दस्तक
टैक्स की रामकहानी
पी. के. खुराना
राजाओं-महाराजाओं के समय से ही विश्व भर में टैक्स की परंपरा रही है। उसका नाम चाहे कुछ भी हो, रूप चाहे कुछ भी हो, लगान यानी टैक्स सदा से सभ्य समाज का हिस्सा रहे हैं। सरकार चलानी है तो सरकार चलाने पर खर्च भी होगा। खर्च होगा तो खर्च की भरपाई के लिए आय होनी चाहिए और सरकार के पास आय के तीन प्रमुख साधन हैं - पहला, सरकारी संसाधनों और परिसंपत्तियों से आय, दूसरा, सरकारी सेवाओं और उत्पादों से आय, और तीसरा, टैक्स से आय। सरकार को होने वाली आय, सरकार चलाने के खर्च के बाद जनहित के कार्यों पर लगती है। हम सभी यह भी जानते हैं कि बहुत सी सरकारी सेवाएं और सरकारी उपक्रम, सिर्फ सरकारी होने के कारण ही घाटे में चलते हैं। सरकार द्वारा किये जाने वाले कार्यों में सामुदायिक वितरण प्रणाली, रोजगार की योजनाएं, स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा सेवाएं, परिवहन सेवाएं, व्यापार विकास सेवाएं, शोध कार्यों पर होने वाला खर्च, रक्षा सेवाएं, कानून-व्यवस्था सेवाएं, खाद्य-पदार्थों, खाद व पेट्रोलियम पदार्थों एवं विभिन्न सेवाओं पर सब्सिडी आदि के खर्च शामिल हैं। ये सब महत्वपूर्ण खर्चे हैं जिन्हें पूरा करने के लिए सरकार के पास आय के निश्चित स्रोत होना आवश्यक है।
क्या आपने कभी सोचा है कि आपको कुल कितना टैक्स देना पड़ता है? लगभग हर व्यक्ति इन्कम टैक्स देता है, इसके अलावा विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं की खरीद पर आप वैट या सर्विस टैक्स भी देते हैं। आप रोड टैक्स देते हैं, प्रॉपर्टी टैक्स देते हैं, हाइवे पर चलने के लिए टोल टैक्स देते हैं, कुछ राज्यों में प्रवेश के लिए आप एंट्री टैक्स देते हैं, आपको कुछ उपहार में मिले तो आप गिफ्ट टैक्स देते हैं। व्यवसायियों, उद्यमियों, और कॉरपोरेट कंपनियों को कई और तरह के टैक्स भी देने होते हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष टैक्स के इतने प्रकार हैं कि आप अपनी आय का 50 से 70 प्रतिशत तक, जी हां, 50 से 70 प्रतिशत तक टैक्स में दे डालते हैं लेकिन चूंकि बहुत से टैक्स आपकी जेब में आपकी आय आने से पहले ही कट जाता है, इसलिए आपको उसका पता भी नहीं चलता।
सिर्फ सर्विस टैक्स की ही बात करें तो एक समय ऐसा भी था जब इस एक अकेले टैक्स पर भी सरकार की ओर से 1300 के लगभग सर्कुलर जारी किये गए थे। आप समझ सकते हैं कि इतने सर्कुलरों में बंटे हुए नियमों को कोई वकील या सीए भी नहीं याद रख सकता। सरकार नये-नये मदों को सर्विस टैक्स के दायरे में ला रही है। यदि आप अपनी कार से चंडीगढ़ से दिल्ली जा रहे हैं तो आपको साधारण बस के किराये जितना तो टोल टैक्स देना पड़ जाता है।
देश में भ्रष्टाचार के लिए टैक्स सबसे ज्यादा बड़ा कारक है। टैक्स की दर जितनी अधिक होगी, टैक्स चोरी उतनी ज्यादा होगी। आप कोई भी संपत्ति खरीदना चाहें तो आपको उसका बहुत बड़ा हिस्सा ब्लैक में देना पड़ता है। आम आदमी शायद इसके घातक परिणाम से वाकिफ नहीं है। काले धन की यह समस्या इसलिए चिंता का विषय है कि यह धन बाद में अपराधियों, आतंकवादियों और देशद्रोहियों के काम आता है। इसी धन से महंगाई बढ़ती है, अपराध बढ़ते हैं और आम आदमी की जिंदगी खतरे में पड़ती है। यही कारण है कि काला धन भारी चिंता का विषय है।
हमारे देश में काले धन की समस्या के बारे में 1955-56 में ही बहस शुरू हो गई थी और तब यह सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का 4-5 प्रतिशत आंका गया था। 1995-96 में यह बढ़ कर 40 प्रतिशत हो गया और 2005-06 में यह 50 प्रतिशत के आस-पास था। पिछले 50 वर्षों में यह एक समानांतर अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित हो गया है। हर साल देश में करीब 35 लाख करोड़ रुपये की ब्लैक इकनॉमी तैयार होती है और इसका तकरीबन 10 प्रतिशत यानी करीब तीन लाख करोड़ सालाना काले धन के रूप में मॉरीशस, बहमास और स्विटज़रलैंड जैसे देशों में जमा होता जा रहा है।
टैक्स की चोरी, सीमा शुल्क की चोरी, अचल संपत्ति के लेन-देन में टैक्स की चोरी, राजनीतिक भ्रष्टाचार, नौकरशाही का भ्रष्टाचार, धार्मिक संस्थाओं को दान और अवैध तथा आपराधिक कारोबार काले धन के बड़े स्रोत हैं। देश से अवैध तरीके से धन को विदेश ले जाने और फिर उसे वहां से राउंड ट्रिपिंग के माध्यम से वैध तरीके से वापिस भेजने की प्रक्रिया और उसमें पार्टिसिपेटरी नोट की भूमिका भी अपराध को जन्म देती है। टैक्स की ऊंची दर इसका एक बड़ा कारण है।
केंद्र अथवा राज्य सरकारों की ओर से टैक्स से होने वाली आय का कोई हिसाब-किताब नहीं दिया जाता कि किस मद से कितना टैक्स आया और उसे किस प्रकार खर्च किया गया। यह इतना बड़ा गोल-माल है कि आम आदमी तो इस चक्कर में सिर्फ घनचक्कर ही बनता है। एक छोटे से उदाहरण से आप इसे समझ सकते हैं। किसी भी राज्य को देख लें, धड़ाधड़ एक्सप्रेस हाइवे बन रहे हैं। करोड़ों रुपये टोल टैक्स के नाम पर वसूले जा रहे हैं। एक्सप्रेस हाइवे बन गया, बनते ही टोल टैक्स की वसूली शुरू। टैक्स देने वालों को पता नहीं कि हाईवे बनाने पर कितनी लागत आई, ये लागत कितने साल की टोल वसूली में निकल आएगी। सरकार इस बारे में कोई विवरण नहीं देती। यह एक तर्कसंगत सवाल है कि क्या वसूले जा रहे टैक्स का कुछ हिस्सा उस क्षेत्र के विकास पर खर्च हो रहा है जहां से टैक्स आ रहा है? जो लोग टैक्स अदा करते हैं, उन्हें यह पता नहीं चलता कि उनके लिए क्या किया जा रहा है।
टैक्स वसूलने की चिंता यदि सरकार को है तो संबंधित क्षेत्र के विकास की जिम्मेदारी भी उसे ही देखनी होगी। सरकार केवल खजाना भरने में लगी रहती है। सरकार के आय-व्यय में ईमानदारी, पारदिर्शता व न्याय-धर्मिता का सर्वथा अभाव है जिससे टैक्स की सार्थकता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। होना तो यह चाहिए कि वसूले गए टैक्स का आधा हिस्सा उस क्षेत्र के विकास पर लगे, जहां से टैक्स आया और लोगों को स्पष्ट दिखे कि उनका पैसा उनके क्षेत्र में लग रहा है। ऐसी व्यवस्था होगी तो कर चुकाने में किसी को तकलीफ नहीं होगी।
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