अनामी
शरण बबल
झारखंड
की राजधानी रांची शहर को खासकर युवकों द्वारा आजकल धोनी वाला रांची या धोनी का शहर भी कहा जाता है। मूलत: बिहारी होने के नाते रांची शहर को
लेकर मेरे मन में कभी भी कोई खास रोमांच नहीं रहा था। बिहारी होने के बाद भी सबसे
कम बिहार को ही मैने देखा है। इससे कहीं ज्यादा और कई कई बार यूपी हरियाणा पंजाब
को देखने का सुयोग मिला। बिहार में रहते रांची जाने का पहला मौका 1983 में मिला था।
इसके बाद रांची जाने के दो एक मौके और लगे जिसे जाना या न जाना भी कहा जा सकता है।
पिछले
साल सितम्बर माह में रहने के ख्याल से पहुंचा तो शहर के चारो तरफ रांची के छोरा पर
बनी एमएस धोनी:
द अनटोल्ड
स्टोरी के पोस्टर लगे थे। झारखंड के सबसे पुराने और प्रतिष्ठित अखबार रांची
एक्सप्रेस में बतौर संपादक मैं अभी लोगों से मिल ही रहा था कि धोनी को लेकर अखबार
के दफ्तर में चर्चों का बाजार गरम सा पाया। धोनी के कोच चंचल भट्टाचार्य को लेकर
मेरे मन में भी बड़ा सेलेब्रेटी वाला आकर्षण था, और रांची एक्सप्रेस के सहकर्मियों
से परिचित होते समय मैं उस समय दंग रह गया कि धोनी के कोच चंचल दा भी इसी अखबार
में खेल संपादक है। मैं पूरे जोश उल्लास और बेपनाह खुशी के साथ चंचल दा मिला। चंचल
दा की सरलता सादगी और विनम्रता मुझे हमेशा चौंकाती। उनका सादा जीवन और स्टारडम से
दूर रहना मुझे भी भाया। उनकी यह सादगी मुझे लगातार यह प्रेरणा भी देती कि स्टार को
पैदा करने वाला कोई कोच स्टार बनकर काम नहीं कर सकता। एक गुरू को हमेशा शांत
निर्मल और सबके लिए एक समान बने रहना ही जरूरी होता है। स्टार बनकर तो कोई कोच फिर
कोई नया धोनी पैदा नहीं सकता। आज तो ज्यादातर लोग थोडा सा धन और शोहरत पाते ही
बोलचाल का लहजा अपना चाल चलन चेहरा और चरित्र तक बदल डालते हैं। मगर वहीं एक स्टार
गुरू तो हमेशा सादा गुरू ही था। तभी तो स्टारों को ही पैदा करेगा। बच्चों को निखारेगा।
चंचल
दा के साथ अक्सर दर्जनों बाल खिलाडियों की फौज भी रांची एक्सप्रेस के दफ्तर में
आती रहती थी। दो बार तो चंचल दा के संकेत पर न जाने कितने और किन किन खेल के उभरते
खिलाडियों नें संपादक जी के पैर छूए। जानता तो मैं किसी को नहीं था पर उनके उज्जवल
भविष्य और नेशनल प्लेयर बनने की शुभकामनाएं देने के सिवा मेरे पास और कुछ भी नहीं
था। जिसे मैने पूरी उदारता से सभी बच्चौं के सिर पर हाथ रखकर दे दिए।
लगता
है मानो एक जमाने में रांची एक्सप्रेस का दफ्तर भी क्रिकेट का कहवाघर सा रहा होगा।
जहां पर क्रिकेट के बहसों का बाजार गरम रहा करता होगा। एक तरफ धोनी के कोच शांत
नरम दिल बहुत ही सौम्य से चंचलजी तो दूसरी तरफ अपने जमाने के तूफानी बल्लेबाज रहे
त पन दोर्राई थे। जिनकी लप्पेबाजी की गूंज और धमक सालों बीत जाने पर भी बनी हुई है।
65 साल के सबसे यंग सबसे अनुभवी पत्रकार के साथ क्रिकेटर कमेंटेटर और मल्टी सब्जेक्ट
पर अधिकार रखने वाले उदय वर्मा थे। बकौल वर्मा तपन मूलत: हिटर था, मगर गेंद को उठाकर मारने
की बजाय कम उच्चाई पर सीधे छक्का चौक्का मारने का कमाल केवल तपन ही करता था।
धोनी
के बारे में रांची शहर के ज्यादातर लोगों के पास कोई न कोई अपना निजी किस्सा कहानी
अनुभव मिलेगा। उदय जी के अनुसार स्टेडियम में हमलोग खेलते थे तो धोनी गेंद उठाकर
लाने या पानी पीलाने के लिए या कोई न कोई बहाने साथ रहना चाहता था। लंबे लंबे बाल
के कारण यह सबों का प्यारा भी था। धोनी की शरारतों पर रौशनी डालते हुए उदय जी ने
बताया कि अमूमन वो स्कूल से सीधे मैदान में आता था तो कई बार हमलोगों के लंच खा
लेता और बड़ी मासूमियत से बता भी देता था। धोनी के खेल के बारे में कहा कि यह
अनगढ़ खिलाडी था। समय की मांग के साथ खुद धोनी ने खुद को बदला और विकेटकीपिंग की
परम्परागत तरीके से अलग अपनी एक शैली विकसित की। बल्लेबाजी का भी यही हाल रहा,
खासकर हेलीकॉप्टर शॉट जिसे धोनी शॉट की तरह भविष्य में मान लिया जाएगा। यह शॉट
धोनी का अविष्कार है। शहरी खिलाडियों की तरह धोनी कॉपीबुक स्टाईल का प्लेयर ना
होकर अपने अदांज में शॉट की नयी परिभाषा लिखने वाला खिलाडी है ।
एक
तरफ अक्टूबर के पहले हफ्तें में धोनी रिलीज होने वाली थी तो लगा मानो पूरे शहर में
उन्मादी हालत है। धोनी को गरियाने वाले भी काफी लोग मिले, मगर उन लोगों की भी तादात
कम नहीं थी जो धोनी के स्टार बनने के बाद रांची शहर को एक जंपिग पैड सिटी की तरह
देखते हैं। मुझे भी यह जानकर हैरानी हुई कि दिल्ली समेत आसपास, के कई राज्यों के
दर्जनों लड़के आज रांची में ही कहीं न कहीं पर किसी न किसी से कोचिंग लेकर धोनी
बनने का सपना देख रहे है। धोनी के बहाने रांची में कोडिंग का बाजार भी काफी गरम
है। खिलाड़ी रह चुके करीब एक दर्जन पूर्व किलाडी कोचिंग अकादमी में कहीं न कहीं
आगे पीछे से अपवी सेवाएं दे रहे हैं। रांची के कई खिलाड़ी तो आजकल दिल्ली के कई
स्कूलों में बतौर कोच अपनी सेवा देने में लगे हैं।
रांची
एक्सप्रेस की तिकड़ी किसी मल्टीप्लेक्स में धोनी के पहले शो के बाद दफ्तर में आकर फिल्म
की ही चर्चा कर रहे थे। उदय जी ने मुझे भी शो देखने का न्यौता दिया था। धोनी के
कोच चंचल दा अमूमन धोनी को लेकर खामोश ही रहते थे। बाद में पता लगा कि पैसा कमाने
में धोनी आज भले ही अरबों में खेल रहे हो, मगर धोनी पर ही चंचल दा के हजारों रूपए
आज भी बाकी है, जिसे डूबा हुआ ही माना जाए। अलबता धोनी आज भी चंचल दा के पैर छूकर
ही अपना सम्मान जताता है। केवल धोनी के कोच के कारण ही रांची में इनकी धमक भी है। फिर
धोनी ही क्यों झारखंड का शायद ही कोई
खिलाड़ी ( किसी भी खेल का क्यों ना हो) दर्जनों ओलंपियन भी चंचल दा के चहेते है। चंचल
दा की वजह से मैं भी दर्जोनों खिलाडियों से मिला और देखा। वरिष्ठ पत्रकार उदय
वर्मा जी ने बताया कि सिनेमा में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे इसको धोनी का सही चित्रण
माना जाए। चूंकि यह सिनेमा है इस कारण इसकी पटकथा में सफलता वाले आईटम को ही
प्रमोट किया गया। रांची की पृष्ठभूमि पर धोनी की कहानी है मगर सिनेमा में रांची
शहर ही नदारद है। धोनी के जीवन के असली पात्रों का न दिखाया जाना भी इसका सबसे
कमजोर पक्ष है। मगर सिनेमा कैसी है इस पर बहस करने की बजाय यह माना जाना चाहे कि
यह आज के एक सबसे लोकप्रिय खिलाड़ी की स्टोरी है, लिहाजा धोनी चलेगा धोनी के नाम से
सिनेमा चलेगी। फिल्म से ज्यादा धोनी का
नाम चल रहा है। और इसतरह के बॉयोपिक पिक्चरों की यही खासियत भी होती है।
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