मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

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सभ्य मोहल्ला और एक बदचलन की मौत

: वह तो मुसलमान ही था जो इन बच्चों का पेट पाल रहा था, इससे पहले पंजाबी से भी इसीलिए शादी की क्योंकि बिहारी कुछ करता ही नहीं था, सिवाय बच्चा पैदा करने के... : परसों की बात है। दिन के करीब दस बज रहे थे। दुबारा लौट आयी ठंड के बाद मेरी हिम्मत ठंडे पानी से नहाने की नहीं हुई तो सोचा क्यों न धूप में खड़े होकर थोड़ा गरम हो लिया जाये। धूप की गरमी से अगर हिम्मत बंध गयी तो नहा लूंगा, नहीं तो कंपनियों ने महकने का इंतजाम तो कर ही रखा है।
यह सोचकर मैं बालकनी से लगकर सड़क की हरियाली देखने लगा। तभी एक आटो आकर रुका। उसमें से दो औरतें उतरीं। आगे वाली औरत उतरते ही छाती पीटते हुए गला फाड़ रोने लगी। आवाज लोगों के घरों तक पहुंची तो सेकेंडो में सभी घरों की बालकनी बच्चों और महिलाओं से भर गयी। काम पर नहीं गये कुछ मेरे जैसे मर्द भी झांकने लगे। जिनके कमरे नीचे के फ्लोर में थे, वो रोने वाली के आसपास मंडराने लगे। मेरी मां से नहीं रहा गया तो वह नीचे मौका-मुआयना करने के लिए चल दी।
मां के नीचे जाते देख बीबी ने पूछा, कहां जा रही हैं? मां जवाब दिये बगैर चलते बनीं तो सामने से पड़ोसी की बीबी ने कहा, ‘ये देहात से आयी हैं, इसलिए वो तो जाये बिना नहीं मानेंगी। मेरी सास भी ऐसी ही हैं।’ इस बीच दहाड़ मारती औरत आटो से आगे बढ़ते हुए अपने कमरे की ओर चिल्लाते हुए चल पड़ी, ‘अरे हमार बछिया कौन गति भईल तोहार (ओह, मेरी बेटी तेरा क्या हाल हुआ)।’ मेरी बीबी ने उसकी आवाज सुन मुझसे कहा- जरा सुनना तो क्या कह रही है भोजपुरी में। मैं अभी कुछ कहता उससे पहले ही कोने वाली मकान मालकिन अपनी बालकनी से बोल पड़ीं, ‘बिहार की हैं- छपरा की।’ फिर मैंने कहा, ‘उसकी बेटी को कुछ हुआ है।’
अब उस औरत के रोने-घिघियाने की आवाज शब्दों में बदल चुकी थी। सड़क से ग्राउंड फ्लोर और ग्राउंड फ्लोर से फर्स्ट फ्लोर होते हुए हम तक बड़ी जानकारी ये आयी कि रोने वाली औरत की बेटी की लाश चार दिन से किसी सरकारी हॉस्पीटल में पड़ी है। बड़ी जानकारी मिलते ही क्यों...क्यों...क्यों, की आवाज तमाम बालकनियों और फ्लोरों पर गूंजने लगी।
अबकी बड़ी जानकारी का विस्तार आया। वह इस प्रकार से कि रोने वाली औरत की मरने के बाद सड़ रही बेटी चार बच्चों की मां है और वह गली की चौथी मकान में बायें तरफ किराये पर रहती है। इसी मकान में रहते हुए एक सप्ताह पहले बीमार हुई तो किसी ने ले जाकर सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया था और मरने के बाद वहीं पड़ी है। इसके बाद यह सवाल उठा कि क्या वह औरत अकेले ही अस्पताल गयी थी। इस सवाल पर जवाब मिला, ‘नहीं। बीमारी की हालत में औरत ने किसी को फोन कर बुलाया था और वही उसे अस्पताल ले गया था। मगर ईलाज के दौरान औरत मर गयी तो वह छोड़कर भाग गया। तबसे लाश अस्पताल में ही पड़ी है। और, मृत औरत का कोई खोज-खबर रखने वाला नहीं आया तो अगले दिन अस्पताल प्रशासन ने पुलिस को सूचना दी। मौके पर पहुंची पुलिस ने खोजबीन में औरत के पास से मिले कागज पर लिखे मोबाइल नंबर को मिलाया। पता चला मोबाइल नंबर मृत महिला के पति का है और वह बिहार के छपरा जिला के किसी ब्लॉक का रहने वाला है।'
अब बालकनी पर खड़े मुझ जैसे दुखितों का इंट्रेस्ट सस्पेंस में था कि चार बच्चों की मां, ऊपर से बीमार और चार दिन से अस्पताल में पड़ी सड़ रही और पति यहां से हजार-बारह सौ किलोमीटर दूर पड़ा। आखिर माजरा क्या है? तो अब माजरे की पुख्ता जानकारी कुछ इस प्रकार से पसरी- ''दरअसल जो आदमी उसे अस्पताल में भरती कराने ले गया था वह उसका तीसरा और अंतिम पति था। इससे पहले वह करीब तीन साल एक पंजाबी के साथ रही थी, जबकि शादी उसकी छपरा वाले से हुई थी जो अब उसके मरने के बाद उसकी मां को लेकर दिल्ली आया था।''
यह विशेष जानकारी नीचे वाली चाची ने दिया। बकौल चाची- ''थोड़े दिन पहले एक पंजाबी बैग लेकर आया था और उनसे कह रहा था कि वह अपना बच्चा लेने आया है।'' उसने चाची को यह भी बताया कि चैथे नंबर का बच्चा उसी का है और सिर्फ वह उसी को ले जाने आया है। पंजाबी से ही चाची को पता चला था कि चार बच्चों की मां बीमार है और अस्पताल में भर्ती है। तभी किसी महिला ने चाची से पूछ लिया, ‘यानी उसे जो अस्पताल ले गया था वह न पंजाबी था न बिहारी। फिर वह कौन था।’ इसका जवाब एक दूसरी महिला ने दिया जिसके होंठ खूनी आत्माओं की तरह टहटह लाल हो रहे थे- ''अरे वह एक मुसलमान था जिसके साथ वह पिछले कुछ महीनों से रह रही थी।''
इसके बाद बालकनी दुखितों ने हां-हूं करते हुए उस औरत के अस्पताल में सड़ने को भगवान का जायज फैसला माना और औरत की मौत को एक बदचलन की महिला को पापों की मिली सजा से हुई मौत करार दिया। हालांकि उसे जानने वाली एक औरत ने ऐसा कहने पर ऐतराज जताया। कहा भी अगर वह दूसरी-तीसरी शादी नहीं करती तो उसके चार बच्चों की लाश यहां भूख से पड़ी रहती। वह तो मुसलमान ही था जो इन बच्चों का पेट पाल रहा था। इससे पहले पंजाबी से भी इसीलिए शादी की क्योंकि बिहारी कुछ करता ही नहीं था, सिवाय बच्चा पैदा करने के।
बहस थोड़ी और आगे बढ़ी तो पता चला बिहारी पहले किसी रबर की फैक्ट्री में काम करता था मगर काम छूट जाने के बाद पिछले तीन वर्षों से उसे काम ही नहीं मिला। सड़ रही लाश के पक्ष में बोलने वाली महिला ने आगे कहा, ‘किसी की जवानी नहीं फटती है कि वह बेवजह इस गोद से उस गोद में कूदे। बच्चों का मुंह देख लोग पता नहीं क्या-क्या करते हैं।’
तभी किसी ने फिक्र बिखेरी, ‘बेचारे बच्चों को कौन देखेगा।’ बच्चों की बात आयी तो पता चला दो बेटियां और दो बेटे हैं। सबसे बड़ी बेटी करीब 12 साल की है और बाकी सभी बच्चे उससे छोटे हैं। सामने वाले की बीबी ने नीचे परचून की दूकान के पास इशारा कर दिखाया, ‘बड़ी बैठी है उसकी बड़ी बेटी। बाकी तीनों भाई-बहनों को चाय मट्ठी खिला रही है।’ इस दृश्य को महत्वपूर्ण मान सभी ने बालकनी से सिर झुका-झुका कर चाय-मट्ठी का लाइव देखा।
अब बारी लाश को फूंके जाने के बहस को लेकर थी। सड़ रही लाश की मां ने बेटी को एक बार देखने की इच्छा जाहिर की और कहा उसे घर लाया जाये। इस पर सभी बिपर पड़े। तमाशबीनों ने करीब आदेशात्मक ढंग से कहा, ‘सड़ी हुई लाश मुहल्ले में क्यों लानी है, पहले से क्या बिमारियां कम हैं।’ कुछ ने कहा, उस बदचलन ने ऐसा कौन सा महान काम किया है कि अंतिम दर्शन को लाया जाये। आखिरकार तय हुआ कि लाश को अस्पताल से सीधे मशान ले जाया जायेगा।
इस प्रस्ताव पर अस्पताल जाने को लिए दो-चार लोग तैयार हो गये। तैयार होने वालों में मानद पति के क्षेत्र और जाति के लोग थे। इसके अलावा जो लोग मौके पर पहले से खड़े थे, उन्होंने नौकरी या अन्य जरूरी कामों का वास्ता देकर जा पाने में असमर्थथा जाहिर की। हालांकि चलन में ऐसा नहीं है। गाड़ी का इंतजाम हो जाने पर अंतिम संस्कार में जाने वालों से गाड़ी आमतौर पर भर जाती है।
खैर! अब हमारे बीच से सड़ी लाश को राख हुए दो दिन बीत चुके हैं और राख का मानद पति ‘छपरा वाला’, राख का कर्मकांड करने गांव जा चुका है। इस बीच मुहल्लेवालों ने महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाते हुए मानद पति को ‘रखवाला’ का तमगा दे, राख के बाकी दो पतियों को मजावादी करार दे दिया है। मानद के जाते-जाते एक औचक सवाल मुहल्ले वालों ने उसके लिए जरूर छोड़ा था, ‘मानद, क्या कभी चारों बच्चों में से किसी एक पर भी अपनी औलाद होने का फक्र कर सकेगा।’
और इसी सवाल के साथ कहानी का इंड हो गया था। लोग बालकनी से इस सकून के साथ वापस लौटे थे कि एक बदचलन औरत के मरने, सड़ने और अंततः राख होने में मुहल्ला भागीदार नहीं हुआ और सभ्य बना रहा।
लेखक अजय प्रकाश छात्र राजनीति, मजदूर आन्दोलन से होते हुए पिछले छह वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं. फिलहाल हिंदी पाक्षिक पत्रिका 'द पब्लिक एजेंडा' में वरिष्ठ संवाददाता और जनज्वार डॉट कॉम के माडरेटर के तौर पर काम कर रहे हैं. इनसे ajay.m.prakash@gmail.com This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it के जरिए संपर्क किया

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