सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

aalok tomar/ गुमशुदा संपादक की तलाश

गुमशुदा संपादक की तलाश

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आलोकतोमर , संपादक, डेटलाइन इंडिया
एक सवाल जो पूछने में भी डर लगता है वह कई लोगों को विचित्र नजर आएगा। सवाल यह है कि हिंदी पत्रकारिता में संपादक नाम की प्रजाति का और खास तौर पर प्रिंट मीडिया में लोप क्यों होता जा रहा है? राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी के बाद दो चार नामों के अलावा आप शुद्व संपादकों की गिनती नहीं कर सकते। बाकी संपादक अशुद्व नहीं हैं लेकिन या तो खुद मालिक हैं या उन्हें अखबार चलाने का इंतजाम भी करना पड़ रहा हैं जिसकी वजह से विचार और विमर्श की जगह अर्थशास्त्र और प्रबंध विज्ञान ले लेते हैं।
 
इसकी एक वजह शायद यह है कि अखबार, आप माने या न माने, असल में उपभोक्ता वस्तुओं में शामिल हो गया है। लोकतंत्र का चौथा, पांचवा, छठवां खंभा पत्रकारिता को सिर्फ आंदोलनों और शोक सभाओं में कहा जाता है। वरना अखबार चलाने वाली संस्थाओं को भी प्रतियोगिता से ले कर बाजार में अपने आपको स्थापित करने और बनाए रखने की चिंता होती है और वह चिंता नाजायज नहीं है।
 
इसके अलावा सबसे बड़ी बात यह है कि जब से अखबारों को दिन रात बढ़ते टीवी चैनलों से मुकाबला करना पड़ रहा है और धंधे में दृश्य जीतता है तब से संपादक और अखबार के व्यावसायिक संरक्षक की भूमिका मिला दी गई है। यही वजह है कि ज्यादातर संपादक जब मुख्यमंत्रियों और उद्योगपतियों से मिलते हैं तो खबर- समाचार के अलावा विज्ञापनों और प्रायोजनों की भी बात कर लेते हैं। कई समाचार पत्र समूह हैं जिनके सहायक उद्योग भी हैं। इस सिलसिले में सबसे बड़ा उदाहरण इंडियन एक्सप्रेस समूह के संस्थापक रामनाथ गोयनका का दिया जा सकता है जिन्होंने अखबार चलाए रखने के लिए एक ऐसा फार्मूले का अविष्कार किया कि उसे बाद में कई अखबार मालिकों ने अपनाया।
 
रामनाथ गोयनका ने चेन्नई से शुरू कर के कोलकाता तक पूरे देश में संपत्तियां खरीदी। जहां मौका मिलता था और सौदा जमता था, रामनाथ जी जमीन या इमारत खरीद लेते थे। इंडियन एक्सप्रेस समूह के शायद ही कोई ऐसे कार्यालय हो जो किराए की भारत में चल रहे हैं। मुंबई के एक्सप्रेस टॉवर्स, दिल्ली की एक्सप्रेस बिल्डिंग और बंगलुरु और चेन्नई की एक्सप्रेस एस्टेट अपने आप में पूरे समूह को बगैर किसी बाहरी मदद के चलाए रखने में कामयाब है। इसीलिए रामनाथ गोयनका प्रधानमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों से जब चाहा, पंजा लड़ा सके और जन आंदोलनों को समर्थन देने और प्रायोजित करने वाले अकेले अखबार मालिक वे ही थे। एक्सप्रेस समूह को पेड न्यूज के धंधे में भी इसीलिए नहीं पड़ना पड़ा।
 
ऐसे में संपादकों को आजादी मिलती ही है। यह संपादकीय आजादी जरूर उतनी ही होती है जितनी एक सचेत मालिक चाहे। लेकिन समाचार और विचार पर संस्था की नीति के तहत एक सीमा में अपने आप पर निषेध लगा कर संपादक काम करते भी रहे हैं और उन्हें महान संपादकों की श्रेणी में गिना भी जाता रहा है। अब गणेश शंकर विधार्थी, विष्णु पराडकर या माखन लाल चतुर्वेदी का जमाना नहीं है। इनकी तस्वीरों पर मालाएं चढ़ चुकी है। लेकिन जमाना चाकर संपादकों का भी नहीं है। समाचार और विचार के बीच जो संतुलन और पाठक के प्रति जो जिम्मेदारी संपादक शब्द में ही निहित है, उसे निभाए बगैर आप कैसे काम चला सकते हैं? गणेश शंकर विधार्थी, पराडकर और माखन लाल चतुर्वेदी अपने अपने अखबारों के मालिक भी थे। उन्हें अखबार चलाने के लिए चंदा जमा करने से ले कर विज्ञापन, जिन्हें तब इश्तिहार कहा जाता था, का भी इंतजाम करना पड़ता था। लेकिन ये लोग साथ में अंग्रेज सरकार से लड़ भी रहे थे। इनके अखबार हजारों और लाखों में नहीं बिकते थे लेकिन इनका असर गजब का था।
 
भारत के सबसे प्रभावशाली पत्रकारों और संपादको में अगर किसी की गिनती करनी हो तो आसानी से महात्मा गांधी का नाम लिया जा सकता है। जिन्हें यह अटपटा लग रहा हो वे किसी संग्रहालय या पुस्तकालय में जा कर महात्मा गांधी द्वारा संपादित कई अखबार देख सकते हैं। जो अखबार पांच हजार से ज्यादा नहीं छपता हो और जिसमें विज्ञापन होते ही न हो, उसमें लिखा हुआ एक संपादकीय पूरे देश में आंदोलन खड़ा कर दे या चल रहे आंदोलन को रोक दे यह कमाल सिर्फ अखबार का नहीं, संपादक की नैतिक शक्ति का भी होता है। महात्मा गांधी में यह शक्ति थी।
 
अखबार चलाना बच्चों का खेल नहीं हैं। कागज महंगा आता है, स्याही के दाम बढ़ गए हैं, आधुनिकतम ऑफसेट मशीने हवाई जहाज की तरह महंगी हैं, पत्रकारों का बाजार भी अब अपनी सही कीमत मांगता हैं, लेकिन ये सब वे बहाने नहीं हो सकते जिनकी वजह से यह कहा जाए कि आज अखबारों को संपादक नहीं चाहिए। संपादक के सक्रिय और सार्थक हस्तक्षेप के बगैर निकलने वाला अखबार राजपत्र के अलावा कुछ नहीं हो सकता।

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