिक होगा 'द संडे पोस्ट'
: सरकार के खिलाफ लिखने की कीमत : उत्तराखंड में किसी पत्रकार या मीडिया संस्थान के लिए जिंदा रहने के लिए एक ही शर्त है कि वह सत्ता के तलवे चाटे। जो यह सब नहीं कर सकते उनका हुक्का-पानी बंद कर उन्हें मैदान छोड़ने के लिए विवश किया जा रहा है। पहले बीसी खंडूड़ी और अब मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक के कोपभाजन का सामना कर रहे साप्ताहिक अखबार 'द संडे पोस्ट' को अपने जनपक्षीय तेवरों की कीमत चुकानी पड़ी है। चार साल से सरकारी विज्ञापनों पर लगे अघोषित प्रतिबंध के चलते साप्ताहिक अखबार के तौर एक दशक की यात्रा के बाद यह अखबार अब मासिक होने जा रहा है।
अखबार के संपादक अपूर्व जोशी ने एक लम्बा संपादकीय लिखकर अपनी पीड़ा बयां की है। इससे पता चलता है कि उत्तराखंड में भाजपाई सरकार के मुखिया चाहे बीसी खंडूड़ी रहे हों, या फिर अब पत्रकार से मुख्यमंत्री बने निशंक, इनको सत्ता की चाटुकारिता करते रहने वाले पत्रकार और पत्र-पत्रिकाएं तो पसंद हैं, पर सत्ता विरोधी रुझान रखने वाले उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाते। संडे पोस्ट और कुछ एक छोटे अखबारों को छोड़ दें तो बाकी सब छोटे-बड़े अखबार सावन के अंधे की तरह निशंक की चाटुकारिता में पिले पड़े हैं। जो ऐसा नहीं कर रहे हैं उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है। जो पत्रकार या अखबार मालिक निशंक की धमकियों के आगे हथियार नहीं डाल रहे हैं, उनके आर्थिक स्रोत बंद किए जाने की कुनीति पर सरकार के कारिंदे काम कर रहे हैं।
सत्ता विरोधी अखबारों को निरंतरता में मिलने वाले विज्ञापनों पर अघोषित प्रतिबंध तो लगा ही है, गैर सरकारी विज्ञापन दाताओं में भी निशंक की तानाशाही का इतना खौफ है कि चाहते हुए भी ऐसे अखबारों की मदद नहीं कर पा रहे हैं। इस बर्बर समय में जब सत्ता की चाटुकारिता मीडिया में एक अनिवार्य शर्त जैसी हो गई है तब कुछ किन्तु-परंतु के बावजूद अपने जनपक्षीय तेवरों के लिए जाने जाने वाले संडे पोस्ट का साप्ताहिक से मासिक में अवतरित होना परेशानकुल है। अरबों रूपयों के स्टर्डिया जमीन घोटाला मामले में निशंक सरकार के खिलाफ हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर करने वालों में संडे पोस्ट के संपादक भी एक थे।
द संडे पोस्ट में छपा अपूर्व जोशी का संपादकीय
तूफानों की ओर घुमा दो पतवार
पिछले एक दशक के दौरान मुझे इस अखबार के चलते अनेक बार सत्य से साक्षात्कार करने का और उस अलौकिक शक्ति जिसे सामान्यतः ईश्वर कह पुकारा जाता है, को समझने का अवसर मिला। जो किताबी ज्ञान था उसे आजमाने के अनेक मौके आए। शायद यही कारण रहा कि मैंने कभी भी स्वहित के लिए समझौता नहीं किया। यह मैं स्वयं को ईमान वाला साबित करने के लिए नहीं लिख रहा। मुझमें इतना नैतिक साहस है स्वीकारने का कि अनेकों बार मित्रों-परिचितों के दबाव में या स्नेहवश मैंने कई समाचारों की धार हलकी की या फिर उन्हें प्रकाशित ही नहीं किया। लेकिन स्वहित के चलते नहीं।
गीता में कृष्ण ने कहा कि श्येयथा मां प्रपद्घन्ते तांस्तशैव भजाम्यह्म। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः। यानी- 'हे अर्जुन! जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं भी उनको वैसे ही भजता हूं। इसे समझने वाले मनुष्य सब प्रकार से मेरे बताए मार्ग का अनुसरण करते हैं।' कृष्ण कहना चाहते हैं कि ईश्वर प्रतिध्वनि यानी रिजोनेन्स देता है। जैसे हम होते हैं, ठीक वैसी ही प्रतिध्वनि हमें मिलती है। इसे मैंने यूं समझा कि जैसा कर्म होगा प्रतिफल भी उसके ही अनुरूप होगा। यदि इस अखबार के जरिए जान-बूझकर मेरे द्वारा कोई ऐसा कार्य किया गया होता, जिससे सीधे मेरा स्वार्थ जुड़ता तो निश्चित तौर पर जिन सामाजिक तौर पर प्रतिष्ठत व ताकतवर लोगों पर हमने हमला बोला, वह मेरा अथवा मेरे किसी साथी का अहित करने में सफल हो ही जाते। ऐसा हुआ नहीं यानी हमें सकारात्मक ताकतों ने संरक्षण दिया।
प्रो. जॉन लब्बक के शब्दों में 'What we see depends mainly on what we look for' को भी मैंने सही तौर पर इस एक दशक के दौरान ही समझा है। 'हमें जो दिख रहा है वह वस्तुतः वही है जो हम देखना चाहते हैं।' यह अद्भुत सत्य है। भ्रष्ट राजनेताओं और धर्मयोग गुरुओं ने कई बार मुझे या इस अखबार को ब्लैक मेलर कहा। उनकी सोच, उनका दर्शन ही ऐसा है कि चारों तरफ अपने भाई-बंधु दिखाई पड़ते हैं।
आप सोच रहे होंगे आज यह सब बातें क्यों? आमतौर पर तात्कालिक-राजनीतिक घटनाक्रम पर लिखने वाला आज क्योंकर कृष्ण, लब्बक, धर्म और सत्य की बात कर रहा है? स्पष्टीकरण वाली भाषा क्यों? आज तीखे तेवर कहां लापता हैं और अंगार उगलने वाली कलम दार्शनिक क्योंकर हो रही है? मित्रों इसका कारण वह बदलाव है जो अब मैं कई कारणों के चलते इस अखबार के वर्तमान स्वरूप के साथ करने को बाध्य हुआ हूं।
बैंजामिन फ्रैंकलिन ने कहा है कि psaion drives you, let resaon holds the reins, यानी यदि आप अपने भावावेश, धुन या फिर जुनून के हवाले हो काम करने लगते हैं तो अच्छा है कि तर्क शक्ति आप पर अधिकार कर ले। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के जन्मदाता, प्रसिद्ध लेखक, समाज विज्ञानी और राजनीतिज्ञ फ्रैंकलिन ने किस संदर्भ में यह लिखा मैं नहीं जानता, परंतु अपने जुनून के आगे बेबस जिस प्रकार पिछले एक दशक तक 'द संडे पोस्ट' के नियमित प्रकाशन की व्यवस्था करता आया, उसके दृष्टिगत अब मैं सहमत हूं कि कई बार तर्क पर भी ध्यान देना चाहिए। 'द संडे पोस्ट' मेरा जुनून ही तो है। यह अखबार अपने प्रकाशन के प्रथम दिन से ही आर्थिक घाटे में रहा है।
पहले उत्तर प्रदेश और बाद में दिल्ली में इसका विस्तार होने के चलते प्रति माह घाटा सात से आठ लाख रुपया रहा, जो अब उप्र व दिल्ली में सीमित प्रसार के चलते कुछ कम हो चला है। अखबार में मुख्य रूप से आय का स्रोत विज्ञापन होते हैं। छोटे और मझोले समाचार पत्रों के लिए सरकारी विज्ञापन ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। 'द संडे पोस्ट' जैसे काफी हद तक व्यवस्था विरोधी समाचार पत्रों को व्यवसायिक विज्ञापन देना विज्ञापनदाता के लिए तर्क संगत नहीं होता है। दूसरी तरफ सरकारें दबाव की रणनीति के चलते कभी मेहरबान हो विज्ञापन की बाढ़ लगा देती हैं, कभी पूरी तरह रोक। ऐसे हालातों में किसी भी प्रकार से आर्थिक घाटे को रोक पाना संभव नहीं। यह जिक्र इसलिए क्योंकि अब वर्तमान स्वरूप में इस अखबार को निकाल पाना दिनोंदिन असंभव होता जा रहा है।
हालांकि यह अखबार मेरे लिए कभी भी घाटे या मुनाफे का सौदा नहीं रहा। यह मेरा पैशन है। इससे मेरा पूरा अस्तित्व जुड़ा है। प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्त्ता डॉ. हावर्ड थुरमैन का कहना था, 'कभी स्वयं से यह मत पूछो की दुनिया क्या चाहती है, यह सोचो कि वह क्या है जिससे आप में जिंदगी आती है। उसे खोजो और वही करो क्योंकि दुनिया को ऐसों की जरूरत है, जो जिंदगी को खोज चुके हैं (Don't ask your sefl what the world needs, ask yoursefl what mkaes you come alive. And then go and do that. Because the world needs people who have come alive)।' मेरे लिए 'द संडे पोस्ट' जिंदगी है। उसी से मेरी पहचान है। इसलिए आर्थिक घाटे या मुनाफे का कोई अर्थ नहीं। हां व्यवहारिक स्तर पर जब दिक्कतें बढ़ती हैं तो तार्किक शक्ति हावी होने लगती है, जैसा पिछले कुछ समय से हो रहा है।
उत्तराखण्ड में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के साथ ही सरकारी तंत्र का कोप हम पर पड़ने लगा था। मेजर जनरल भुवन चन्द्र खंडूड़ी जब केंद्र में सड़क परिवहन के मंत्री थे, तो उत्तराखण्ड का अखबार होने की हमारी पहचान फायदेमंद रही थी। हमें उनके मंत्रालय ने व्यवसायिक दरों पर काफी विज्ञापन दिए। लेकिन सीएम बनने के साथ ही हमारे संबंधों में खटास बढ़ने लगी, जिसका सीधा असर राज्य सरकार से मिलने वाले विज्ञापनों पर पड़ा। राज्य सूचना विभाग के अफसरों ने तिवारी सरकार के शासनकाल में मिले हमारे विज्ञापनों तक के भुगतान रोक दिए। नए विज्ञापन जारी नहीं हुए। निशंक स्वयं पत्रकार हैं। उन्हें अखबार की बैलेंसशीट का खासा ज्ञान है। चूंकि राज्य के स्वास्थ्य मंत्री रहते उन्हें 'द संडे पोस्ट' के तेवरों की ताप महसूस हो चुकी थी, इसलिए उन्होंने भी न तो हमारा भुगतान होने दिया और न ही विज्ञापन पर लगा प्रतिबंध हटाया है।
यानी पिछले चार साल हमने बिना सरकारी विज्ञापनों के काटे। हालांकि खंडूडी जी और वर्तमान सीएम का विरोध यदि हम नहीं करते तो ऐसी स्थिति न होती। यह मेरा अनुमान नहीं बल्कि पिछले चार वर्षों में कई बार ऐसे संकेत और संदेश मुझे मिले। जिन्हें यदि मैंने व्यवहार में उतारा होता तो हमारी बैलेंसशीट मजबूत रहती। मगर ऐसा करना तो सीधे-सीधे सौदेबाजी होती। एक हाथ दे दूसरी हाथ ले ही यदि करना होता तो फिर कोई और धंधा करता। नतीजा यह है कि जिस अप्रिय स्थिति से बचने का हर संभव मैंने प्रयास किया अब वही करना पड़ रहा है। अगले माह या हद से हद मई से 'द संडे पोस्ट' एक मासिक पत्रिका में परिवर्तित हो जाएगा। निश्चित तौर पर इसका सीधा असर हमारे प्रसार पर पड़ेगा लेकिन अन्य कोई उपाय भी नहीं है।
तो कुछ सप्ताह पश्चात आप और हमारी मुलाकात महीने में एक ही बार होगी। यह कष्टप्रद है मेरे लिए भी और इस अखबार के उन असंख्य पाठकों के लिए भी, जिन्हें पिछले एक दशक के दौरान हर सप्ताह मिलने की आदत पड़ चुकी है। ऐसा करना मजबूरी है जिसे अब और टाला नहीं जा सकता, लेकिन इतनी गारंटी जरूर देना चाहूंगा कि हमारे तेवरों में कमी नहीं प्रखरता आएगी। हम सत्ता और समाज के बीच एक मजबूत पुल बनने और अधिक सार्थक हस्तक्षेप करने वाली शक्ति बनने का पूरा प्रयास करेंगे। आशावादी इंसान हूं इसलिए पूरा यकीन है कि इस गारंटी को पूरा हम अवश्य कर दिखाएंगे। ऐसे समय में जबकि आर्थिक कारणों के चलते हमारी साप्ताहिक से मासिक पत्र बनने की मजबूरी सामने हो मुझे प्रेरणा दे रही है डॉ. शिव मंगल सिंह सुमन की कविता - 'तूफानों की ओर घुमा दे नाविक निज पतवार।' शायद इसका ताप आप तक भी पहुंचे-
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड़ में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
सागर की अपनी क्षमता है
पर मांझी भी कब थकता है
जब तक सांसों में स्पंदन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार।
लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड़ में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
सागर की अपनी क्षमता है
पर मांझी भी कब थकता है
जब तक सांसों में स्पंदन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार।
लेखक दीपक आजाद हाल-फिलहाल तक दैनिक जागरण, देहरादून में कार्यरत थे. इन दिनों स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सक्रिय हैं.
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