बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

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मीडिया मैनेजमेंट के बेताज बादशाह सज्‍जन

Wednesday, 23 February 2011 13:16 अनामी शरण बबल कहिन -

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दिल्ली के पूर्व सांसद सज्जन कुमार को दुर्ज्जन मानने या साबित करने का मेरे पास कोई ठोस तर्क सबूत या पुख्ता आधार नहीं है। सज्जन कुमार से मेरा कोई गहरा या घनिष्ठ सा रिश्ता भी नहीं रहा है। पिछले कई सालों से हमारी मुलाकात भी नहीं है। हो सकता है कि रोजाना सैकड़ों लोगों से मिलने वाले सज्जन कुमार को मेरा चेहरा या नाम भी अब याद ना हो। इसके बावजूद मीडिया मैनेजमेंट की वजह माने या इनके सहायक कैलाश का कमाल की सज्जन कुमार को सामने फोकस किए बगैर वह मीडिया के सैकड़ों लोगों की उम्मीदों पर हमेशा खरा उतरते हुए सज्जन की सज्जन छवि को कायम रखने में सफल है। मीडिया से परहेज करने वाले सज्जन को मीडिया में लोकप्रिय बनाए रखने में भी इसी कैलाश का हाथ रहा है।
आमतौर पर सज्जन के मन में मीडिया को लेकर ना कोई आदर है ना ही मीडियाकर्मियो से बड़ा प्यार दुलार ही है। इसके बावजूद दिल्ली के समस्त पत्रकारों  में सज्जन कुमार के प्रति ( तमाम आरोपों के बावजूद) सद्भाव वाला रिश्ता है। यही कारण है कि 1984 का मामला चाहे कोई भी करवट बदले, मगर अखबरों में सज्जन को लेकर हमेशा सहानुभूतिपूर्ण नजरिया ही रहा है।
बात हम सज्जन को लेकर 1996 चुनाव से शुरू करते है। पहली बार लोकसभा चुनाव कवर करने की वजह से मैं काफी उतेजित और उत्साहित था। सज्जन को लेकर मैंने पूरी तैयारी कर रखी थी। करीब एक माह तक लगातार खबरें देने की योजना के तहत मैने उन इलाकों को चुना, जहां पिछले पांच साल में सज्जन कभी दोबारा ताकने भी नहीं गए थे। सज्जन के सामने बीजेपी ने वरिष्ठ नेता कृष्ण लाल शर्मा को मैदान में उतारा। आमतौर पर माना जा रहा था कि चुनाव से पहले ही शर्मा को बलि का बकरा बनाकर बीजेपी ने घुटने टेक दिए। मगर मुख्यमंत्री साहब सिंह वर्मा एंड पूरी पार्टी ने चुनावी तस्वीर को ही दिन रात की मेहनत और लगन से बदल दिया।
एक तरफ चुनावी धूम तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय सहारा में एंटी सज्जन खबरों का दौर चालू हो गया। इन खबरों से इलाके में क्या असर पड़ रहा था, यह तो मैं नहीं जानता, मगर सज्जन एंड कंपनी खेमे में जरूर बैचेनी थी। दिन में कैलाश तो कभी भी बेसमय, सज्जन कुमार ने भी तीन चार बार फोन करके यह जरूर पूछा कि अनामी भाई क्या दुश्‍मनी है। मैंने पलटते ही कहा, 'सज्जन भाई दोस्ती कब थी?' एंटी खबरों पर हैरानी प्रकट की। इसकी सफाई में मुझे कहना पड़ा, 'भाईसाब, खबर गलत है, तो बताइए? चारा डालते हुए सज्जन ने कहा था अरे अनामी जी खबर चाहे जैसी भी हो, मगर असर तो पड़ता ही है। मानना पड़ेगा कि पूरे चुनाव के दौरान एंटी खबरों के बावजूद सज्जन या कैलाश ने फिर ना कभी टोका और ना शिकायत की। चुनाव खत्म हो गया और एक लाख 98 हजार वोट से सज्जन कुमार पराजित हो गए।
चुनाव के बाद सबकुछ  सामान्य सा हो गया था, मगर दो साल के भीतर ही एक बार फिर लोकसभा चुनाव सिर पर आ गया। चुनावी सिलसिला शुरू होने से काफी पहले ही एक बार फिर पत्रकारों को पटाने का खेल चालू हो गया। उस समय तक मोबाइल नामक खिलौने का इजाद इंडिया में नहीं हुआ था। सज्जन खेमे की तरफ से हर चार छह दिन के बाद कभी रेवाड़ी का गजक, तो सोनीपत का हलवा, तो कभी किसी और शहर की धमाल मिठाई का डिब्बा मेरे घर पर आने लगा।
कैलाश के इस गेम को मैं समझ रहा था। फोन पर तो मैंने मिठाई ना भेजने की गुजारिश की, फिर भी मेरे घर पर कम से कम सात आठ मिठाई के डिब्बे आ चुके थे। एक दिन दफ्तर में कैलाश से मुलाकात हो गई, तो मैंने इसका विरोध जताया। सज्जन से मेरा होली दीवाली का भी कोई नाता कभी नहीं रहा है, लिहाजा सबसे पहले मिठाईयों के डिब्बे भेजना बंद करें। इस पर कैलाश ने दो टूक कहा, 'अनामीजी भाईसाहब ने मुझे बस आपको मैनेज करने के लिए कहा है।' बकौल कैलाश, 'भाईसाहब ने कहा है कि तू केवल अनामी को फिक्स कर ले, मैं पूरी दिल्ली की मीडिया को मैनेज कर लूंगा।' एक सांसद का यह दावा कि मैं पूरी दिल्ली की मीडिया को मैनेज कर लूंगा। यह बात मुझे चुभ गई। फौरन इसका प्रतिवाद किया। 'कैलाश भाई, सज्जन भले ही पूरी दिल्ली की मीडिया को मैनेज कर लें, मगर वे अनामी शरण बबल को मैनेज नहीं कर सकते। मीडिया मेरे गरूर का हिस्सा है. मैं साधारण सा एक सिपाही भर हूं, मगर बात जब मीडिया को अपनी रखैल बनाने पर आ गई है, तब तो मुझे मीडिया की लाज रखनी ही होगी।' एकदम साफ लहजे में कैलाश को फिर मिठाई ना भेजने का आगाह किया। इसके बावजूद अगले चार पांच दिनों के भीतर ही सज्जन की मिठाई का डिब्बा फिर मेरे घर पर आ धमका। इस बार हमने बंजारा कालम में मिठाईयों से पत्रकारों को पटाने का मजाक उड़ाते हुए टिकट मिलने पर ही संदेह जताया। 1984 के भूत की वजह से 1998 के लोकसभा चुनाव में सज्जन का टिकट एक बार फिर कट गया। यानी सज्जन के नाम पर कैलाश का पूरा एक्सरसाइज फालतू और मेरे घर भेजे गए तमाम डिब्बे बेकार हो गए।
चुनाव हारने के बावजूद शोर शराबा या हंगामा खड़ा करने की बजाय सज्जन इलाके में सक्रिय रहते हैं। जनता से इनका नाता रहे या ना रहे, मगर जिसे इन्होंने अपना बनाया है, वह हमेशा सज्जन के लिए काम करते हुए दिख जाते हैं। सही मायने में तो सज्जन की असली ताकत यही लोग हैं, जो दिखावे के बगैर जान देने के लिए भी तैयार रहते हैं। हर साल पत्रकारों को सज्जन कुमार अपने सरकारी आवास (सांसद नहीं रहने पर भी किसी और सांसद के आवास पर) पत्रकारों को सालाना पार्टी देना कभी नहीं भूलते। पार्टी के दिन सैकड़ों पत्रकारों को लाने और वापस पहुंचाने के वास्ते दर्जनों गाड़ी हमेशा खड़ी रहती हैं। ठेठ देहाती परम्परा में सज्जन की पार्टी में गंवई अंदाज से लिट्टी-चोखा से लेकर गन्ना, मकई भूंजा समेत लजीज खाने का मजमा सा लग जाता है। दो या तीन बार मुझे भी इसमें शामिल होने का अवसर मिला है। शायद यह इकलौता पत्रकार पार्टी होता है जिसमें नवोदित से लेकर संपादकों को भी आना रास आता है। संपादकों में सर्वसुलभ आलोक मेहता के दर्शन भी यहां पर होना परम आवश्यक है।
सज्जन में शालीनता कूट-कूट कर भरी है। यही शराफत मीडिया को भाता है। मीडिया से नाता होने के बावजूद क्या कमाल है अगर कोई सज्जन का इंटरव्यू लेकर दिखाए या 1984 के बारे में बात भी कर ले। मुलाकात की पहला ही शर्त होती है कि 1984 पर नो एनी सवाल। महज एक सांसद होने के बाद भी आन बान और शान में सज्जन के सामने वीआईपी लोग भी दम मारते नजर आएंगे। इसमें कोई शक नहीं यदि 1984 के साथ सज्जन का कोई नाता नहीं होता तो इनका पोलिटिकल सफर कुछ और होता। शायद सज्जन का सूरज कभी नहीं डूबता(वैसे सूरज आज भी चमक रहा है)। अपने पराजित विधायक भाई रमेश को सांसद बनवा देना केवल सज्जन के बूते में ही था। इसके ठोस आधार भी है कि पिछले 15 साल में केवल एक बार सांसद होने के बाद भी जनता से भले ही इनका साथ कम हो गया हो, मगर साथ देने वाले अपनों से सज्जन का साथ कभी कम नहीं हुआ है, जिसके बूते ही सज्जन को दुर्ज्जन कहने का साहस आज किसी में नहीं है। भले ही परिसीमन के बाद राजधानी के राजनीतिक क्षेत्रों में भौगोलिक बदलाव आ गया, मगर विभिन्न आरोपों के बावजूद मादीपुर गांव के मूल निवासी भूत(पूर्व) सांसद सज्जन कुमार को आज भी बाहरी दिल्ली और मीडिया को मैनेज करने में बेताज बादशाह ही माना जाता है।
लेखक अनामी शरण बबल दिल्‍ली में पत्रकार हैं.

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