अँग्रेजी में यह संभव है कि 34 साल के अरविंद अडिग को दुनिया का सबसे चर्चित और प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक बुकर पुरस्कार अपने पहले ही उपन्यास पर मिल जाए और वे रातोंरात स्टार बन जाएँ। हिंदी में एक तो इतना बड़ा कोई पुरस्कार ही नहीं है और जो भी बड़े पुरस्कार हैं, वे बड़े-बूढ़ों के लिए सुरक्षित हैं, जिनके या तो जल्दी स्वर्ग जाने की आशंका है या जो उस दिशा में बढ़ते दिखाई दे रहे हैं।
उधर हिंदी का बड़ा से बड़ा प्रकाशक भी बहुत छोटा है, इतना छोटा है कि वह एक-एक पैसे को दाँत से पकड़ता है और उसे अपनी छोटी-छोटी बेईमानियों पर कोई लाज-शरम भी अब नहीं आती। उससे कितना ही कहो कि भैया, क्यों सरकारी खरीद के चक्कर में पड़े हो, कुछ बड़ा सोचो, कुछ बड़ा करो तो उसकी हिम्मत ही नहीं हो पाती! अपने एक मित्र प्रकाशक से मैंने कहा कि फलाँ लोकप्रिय किताब की रायल्टी एक पैसा भी लेखक नहीं लेगा, मगर एक शर्त उसकी होगी कि उस 'लोकप्रिय' पुस्तक की दस हजार प्रतियों का संस्करण छापना होगा और यह घोषित भी करना होगा तो उसने इतना बड़ा दुस्साहस करने का 'साहस' नहीं दिखाया।
हिंदी प्रकाशक चार किताबों की सालाना रॉयल्टी साढ़े तीन हजार रुपए देता है तो वह चुपचाप जेब में रख लेता है। उसमें ऐसी कोई बेचैनी नहीं है कि वह बड़े पाठक वर्ग तक पहुँचने के लिए अपने स्तर पर कुछ करे। वह भी किताब छपवाता है और इंतजार में रहता है कि कोई तो इसकी समीक्षा अपने आप छापेगा और जब कोई नहीं छापता है तो अपने स्वाभिमान को तिलांजलि देकर खुद ही समीक्षकों और संपादकों से कहता है कि जरा भाई लिखवा दो और जरा छपवा भी दो।
40 करोड़ से अधिक लोगों की भाषा के लेखकों की इतनी दयनीय स्थिति है कि खुद के लेखकनुमा होने पर भी कई बार शर्म-सी आती है। लेखक को जब कहीं से कुछ मिल ही नहीं रहा है, न पैसा, न प्रतिष्ठा, न नाम, न बड़े पुरस्कार, न पाठक, तो वह कई तरह के चिरकुटपनों में उलझकर खुद को खुश रखने की दयनीय कोशिश करता है। वह दिनभर इसकी तारीफ और उसकी निंदा में लगा रहता है और ऐसा करते-करते वह इतना दयनीय हो चुका होता है कि उसे इसकी व्यर्थता, इसकी संकीर्णता का अहसास तक नहीं हो पाता। मन-ही-मन वह मुस्कराता रहता है कि देखो, इसे मैंने धूल चटा दी और उसे पानी पिला दिया।
कल तक उसे यह भ्रम था कि वह व्यापक जनता के हित में, पीड़ित मानवता के हक में लिख रहा है और आज नहीं तो कल और कल नहीं तो परसों जरूर उसकी आवाज सुनी और पहचानी जाएगी। वह जनता के लेखक के रूप में मान्य किया जाएगा। अब यह भ्रम भी उसे नहीं रहा। भ्रम सिर्फ यही रह गया है कि फलाँ को हमने हिंदी साहित्य के इतिहास से निकाल दिया है तो वह रोएगा और इसे शामिल कर लिया है तो खुश हो जाएगा, जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद जितने भी 'इतिहास' लिखे गए हैं - जिनमें हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित भी हैं - कोई उन्हें पूछता नहीं।
आपका नाम किस इतिहास में है, किसमें नहीं है, इसकी किसी को कोई परवाह नहीं है। परवाह तो कोई इस बात की भी नहीं करता कि किसने, किसके हक में या विरोध में क्या लिखा या कहा है। सब जानते हैं कि यह सब व्यर्थ है, क्षणिक है, पागलपन है। इसमें कहीं से कोई गंभीरता नहीं हैं, यहाँ तक कि आजकल तो जहाँ गंभीरता है, उसे भी कोई धेलेभर को नहीं पूछता।
गंभीरता और अगंभीरता, दोनों का आजकल एक जैसा बाजार भाव चल रहा है। फिर भी हिंदी का आम लेखक अपने छोटे-मोटे सम्मानों-निमंत्रणों-पुरस्कारों से ही इतना इतराया-इतराया रहता है कि हरेक में एक खास अकड़, एक खास टेढ़ापन दिखाई देता है, जैसे कि वह महान हो चुका है और आप जो हैं, सो हैं यानी आप हैं ही क्या?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें