TUESDAY, DECEMBER 14, 2010
एक नाच हुआ करता था
मैं लौंडे की बात करने वाला हूँ , माफ कीजिएगा, मैं कोई अश्लील टिप्पणी नहीं करूंगा। जो लोग बिहार की नाट्य शैली नाच को जानते हैं, उनके लिए लौंडा वह है, जो स्त्री पोशाक पहनकर नाचता है, स्त्रियों की तरह स्वांग रचता है। बचपन में साल १९७८-७९ में कुल जमा दो बार नाच देखने की यादें हैं। एक बार सबसे बड़े भाई साहब की शादी में और एक ममेरी बहन की शादी में। तब मैं कुल जमा पांच साल का रहा होऊंगा। तब के हिट भोजपुरी गीत 'गोरकी पतरकी रे मारे गुलेलवा जियरा उड़ी-उड़ी जाए' पर हुआ नाच आज भी याद है। नाच के अलावा बैंड के साथ भी हमारे ही इलाके से एक लौंडा गया था, जिसका नाम हीरा था। पिछले कुछ वर्षों तक हीरा गांव जाने पर दिख जाया करता था, लचकती चाल और सिर पर समेटकर बंधी चोटी के साथ। कौतूहल जगाता हुआ, लेकिन अब हीरा दिखता नहीं, शायद बूढ़ा हो गया होगा। नाचना छूट गया होगा। चोटी कट चुकी होगी, लेकिन चाल में लचक थोड़ी बची हुई होगी।
नाचने वाले की कमर में लचक स्वाभाविक ही बस जाती है। भोजपुरी के शेक्सपियर कहलाने वाले भिखारी ठाकुर भी कभी राधा या किसी महिला पात्र को निभाने की कोशिश में लचकने लगे थे। उनकी लचक इलाके में मशहूर होने लगी थी, फिर उन्होंने उस लचक से छुटकारा पाने के लिए लगातार पुरुष पात्रों को निभाना शुरू किया। प्रयास के बाद ही उनकी चाल से लचक तिरोहित हुई थी। लेकिन हर नाचने वाला भिखारी ठाकुर नहीं होता। एक बार लचक पीछे पड़ जाती है, तो पड़ी रहती है। मेरी नजर में पहले वह हीरा के पीछे थी और अब मनोज नाम के एक लौंडे के पीछे है, जो पिछले करीब १४ साल से हमारे घर के सामने से गुजरता दिख जाता है। जब गांव जाओ, तो मनोज का दिखना तय रहता है। चाल में वही लचक और सिर पर बंधी चोटी। १९९७ में मेरे भाई साहब की शादी में मनोज किशोर हुआ करता था। सुल्तान की बैंड पार्टी का नवछेरिया नचनिया। बारात के साथ यह बैंड पार्टी उत्तर प्रदेश के देवरिया के एक गांव गई थी। खूब बारिश हो रही थी। मनोज चटख मैकअप में था। वह जमकर नाचता, क्योंकि बिहार से जब कोई लौंडा पूर्वी उत्तर प्रदेश जाता है, तो वहां के लोग बड़े चाव से नाच का मजा लेते हैं। जुलाई का महीना था, बारात पहुंचने में खूब रात हो गई थी, बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी, लेकिन उस गांव के पच्चीस-तीस लोग डटे थे कि लौंडा नाच देखकर ही मानेंगे। बैंड पार्टी ने तय किया था कि बारात केवल बाजे के साथ दरवाजे लगा दी जाएगी। गीली और दलदली हो चुकी जमीन और रास्ते पर नाचने का तो सवाल ही नहीं उठता था। घरातियों के गांव वालों ने जब देखा कि केवल बैंड बज रहा है और लौंडा कोने में खड़ा बस टुकुर-टुकुर ताक रहा है, तो हंगामा हो गया। लौंडा नचाने की मांग होने लगी, लाठियां बजने लगीं कि डर से लौंडा नाचने लगेगा। लौंडे की जान मुसीबत में थी, बैंड पार्टी के मुखिया सुल्तान ने उसे सुझाया कि 'मास्टर साहब के पास चले जाओ।' मास्टर साहब मतलब मेरे परिवार के मुखिया बड़े पिताजी। मनोज तत्काल दौड़कर मेरे बड़े पिता के पीछे छिपकर भीड़ की पकड़ से दूर हो गया।
१३ साल हो गए, लेकिन मनोज को आज भी वह वाकया याद है। सुल्तान नहीं रहा, अब मनोज किसी और की बैंड पार्टी में नाचता है। इस बार छठ में जब मैं गांव गया, तो तय कर रखा था कि मनोज से बात करूंगा। तो उसे घर के सामने ही रोक लिया।
'इधर आइए।'
वह एक बार तो चौंका और फिर अपनी पूरी लचक के साथ मेरे करीब आ रुका।
'ये बताइए कि इलाके में किसका नाच हिट चल रहा है?
सवाल सुनते ही शायद वह समझ गया कि मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है। उसके चेहरे पर मुस्कराहट फैल गई। उसने जवाब दिया, 'नाच, अब कहां?'
'मतलब'
'अब नाच नहीं होता है?'
'कहां गए नाच?'
'खतम हो गए।'
मुझे विश्वास नहीं हो रहा था, मैंने जोर देकर पूछा, 'क्या नाच बिल्कुल बंद है?
'हां।'
'तो तुम क्या करते हो?'
'बैंड बाजा में हैं।'
'भिखारी ठाकुर के परिवार का कोई नाच में नहीं है?'
मनोज ने जवाब दिया, 'नहीं, अब नहीं है।'
मैंने पूछा, 'क्यों खतम हो गया नाच।'
'अब वीडियो है, सिनेमा है, ऑर्केस्ट्रा है। लोग अब नाच पसंद नहीं करते। वैसे भी मेहनत वाला काम है।'
मुझे बड़ी निराशा हुई। यह सच है, जिस नाच को भिखारी ठाकुर ने उत्तरी भारत की शान बना दिया था, वह लोक विधा समाज में दम तोड़ चुकी है। नाच की बात तो दूर है। मेरे ही घर में अब बारात के साथ भी लौंडे नहीं जाते, नए लडको ने लौंडों को पीछे छोड़ दिया है । मनोज जैसे लौंडे अब थोड़े ही बचे हैं। मनोज लगभग ३३-३४ के करीब पहुंच रहा है, लेकिन शायद तब तक नाचेगा, जब तक लोग उसे नचवाएंगे। फिर तो उसकी भी चोटी कट जाएगी और चाल में बस थोड़ी लचक शेष रह जाएगी, यह गवाही देती हुई कि कभी एक नाच हुआ करता था।
नाचने वाले की कमर में लचक स्वाभाविक ही बस जाती है। भोजपुरी के शेक्सपियर कहलाने वाले भिखारी ठाकुर भी कभी राधा या किसी महिला पात्र को निभाने की कोशिश में लचकने लगे थे। उनकी लचक इलाके में मशहूर होने लगी थी, फिर उन्होंने उस लचक से छुटकारा पाने के लिए लगातार पुरुष पात्रों को निभाना शुरू किया। प्रयास के बाद ही उनकी चाल से लचक तिरोहित हुई थी। लेकिन हर नाचने वाला भिखारी ठाकुर नहीं होता। एक बार लचक पीछे पड़ जाती है, तो पड़ी रहती है। मेरी नजर में पहले वह हीरा के पीछे थी और अब मनोज नाम के एक लौंडे के पीछे है, जो पिछले करीब १४ साल से हमारे घर के सामने से गुजरता दिख जाता है। जब गांव जाओ, तो मनोज का दिखना तय रहता है। चाल में वही लचक और सिर पर बंधी चोटी। १९९७ में मेरे भाई साहब की शादी में मनोज किशोर हुआ करता था। सुल्तान की बैंड पार्टी का नवछेरिया नचनिया। बारात के साथ यह बैंड पार्टी उत्तर प्रदेश के देवरिया के एक गांव गई थी। खूब बारिश हो रही थी। मनोज चटख मैकअप में था। वह जमकर नाचता, क्योंकि बिहार से जब कोई लौंडा पूर्वी उत्तर प्रदेश जाता है, तो वहां के लोग बड़े चाव से नाच का मजा लेते हैं। जुलाई का महीना था, बारात पहुंचने में खूब रात हो गई थी, बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी, लेकिन उस गांव के पच्चीस-तीस लोग डटे थे कि लौंडा नाच देखकर ही मानेंगे। बैंड पार्टी ने तय किया था कि बारात केवल बाजे के साथ दरवाजे लगा दी जाएगी। गीली और दलदली हो चुकी जमीन और रास्ते पर नाचने का तो सवाल ही नहीं उठता था। घरातियों के गांव वालों ने जब देखा कि केवल बैंड बज रहा है और लौंडा कोने में खड़ा बस टुकुर-टुकुर ताक रहा है, तो हंगामा हो गया। लौंडा नचाने की मांग होने लगी, लाठियां बजने लगीं कि डर से लौंडा नाचने लगेगा। लौंडे की जान मुसीबत में थी, बैंड पार्टी के मुखिया सुल्तान ने उसे सुझाया कि 'मास्टर साहब के पास चले जाओ।' मास्टर साहब मतलब मेरे परिवार के मुखिया बड़े पिताजी। मनोज तत्काल दौड़कर मेरे बड़े पिता के पीछे छिपकर भीड़ की पकड़ से दूर हो गया।
१३ साल हो गए, लेकिन मनोज को आज भी वह वाकया याद है। सुल्तान नहीं रहा, अब मनोज किसी और की बैंड पार्टी में नाचता है। इस बार छठ में जब मैं गांव गया, तो तय कर रखा था कि मनोज से बात करूंगा। तो उसे घर के सामने ही रोक लिया।
'इधर आइए।'
वह एक बार तो चौंका और फिर अपनी पूरी लचक के साथ मेरे करीब आ रुका।
'ये बताइए कि इलाके में किसका नाच हिट चल रहा है?
सवाल सुनते ही शायद वह समझ गया कि मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है। उसके चेहरे पर मुस्कराहट फैल गई। उसने जवाब दिया, 'नाच, अब कहां?'
'मतलब'
'अब नाच नहीं होता है?'
'कहां गए नाच?'
'खतम हो गए।'
मुझे विश्वास नहीं हो रहा था, मैंने जोर देकर पूछा, 'क्या नाच बिल्कुल बंद है?
'हां।'
'तो तुम क्या करते हो?'
'बैंड बाजा में हैं।'
'भिखारी ठाकुर के परिवार का कोई नाच में नहीं है?'
मनोज ने जवाब दिया, 'नहीं, अब नहीं है।'
मैंने पूछा, 'क्यों खतम हो गया नाच।'
'अब वीडियो है, सिनेमा है, ऑर्केस्ट्रा है। लोग अब नाच पसंद नहीं करते। वैसे भी मेहनत वाला काम है।'
मुझे बड़ी निराशा हुई। यह सच है, जिस नाच को भिखारी ठाकुर ने उत्तरी भारत की शान बना दिया था, वह लोक विधा समाज में दम तोड़ चुकी है। नाच की बात तो दूर है। मेरे ही घर में अब बारात के साथ भी लौंडे नहीं जाते, नए लडको ने लौंडों को पीछे छोड़ दिया है । मनोज जैसे लौंडे अब थोड़े ही बचे हैं। मनोज लगभग ३३-३४ के करीब पहुंच रहा है, लेकिन शायद तब तक नाचेगा, जब तक लोग उसे नचवाएंगे। फिर तो उसकी भी चोटी कट जाएगी और चाल में बस थोड़ी लचक शेष रह जाएगी, यह गवाही देती हुई कि कभी एक नाच हुआ करता था।
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