सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

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मल्टी एडिशन युग की वापसी के खतरे

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अनामी शरण बबल, वरिष्ठ पत्रकार
पिछले कई सालों से खबरिया और मनोरंजन चैनलों के अलावा धार्मिक चैनलों और क्षेत्रीय या लोकल खबरिया चैनलों का बढ़ता जलवा फिलहाल थमता-सा दिख रहा है। हालांकि अगले छह महीने के दौरान कमसे कम एक दर्जन चैनलों की योजना प्रसवाधीन है। इन खबरिया चैनलों की वजह से हिन्दी के अखबारों के मल्टी एडिशन का खुमार थोड़ा खामोश- सा दिखने लगा था।
 
खासकर एक दूसरे से आगे निकलने के कंपिटीशन में लगे दैनिक भास्कर, अमर उजाला और दैनिक जागरण का मल्टी एडिशन कंपिटीशन फिलहाल थमा हुआ है। अलबता, दैनिक हिन्दुस्तान का मल्टी एडिशन कल्चर इस समय परवान पर है। इस समय थोड़ा अनजाना नाम होने के बावजूद बीपीएन टाइम्स और स्वाभिमान टाइम्स का एक ही साथ दो तीन माह के भीतर एक दर्जन से भी ज्यादा शहरों से प्रकाशन की योजना हैरानी के बावजूद स्वागत योग्य है। इनकी  भारी-भारी भरकम योजना निःसंदेह पत्रकारों और प्रिंट मीडिया के लिए काफी सुखद है। उतर भारत के खासकर हरियाणा, पंजाब इलाके में पिछले दो साल के दौरान आज समाज ने भी आठ दस एडिशन चालू करके हिन्दी प्रिंट मीडिया को नया बल प्रदान किया है।
 
हिन्दी में मल्टी एडिशन का दौर 1980 के आस-पास शुरू हुआ था, जब नवभारत टाइम्स के मालिकों ने पटना, लखनऊ, जयपुर आदि कई राजधानी से एनबीटी को आरंभ करके प्रिंट मीडिया में मल्टी कल्चर शुरू किया। मात्र पांच साल के भीतर ही एनबीटी के मल्टी कल्चर का जादू पूरी तरह उतर गया और धूम-धड़ाके से चालू एनबीटी के खात्मे से पूरा हिन्दी वर्ग सालों तक आहत रहा। हालांकि दैनिक जागरण और अमर उजाला से पहले दैनिक आज के दर्जन भर संस्करणों का गरमागरम बाजार खासकर उतरप्रदेश और बिहार में काफी धमाल मचा रखा था। सही मायने में 1989 और 1992 के दौरान दैनिक जागरण के बाद राष्ट्रीय सहारा का राजधानी दिल्ली से प्रकाशन आरंभ हुआ, और आज दोनों के बगैर मुख्यधारा की पत्रकारिता अधूरी है। हालांकि इसी दौरान हंगामे के साथ कुबेर टाइम्स और जेवीजी टाइम्स का भी प्रकाशन तो हुआ, मगर देखते ही देखते ये कब काल कलवित हो गए, इसका ज्यादातरों को पता ही नहीं चला।
 
1990 के बाद हिन्दी पत्रकारिता का स्वर्णकाल का दौर शुरू हुआ, जब दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, अमर उजाला, दिव्य हिमाचल, हरिभूमि,  राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर, नवभारत आदि कई अखबार एक साथ अलग-अलग इलाकों से प्रकाशन आरंभ करके हिन्दी प्रिंट मीडिया को सबसे ताकतवर बनाया।
 
नयी सदी में खबरिया चैनलों के तूफानी दौर के सामने  सब कुछ  फीका सा दिखले लगा था। रोजाना एक नये चैनल की शुरुआत, मगर आम दर्शकों की नजर से ओझल इन चैनलों का संस्पेंस आज भी एक पहेली है। नए चैनल को चालू करने से ज्यादा उसको घरों में लगे इडियट बाक्स तक पहुंचाना आज भी एक बड़ा गोरखधंधा है। इसके बावजूद अभी तक खबरिया चैनलों के ग्लैमर को कम नहीं किया जा सका है। अलबता, धन और पगार के मामले में इनका जादू पूरी तरह खत्म-सा हो गया है मगर, फाइव सी के बूते इन चैनलों के बुखार को कम करने वास्ते फिलहाल कोई क्रोसीन दवा अभी खतरे की घंटी नहीं बनी है।
 
ठंडा-सा पड़ा प्रिंट मीडिया पिछले साल से एकाएक परवान पर है। हालांकि अमर उजाला से अलग होकर अग्रवाल बंधुओं के एक भाई ने अपने पिता डोरीलाल अग्रवाल के नाम पर ही मिड डे न्यूज पेपर डीएलए के लगभग एक दर्जन संस्करण चालू करके धमाल तो मचाया, मगर साल के भीतर ही आधा दर्जन संस्करणों पर ताला लग गया। हिन्दी प्रिंट मीडिया के साथ बंद होने और फिर से चालू होने का यह लूडो गेम  लगा रहता है।

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