सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

वे जिन्हें कोई नही जानता!

आलोक तोमर , एडिटर, डेटलाइन इंडिया
देश भर के अखबारों और छोटे बड़े मझोले टीवी चैनलों में संपादक से ले कर प्रोड्यूसर तक के नाम पर एक प्रजाति होती है और उसका नाम है स्ट्रिंगर। अब काम चलाऊ इज्जत देने के लिए इन लोगों को संवाद सहयोगी या संवाददाता कहा जाने लगा है। ये वे लोग है जो कस्बों और देहातों यानी असली भारत से शेष भारत और दिल्ली में बसे इंडिया तक सच पहुंचाते हैं। मगर इन पत्रकारों का सच कितने लोग जानते हैं।
 
चंबल घाटी के एक कस्बे में दिल्ली और उस समय के बंबई में स्ट्रिंगर रह चुकने के बाद, ग्वालियर के एक क्षेत्रीय अखबार में काम कर चुकने के बाद, दिल्ली में यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया जैसे बड़ी एजेंसी से शुरू कर के पता नहीं कितने समाचार पत्र समूहों और टेलीविजन चैनलों से गुजरने के बाद यह तथ्य मेरे सामने खुला हुआ है कि स्ट्रिंगर के बगैर किसी भी संवाद संगठन का काम भी नहीं चलता और यही वर्ग किसी भी बड़े टीवी चैनल क्षेत्रीय हो या राष्ट्रीय, समाचार पत्र या पत्र समूह का सबसे उपेक्षित पात्र होता है।
 
कई क्षेत्रीय अखबार तो अपने एजेंटो को ही संवाददाता नियुक्त कर देते है। एक जमाना था जब ये एजेंट- संवाददाता जिन बसों से अखबार ढोए जाते थे, उन्हीं के कंडेक्टरों के जरिए खबरे भिजवाते थे। ये खबरे आम तौर पर सिर्फ सूचना होती थी और इन्हें दोबारा लिखना पड़ता था। अब संचार क्रांति के साथ यह सुविधा हो गई है कि फोन और इंटरनेट हर जिले में पहुंच रहे हैं जहां से खबर सीधे ई मेल पर आती है और अगर कोई जानकारी चाहिए तो फोन करने में आसमान छूने वाला खर्चा नहीं होता। ज्यादातर प्रदेशों में तो अब मोबाइल कंपनियों ने लोकल कॉल की सुविधा देना शुरू कर दिया है।
 
सबसे पहले तो यह कि यह स्ट्रिंगर शब्द अंग्रेजों के जमाने का है। उस समय सिर्फ संवाददाता ही नहीं, बल्कि उप संपादकों का काम भी एक धागे से नाप कर तय किया जाता था और उसी के आधार पर मेहनताना मिलता था। बाद में संवाददाताओं और उप संपादकों आदि को काम पर रखने की परंपरा चलने लगी मगर जिलों में या तहसीलों में बैठे जो पत्रकार थे वे बेचारे स्ट्रिंगर ही रह गए। आज कल धागे से नाप कर भुगतान नहीं किया जाता। आम तौर पर तो भुगतान अदृश्य या अनिश्चित होता है और मिलता भी है तो इतना कम कि उससे ज्यादा पैसा तो अखबार बेचने वाला कमा लेता है।
 
जिले में संवाददाता होने के बहुत जोखिम हैं। आर्थिक असुरक्षा के अलावा देश के स्तर पर जो लोग सांसदों, मंत्रियों और सचिव स्तर पर बात करते हैं वे अंदाजा नहीं लगा सकते कि जिले में बैठे पत्रकार को हवलदारों, थानेदारों और तहसीलदारों से कैसे जूझना पड़ता है और जितनी हैसियत दिल्ली के पत्रकारों के लिए प्रधानमंत्री की राज्य की राजधानी के पत्रकारों के लिए मुख्यमंत्री की नहीं होती उससे ज्यादा हैसियत जिले के पत्रकारों के लिए जिले के कलेक्टर और एसपी की होती है।
 
जब से टीवी चैनलों का चलन आया है तब से स्ट्रिंगर यानी दूर दराज के इलाकों में बैठे पत्रकारों की संख्या और बढ़ गई है। इन पत्रकारों को चैनलों से कोई आधारभूत सुविधा नहीं दी जाती। कैमरा भी वे खुद ही खरीदते है और यही उनके चैनल के साथ जुड़ने की आधारभूत शर्त होती है। चैनल में आउटपुट संपादक एक झटके में उन्हें फोन करता है, वे एफटीपी नामक इंटरनेट सुविधा या जिस तरीके से संभव हो, फुटेज भेजते हैं, खबरे बन भी जाती है, चल भी जाती है और ज्यादातर मामलों में भुगतान के लिए कम से कम छह महीने इंतजार करना होता है। यही वजह है कि जिलों में ज्यादातर संवाददाता एक नहीं, चार चार चैनलों के पहचान पत्र ले कर घूमते हैं और एक ही खबर अलग अलग अंदाज में चैनलों को भेज दी जाती है।
 
कहने को यह तरीका अनैतिक माना जा सकता है लेकिन सही बात तो यह है कि इसके अलावा उनके पास कोई विकल्प है भी नहीं। कैमरा तक वे कर्ज ले कर खरीदते हैं और उसे चुकाने के लिए कहीं ने कहीं से पैसा तो चाहिए। एक और कमाल यह भी है कि चैनल की ओर से किसी भी प्रोड्यूसर या अन्य अधिकारी के चाचा के भतीजे के साले के ताऊ जी अगर स्ट्रिंगर के इलाके में आ रहे हैं तो सेवा सत्कार भी उसी के जिम्मे होता है। इसका कोई भुगतान नहीं होता।
 
पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहने का रिवाज बन चुका है। जैसे सच बोलना अच्छी बात है यह कहने का रिवाज होता है। न तो पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा खंभा है और न पत्रकारिता के बारे में पूरे सच बोले जाते है। स्ट्रिंगर पर अनैतिकता का इल्जाम लगाने के पहले क्या कोई उन चैनलो से सवाल करेगा जो अपना परिचय पत्र बाकायदा बेचते हैं और जिला संवाददाता बनाने के लिए भी अच्छी खासी रकम वसूल कर लेते हैं?
 
भारत में पत्रकारिता का दायरा और असर लगातार बढ़ रहे हैं लेकिन इसका सीधा नतीजा नीचे तक नहीं पहुंचता। यह वैसे ही है जैसे अपना देश लगातार विकास कर रहा है। मगर जमीन का आदमी अब भी जमीन पर ही पड़ा है और उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। आज तक आपने कभी किसी जिला संवाददाता को पत्रकारिता के लाखों रुपए के सम्मान मिलते हुए सुने है। यह सम्मान तो महा नगरों में पुण्य- प्रसाद के तौर पर बंट जाते है।

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