चले गए बालेश्वर
: स्मृति-शेष : सुधि बिसरवले बा हमार पिया निरमोहिया बनि के : अवधी की धरती पर भोजपुरी में झंडा गाड़ गया यह लोक गायक : जैसे जाड़ा चुभ रहा है देह में वैसे ही मन में चुभ रहा है आज बालेश्वर का जाना। इस लिए भी कि वह बिलकुल मेरी आंखों के सामने ही आंखें मूंद बैठे। बताऊं कि मैं उनको जीता था, जीता हूं, और शायद जीता रहूंगा।
सोते जागते हम लोगों की बात होती रहती थी। हंसी मजाक होता था। गाना बजाना होता था। वह तो मेरी देह में, मेरे मन में गा ही रहे हैं। जाने कितने लोगों की भावनाओं को उन्होंने स्वर दिया है, तेवर और ताव दिया है। मैं अमूमन सुबह देर तक सोता हूं। फिर आज तो इतवार था। सोया ही था कि बालेश्वर जी के सबसे छोटे बेटे मिथिलेश का फोन आया। आवाज में घबराहट थी। उसने बताया कि पिताजी को अस्पताल लाए हैं। मैंने पूछा कि, ‘हुआ क्या है।’ उसने बताया कि, ‘बोल नहीं पा रहे हैं।’ मैं खुद घबरा गया। अस्पताल जाने के लिए तैयार हो ही रहा था कि तभी उनके दूसरे बेटे अवधेश का भी फोन आ गया। मैंने बताया कि, ‘बस पहुंच रहा हूं।’ जल्दी से पहुंचा भी।
ज्यों उनके पास गया, वह पहचान गए। मैंने हाथ जोड़े और आश्वासन दिया, ‘घबराइए नहीं ठीक हो जाएंगे।’ वह जैसे हमेशा धधा कर मिलते थे, आंखों में चमक आ जाती थी, रोआं-रोआं फड़क उठता था, आज भी हुआ पर लेटे-लेटे। आंखों-आंखों में। वह जैसे हुटुक कर रह गए। निःशब्द हो गए। लेकिन बहुत कुछ कहते हुए। उनकी आंखों में जैसे एक आस थी, जीवन जीने की। उनकी यह तकलीफ मुझसे देखी नहीं गई। और मैं रो पड़ा। उन्होंने आंखों-आंखों में सांत्वना दी। मुझे लगा अभी जीवन चलेगा।
उनके लड़के ने मुझे इशारा किया कि डॉक्टरों की तरफ ध्यान दें। आनन-फानन में डॉक्टरों की व्यवस्था करवाई। छुट्टी के बावजूद सीनियर डॉक्टर भी आ गए। खून की जांच हुई। शुगर 314 था। लेकिन ई.सी. जी. और बी. पी. ठीक था। अच्छा लगा। लेकिन ज्यादा देर तक ऐसा नहीं रहा। थोड़ी देर बाद फिर खून की जांच हुई। शुगर और बढ़ गया था। दो-तीन डॉक्टर और गए। बालेश्वर का नाम ही काफी था। सभी डॉक्टर उनकी मिजाजपुर्सी में लग गए। पल्स गुम होने लगी। आक्सीजन लग गया। इंजेक्शन पर इंजेक्शन। फिर ई.सी. जी. हुआ।
पल्स तो गायब हो ही रही थी, दिल भी डराने लगा। सीने पर फिजियोथेरेपी शुरू हो गई। जाने क्या-क्या दवाएं। लेकिन तिबारा जांच में शुगर 650 हो गया। फिर 700 और डॉक्टरों के साथ-साथ हम लोगों के चेहरे भी इस सर्दी में और भी सुन्न होने लगे। सबके चेहरे पर हवाईयां थीं। एक दूसरे को सांत्वना देते हुए। भीड़ बढ़ती जा रही थी। अचानक एक डॉक्टर ने हाथ उपर खड़े कर दिए। और हाथ जोड़ कर बालेश्वर जी को प्रणाम करते हुए वार्ड से बाहर निकल गए। दिन के साढ़े ग्यारह बजे थे। परिजनों का रोना-धोना भी शुरू हो गया। भोजपुरी की आन-मान और शान ने हम सबसे बिदा ले ली। हम सभी अवश थे समय के हाथों। काल का क्रूर पंजा अवधी की धरती पर भोजपुरी का झंडा गाड़ने वाले को, दुनिया भर में भोजपुरी का झंडा फहराने वाले को दबोच चुका था।
कोई ढाई दशक से हमारी और बालेश्वर की दोस्ती थी। हम दोनों एक दूसरे के दोस्त भी थे और दुश्मन भी। ठीक उनके एक गाने में कहें तो, ‘दुश्मन मिले सबेरे लेकिन मतलबी यार न मिले।’ हम दोनों के बीच सचमुच कोई मतलब नहीं था। एक सेतु था जिस पर भोजपुरी की संधि होती थीं। हम दोनों भोजपुरी को जीते थे। अगर कोई स्वार्थ था भी तो सिर्फ भोजपुरी का था। एक समय था कि मैं भी दारूलशफा में रहता था और बालेश्वर भी। तो हम लोगों की सुबह-शाम की मुलाक़ात थीं। मैं सुबह बच्चों को स्कूल छोड़ कर आता तो बालेश्वर की गरम जलेबी खा कर घर लौटता। शाम को दफ्तर से लौटता तो बालेश्वर की संगीत महफिल में बैठ जाता। कलाकारों के साथ उनकी रिहर्सल और बतकही में सारी थकान डूब जाती।
हाल-फिलहाल तो भोजपुरी बाजार में हाहाकार मचाए हुई है। पर एक समय मैंने भोजपुरी की समस्याओं को उकेरने के लिए कि कैसे तो भोजपुरी मरती जा रही है और कि सतही होती जा रही है, उनके जीवन को आधार बना कर एक उपन्यास लिखा था, ‘लोक कवि अब गाते नहीं’, जिसमें उनके जीवन के कुछ स्याह-सफेद प्रसंग भी थे। कुछ ‘शुभचिंतकों’ ने कान भर दिए। मेरे भी और उनके भी। बालेश्वर को कुछ ज्यादा ही ऐतराज हो गया। लेकिन हमारे खिलाफ उन्होंने कभी कुछ कहा नहीं। कोई कुछ कहता भी तो वह कहते, ‘जाने दीजिए दोस्त हैं।’ बावजूद इस सबके हम दोनों के बीच कुछ दिनों तक संवादहीनता जारी रही। एक दिन अचानक वह सुबह-सुबह मेरे घर आ गए। और कहने लगे, ‘माफ करिए पांडेय जी, गलती हो गई। आपने तो हमको अमर कर दिया!’ ठठा कर हंसे और गले मिलने लगे। फिर तो जाने कितने ताने आए, गाने आए पर हम लोग इधर से उधर नहीं हुए।
बालेश्वर वस्तुतः कवि थे। हालांकि वह अपने गाने को लिखना नहीं, बनाना कहते थे। अपने गाए सारे गाने उन्होंने ही लिखे। चाहे वह जिस भी मूड के हों। एक बार मैंने उनसे पूछा भी कि, ‘आप कवि सम्मेलनों में भी क्यों नहीं जाते!’ वह एकदम सपाट बोले, ‘फ्लाप हो जाउंगा।’ और हंस पड़े। मैंने पूछा, ‘अगर आप गायक न होते तो क्या होते!’ वह बोले, ‘कहीं मजूरी करता।’ और जैसे जोड़ा, ‘और जो थोड़ा पढ़ लिख गया होता तो उच्च कोटि का साहित्यकार होता!’ कह कर वह फिर फिस्स से हंस पड़े। दरअसल बालेश्वर को अपने बारे में कोई गुमान था भी नहीं। वह इतने बड़े गायक थे, भोजपुरी की दुनिया उन्हें पूजती थी लेकिन वह अपने को मजूर ही मानते थे। कहते थे, ‘लोग ईंट गारा की मजूरी करते हैं, मैं गाने की मजूरी करता हूं।’ शायद सच भी यही था।
‘तोहरे बरफी ले मीठ मोर लबाही मितवा’ गाते-गाते वह लखनऊ आये थे। अवधी की धरती पर भोजपुरी गाने। बहुत संघर्ष किया, बहुत दुत्कार खाई, अपमान पिए और फिर मान और सम्मान भी चखा कि आज लखनऊ में अवधी नहीं भोजपुरी की बात होने लगी है। वह खुद भी कहते थे कि बताइए, ‘अवधी में जो तुलसी दास, रसखान और जायसी न होते तो अवधी का होता क्या!’
दरअसल भिखारी ठाकुर के बाद अगर भोजपुरी को किसी ने आधारबिंदु दिया, जमीन और बाजार दिया तो वह बालेश्वर ही हैं कोई और नहीं। एक समय था कि बालेश्वर के कैसेटों से बाज़ार अटा पड़ा रहता था। कारण यह था कि वह गायकी को भी साधते थे और बाजार को भी। कैसेट और आरकेस्ट्रा दोनों में उनकी धूम थी। यह अस्सी और नब्बे के दशक की बात है। वह भोजपुरी की सरहदें लांघ कर मुंबई, बंगाल और आसाम, नागालैंड जाने लगे। हालैंड, सूरीनाम, त्रिनिडाड, फिजी, थाईलैंड, मारीशस और जाने कहां-कहां जाने लगे। बालेश्वर के यहां प्रेम भी है, समाज भी और राजनीति भी। यानी कामयाबी का सारा गुन! बालेश्वर कई बार समस्याओं को उठा कर अपने गीतों में जब प्रहार करते हैं और बड़ी सरलता से तो लोग वाह कर बैठते हैं। उनके कहने में जो सादगी होती थी, और गायकी में जो मिठास होती थी, वही लोगों को बांध देती थी।
‘हम कोइलरी चलि जाइब ए ललमुनिया क माई!’ गीत में बेरोजगारी और प्रेम का जो द्वंद्व है, वह अदभुत है। ‘बिकाई ए बाबू बी. ए. पास घोड़ा’ और ‘बाबू क मुंह जैसे फैजाबादी बंडा / दहेज में मांगै लैं हीरोहोंडा’ या फिर ‘जबसे लइकी लोग साइकिल चलावे लगलीं तब से लइकन क रफ्तार कम हो गइल’ जैसे गीत उन्हें न सिर्फ लोकप्रिय बनाते थे, लोगों को मोह लेते थे। ‘नीक लागे टिकुलिया गोरखपुर क’ और ‘मेला बीच बलमा बिलाइल सजनी’ जैसे रिकार्ड जब एच. एम. वी. ने 1979 में जारी किए थे तो बालेश्वर की धूम मच गई थी। फिर तो ‘चुनरी में लागता हवा, बलम बेलबाटम सिया द’ जैसे गीत के साथ वह समय के साथ हो गए थे। वह थे, बाजार था, सफलता थी, शोहरत थी। पर बाद के दिनों में जब लोग हाईटेक हुए, बालेश्वर नहीं हो पाए। वह बाजार से फिसल गए।
यह उनके ज्यादा पढ़े लिखे न होने का दंश था। बाजार को वह लाख साधने की कोशिश करते, बाजार उनसे फिसलता जाता। यश भारती वह पा चुके थे। और इसके जुनून में वह गा चुके थे, ‘शाहजहां ने मोहब्बत की तो ताजमहल बनवा दिया / कांशीराम ने मोहब्बत की तो मायावती को मुख्यमंत्री बनवा दिया!’ राजनीतिक स्थितियां बदल गई थी। इसके लिए उन्हें अपमान भी झेलना पड़ा और सरकारी आयोजनों से बाहर हो गए। फिर भी वह भूले नहीं, ‘दुश्मन मिलै सबेरे लेकिन मतलबी यार न मिले / हिटलरशाही मिले मगर मिली-जुली सरकार न मिले / मरदा एक ही मिलै हिजड़ा कई हजार न मिलै।’ वह तो गा रहे थे, ‘लागता जे फाटि जाई जवानी में झूल्ला’, ‘अंखिया बता रही हैं लूटी कहीं गई है’, ‘अपने त भइल पुजारी ए राजा, हमार कजरा के निहारी ए राजा।’ वह गा रहे थे, ‘आवा चलीं ए धनिया ददरी क मेला’ और कि, ‘फगुनवां में रंग रसे-रसे बरसै /उहो भींजि गइलीं जे निकरै न घर से।’ शादी-ब्याह में जयमाल में अकसर वह एक गीत गाते, ‘केकरे गले में डारूं हार, सिया बउरहिया बनि के।’ तो लोग तो झूम जाते पर दुलहनें अकसर सचमुच भौचक हो जातीं। कि किसके गले में हार डालूं। तो यह देखते ही बनता था।
जैसे कोई नरम और मीठी ऊंख हो। एक गुल्ला छीलिए तो पोर-पोर खुल जाए। कुछ वैसी ही मीठी, नरम और फोफर आवाज बालेश्वर की थी। अपनी गमक, माटी की महक और एक खास ठसक लिए हुए। भोजपुरी गायकी में एक समय शिखर पर आसीन रहे बालेश्वर की गायकी की यात्रा बहुत सुविचारित नहीं थी। उनका कोई गुरू भी नहीं था। एक बार उनसे पूछा था, ‘आप का गुरू कौन है!’ छूटते ही वह बोले थे, ‘कोई गुरू नहीं!’
‘तो सीखा कैसे!’
‘बस गाते-गाते।’
‘और शिष्य।’
‘शिष्य मानता ही नहीं किसी को। फिर भी हमारे गाने बहुत लोग गाते हैं।’
‘फिरकापरस्ती वाली बस्ती बसाई न जाएगी / मंदिर बनी लेकिन मस्जिद गिराई न जाएगी / आडवानी वाली भाषा पढ़ाई न जाएगीं।’ जैसे तल्ख गीत लिखने और गाने वाले बालेश्वर ने गायकी की यात्रा शुरू की नकल कर-कर के। वह कहते थे, ‘गांव में शादी-ब्याह में, रामलीला, नौटंकी में गाना सुन के हम भी गाना शुरू किए।’
‘किन कलाकारों को।’
‘भोजपुरी लोकगायकों को। जैसे वलीवुल्लाह थे, जयश्री यादव थे। हमने न सिर्फ इनकी नकल की, बल्कि कोशिश की कि इनकी टीम में आ जाऊं। पर इन्होंने अपनी टीम में हमें नहीं लिया। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। गांव के मंचों पर चंग बजा-बजा कर अकेले ही गाना शुरू किया। पैसे कुछ भी नहीं मिलते थे। खाली वाह-वाही मिलती थी।’ वह बताते थे कि गांव की घटनाओं पर ही गाना बनाते और गाते तो लोग नाराज हो जाते। पिटाई भी हो जाती थी।’ वह जैसे जोड़ते, ‘लेकिन मैंने गाना बनाना और गाना नहीं छोड़ा। पैदाइशी गांव बदनपुर भले छोड़ दिया और चचाईपार में आ कर बस गया।’ 1962 के चुनाव में पूर्व विधायक व स्वतंत्रता सेनानी विष्णु देव गुप्ता ने सोशलिस्ट पार्टी के चुनाव प्रचार के लिए दोहरी घाट भेज दिया। वह वहीं गाने बना-बना कर गाने लगे। कम्युनिस्ट पार्टी के झारखंडे राय की नजर उन पर पड़ गई तो वह अपने साथ घोसी ले गए। अपने चुनाव प्रचार में। झारखंडे राय जब जीत गए तो अपने साथ ही बालेश्वर को भी लखनऊ ले आए। अब लखनउ था और बालेश्वर और उनके भोजपुरी गाने। कोई सुनने को तैयार नहीं। भटकाव सामने था। मिट्टी-गारा की मजदूरी शुरू की। 1965 में आकाशवाणी लखनऊ में गाने का आडिशन दिया। फेल हो गए। लगातार फेल होते गए। परेशानी बढ़ती गई।
सूचना विभाग में एक के. बी. चंद्रा थे। उन्होंने आकाशवाणी का इम्तहान पास करने के गुन बताए। दस साल बाद 1975 में बालेश्वर आकाशवाणी का इम्तहान पास कर गए। आकाशवाणी पर उनकी बुलंद आवाज जब छा गई तो बहुतेरे लोग मौका देने को तैयार हो गए। हरवंश जायसवाल मिले। चार साल तक सरकारी कार्यक्रमों में उनसे गवाया। एच. एम. वी. के मैनेजर जहीर अहमद मिले 1978 में। 1979 में एच. एम. वी. ने बालेश्वर के दो रिकार्ड जारी किए, ‘नीक लागे टिकुलिया गोरखपुर क’ और ‘बलिया बीचे बलमा हेराई सजनी।’ 1982 आते-आते बालेश्वर छा गए। और फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। बहुत सारे लोग फिल्मी गानों की पैरोडी गाते हैं। लेकिन बालेश्वर ऐसे गायकों में शुमार हैं जिनके गाने की पैरोडी फिल्मों में चलती है। सबसे पहले सुजीत कुमार ने अपनी फिल्मों में उनके गाने लिए। एक नहीं तीन-तीन। और बालेश्वर को क्र्रेडिट भी नहीं दिया। पर बालेश्वर उनसे नाराज नहीं हुए, न उनसे कुछ कहा।
भोजपुरी के ‘विकास’ से ही वह खुश थे। फिर तो उनके बीसियों गाने फिल्मों में चले गए। मैं कभी कुछ टोकता कि, ‘कुछ ऐतराज करिए ना!’ वह कहते, ‘जाने दीजिए। भोजपुरी का विकास हो रहा है, लोग खा कमा रहे हैं।’ कई बार वह बुदबुदाते, ‘समय बड़ा बलवान होता है। कहीं हमसे भी अच्छे-अच्छे गाने वाले पड़े हैं। पर उनको कोई जानता नहीं। हमको तो लोग जान गए हैं।’ वह अपने मकान की पक्की फर्श दिखाते। बोलते, ‘पक्का में रह रहा हूं और का चाहिए!’ और गाने लगते, ‘कजरवा हे धनिया!’ फिर जैसे जोड़ने लगते, ‘नाचे न नचावे केहू, पैसा नचावेला!’ गाने लगते, ‘मोर पिया एम.पी., एम. एल. ए. से बड़का / दिल्ली लखनउवा में ओही क डंका / अरे वोट में बदलि देला वोटर क बक्सा!’ अचानक वह जोश में आते तो ‘रई-रई-रई-रई-रई’ कर गाने लगते, ‘समधिनिया क पेट जैसे इंडिया क गेट.... / समधिनिया क बेलना झूठ बोलेला।’
एक समय उनका एक कैसेट आया था, ‘बलेसरा काहे बिकाला।’ अब कौन बिकेगा और कौन बेचेगा! कौन गायकी के रस का वह नशा, उनकी कहरवा धुन में पगे उनके गीत, उनकी गायकी का वह मिठास, ऊंख जैसी मिठास, वह फोफर आवाज आकाश में धरती पर गांव की मेड़ों पर मद्धिम रोशनी वाले मटियारे घरों में, मेहनतकशों और मजूरों के घरों में कौन गाएगा! फिलहाल तो मैं उनको एक भोजपुरी निर्गुण में ही हेर रहा हूं, ‘सुधि बिसरवले बा पिया निरमोहिया बनि के!’ और ‘तोहरे बरफी ले मीठ मोर लबाही मितवा!’ में जोह रहा हूं। हेरते-जोहते उनको शत-शत प्रणाम कह रहा हूं।
दयानंद पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार
लखनऊ
कुलपति मुझे साजिश के तहत फंसा रहे हैं
मुझे पाणिनी संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलपति डा. मोहन गुप्ता ने दुर्भावनावश फंसाने के लिए सारी कहानी बनाई है. विश्वविद्यालय के कार्यकारिणी का सदस्य रहते हुए मैंने कुलपति के कार्यों की शिकायत राज्यपाल से की थी. जिसके चलते मुझे तीन हजार रुपये का बिल लेने का आरोप लगाया गया है. यह सारा कार्य मुझसे बदला लेने की नीयत से किया गया है.
मैंने ना तो किसी धनराशि की मांग की थी ना ही मैं तीन हजार के चेक को रिसीव किया है. मेरे उपर लगे आरोपों की जांच कुलपति के खासमखास कुलसचिव शिव कुमार दुबे ने की. एक पक्षीय कार्रवाई करते हुए मुझे अपना पक्ष रखने का मौका भी नहीं दिया. जबकि ना तो मैंने उक्त धनराशि के लिए कोई मांग पत्र दिया था, ना ही कोई देय प्रस्तुत किया था और ना ही उक्त तीन हजार रुपये की धनराशि मूल्य का चेक ही प्राप्त किया. इसकी आशंका मुझे पूर्व में ही थी, जिसके चलते मैंने वरिष्ठ अधिकारियों को आवेदन भी दिया था. मुझे जबरिया फंसाने के लिए सारे षणयंत्र रचे गए. जबकि मेरा मामला इंदौर हाईकोर्ट में चल रहा है.
alt="हर्ष " title="हर्ष" v:shapes="_x0000_i1034">
हर्ष जायसवाल
पूर्व सदस्य कार्य परिषद
पाणिनी संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन
सियासत और सेक्स की कॉकटेल-कथा
: देश के तीन माननीय विधायक आरोपों के घेरे में हैं। एक यौन शोषण की तोहमत ङोलते हुए जान से हाथ धो बैठे, दूसरे बता रहे हैं-मैं नपुंसक हूं, रेप कैसे करूंगा और तीसरे पर लगा है किडनैपिंग का चार्ज। दुहाई है-दुहाई है.. : ये महामहिम हैं, माननीय विधायक जी हैं, इनके दम से ही लोकतंत्र ज़िंदा है। पचास बरस से भी ज्यादा बूढ़ी हो चुकी मुल्क की आज़ादी ने हमें यही बात सिखाई है, लेकिन हाय रे राम, दुहाई है-दुहाई है..लोकतंत्र के रखवालों पर यह कैसी शामत आई है?
अभी हाल ही में बिहार में भाजपा विधायक राज किशोरी केसरी को एक महिला टीचर ने चाकू मारकर हलाल कर डाला, तो बुधवार को यूपी के एक एमएलए दुहाई देते नज़र आए। प्रेसवालों से कहने लगे—साहब, मैं तो नपुंसक हूं। भला रेप कैसे कर सकता हूं? बात यहीं खत्म नहीं होती। लोकतंत्र के रखवाले तमाम हैं, उनके किस्से भी हज़ार हैं। ऐसे-कैसे ख़त्म हो जाएं। बुधवार को ही सुल्तानपुर के एमएलए अनूप संडा पर आरोप लगा है कि उन्होंने अपनी प्रेमिका की बेटी को किडनैप करा लिया है..। वाह रे एमएलए साहब, आपको तो पब्लिक ने चुना था इसलिए, ताकि आप सड़कें बनवाएं, पुल बनवाएं, इन्क्रोचमेंट हटवाएं, बिजली-पानी मुहैया कराएं और यह तो आपका क्या हाल हो रहा है? आरोपों की सफ़ाई देते-देते हलकान हो रहे हैं..ये क्या हो रहा है आपके साथ?चलिए, सुन लेते हैं सियासत और सेक्स के कॉकटेल की ताज़ातरीन टॉप थ्री स्टोरीज़—पहले बात दिवंगत भाजपा विधायक राज किशोरी केसरी की। दो दिन पहले पूर्णिया के एक स्कूल की प्रिंसिपल रुपम पाठक ने चाकू मारकर उनकी जान ले ली थी।
उसका आरोप था कि विधायक जी यौन शोषण कर रहे थे और शिकायत करने पर पुलिस कोई सुनवाई नहीं कर रही है। अब लालूप्रसाद जैसे बड़े नेता इस हत्याकांड की उच्चस्तरीय जांच की मांग कर रहे हैं। पूर्णिया के पुलिस उप महानिरीक्षक अमित कुमार कह रहे हैं कि आरोपी का कैरेक्टर संदिग्ध था। ..और विधायक जी तो अब रहे नहीं, लेकिन उनके चरित्र पर जाते-जाते जितने धब्बे लग चुके हैं, उनकी सफाई कौन देगा? बिहार के भाजपा विधायक के बाद अब यूपी में बांदा के बीएसपी विधायक पुरुषोत्तम द्विवेदी की बात। उन पर एक नाबालिग लड़की को बंधक बनाकर रेप करने का आरोप लगा है। फिलहाल, द्विवेदी जी कह रहे हैं कि वो नपुंसक हैं। उनका दावा है—मेरे ऊपर दुष्कर्म का आरोप आधारहीन है। मैं बलात्कार करने में समर्थ नहीं हूं।
उन्होंने तो ये भी कह डाला है कि जो मैं ये बात साबित करने के लिए किसी भी मेडिकल स्पेशलिस्ट से जांच कराने के लिए तैयार हूं। और चलते-चलते सुन लीजिए सुल्तानपुर (यूपी) के सदर विधायक अनूप संडा जी से। संडा पर उन्हीं के शहर की एक महिला समरीन ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था और विधायक ने उस पर ब्लैकमेलिंग का। दोनों के खिलाफ मुकदम चल रहे हैं। समरीन जेल भी काट चुकी है। चंद रोज पहले उसके ब्यूटी पार्लर पर कुछ लोगों ने हमला किया था। इससे पहले समरीन ने भी विधायक के पेट्रोल पंप पर तोड़-फोड़ की थी और अब बुधवार को समरीन की ओर से आरोप लगाया गया है कि उसकी मासूम बेटी को विधायक के इशारे पर अगवा कर लिया गया है। इन सब विधायकों (केसरी तो रहे नहीं, सो उनके समर्थकों) का कहना है कि आरोप राजनीति से प्रेरित हैं। सच क्या है, न्यायपालिका तय करेगी। हम तो यही कहेंगे—सियासत और सेक्स के इस कॉकटेल में कुछ तो काला है और वो इतना काला है कि लोकतंत्र की अस्मिता पर, उसके चेहरे पर शर्म की कालिख पुतती ही जा रही है।
: मोहब्बत के बदले मौत... : यौन शोषण की तोहमतों के घेरे में आए तीन विधायकों की `प्रेम? कथा’ आपने पढ़ी, अब बारी है, एक ऐसी ही लव स्टोरी की, जिसमें बात क़त्ल तक पहुंच गई। एक बहुत पुरानी फ़िल्म का गाना है—मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोए...बड़ी चोट खाई, जवानी पे रोए। कुछ ऐसी ही है सियासत और सेक्स की कॉकटेल कथा, जिसे सुनकर-पढ़कर-देखकर बस माथा पीटने का मन करता है...सिर धुनने को जी कर उठता है। ऐसी ही तो थी मधुमिता-अमर की प्रेमकथा, जिसे अमरत्व नसीब नहीं हुआ। मधु थी यूपी की एक तेज़-तर्रार कवयित्री, जो शब्दों के तीर चलाकर बड़े-बड़ों को घायल कर देती थी पर उसकी निगाहों के तीर से उत्तर प्रदेश के एक विधायक जी ऐसे घायल हुए कि घर-परिवार की ज़िम्मेदारियां तक भुला बैठे।
2003 के मई महीने की एक तारीख़। अचानक यूपी के लोग ये ख़बर सुनकर थर्रा उठते हैं कि युवा छंदकार मधुमिता शुक्ला का लखनऊ की पेपर कॉलोनी स्थित घर में कोल्ड ब्लडिड मर्डर कर दिया गया है—यानी नृशंस तरीके से हत्या। किसी की समझ में नहीं आता कि मंचों की जान मानी जाने वाली मधु का मर्डर किसने और क्यों कर दिया। पंचनामा हुआ, बयान दर्ज हुए, पोस्टमार्टम किया गया, जांच हुई, सबूत तलाशे गए और फिर सामने आया—दहला देने वाला सच। मधु की हत्या के पीछे उत्तर प्रदेश के विधायक और पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी का हाथ बताया गया।
सच तो ये है कि मधुमिता को क़त्ल ना होना पड़ता, लेकिन उसने मंत्री-प्रेमी-नेता के कॉम्बिनेशन वाले अमरमणि से ज़िद कर ली—अब मुझे जन्म-जन्म का साथी बनाओ। ये छिप-छिपकर मिलते रहने से जो रुसवाई मेरे माथे पर आ रही है, वह बर्दाश्त नहीं होती। अमरमणि को अब तक जो मोहब्बत ज़िंदा रखती थी, मधुमिता का वही साथ अब उन्हें काट खाने दौड़ने लगा। जानकार कहते हैं, यही वो पल था, जब अमर ने ठान लिया—अब मधुमिता को अपने जीवन में शामिल नहीं करना है।
मधुमिता भी मज़बूर थी। उसके पेट में अमरमणि का बच्चा पल रहा था। शक की सुई उठने पर अमर ने इनकार किया—नहीं, मेरा मधु से कोई रिश्ता नहीं था, लेकिन डीएनए टेस्ट से साबित हुआ—मधु के गर्भ में पल रहे बच्चे के वही पिता हैं। 21 सितंबर, 2003 को अमर गिरफ्तार कर लिए गए। अदालत ने उनकी ज़मानत की अर्जी भी खारिज कर दी। इसके बाद 24 अक्टूबर को देहरादून की स्पेशल कोर्ट ने अमरमणि त्रिपाठी, पत्नी मधुमणि त्रिपाठी, उनके चचेरे भाई रोहित चतुर्वेदी और सहयोगी संतोष राय को मधुमिता शुक्ला की हत्या के मामले में दोषी करार दिया। अदालत ने अमरमणि को उम्रकैद की सज़ा सुना दी। अमर के पास अपील के मौके हैं। वो कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन मधु किससे दुहाई दे। उसने कब सोचा था—जिस लीडर पर सबकी रक्षा करने की ज़िम्मेदारी है, वही यूं रुसवा करेगा और जान का ही दुश्मन बन जाएगा!
: एक फूल, दो माली... : एक था गुल और एक थी बुलबुल...ये नग्मा तो बहुत ख़ूबसूरत है पर गुल एक हो और बुलबुल, बल्कि भौरें दो हो जाएं, तो मुश्किल खड़ी हो ही जाती है। अमिता मोदी के भी दो चाहने वाले थे। एक तो उनके हमसफ़र, हमनवां और नेशनल बैडमिंटन चैंपियन सैयद मोदी और दूसरे यूपी की सियासत के जाने-माने नाम—संजय सिंह। सैयद मोदी उन दिनों उत्तर प्रदेश के खेल जगत में चमकते हुए सितारे के रूप में पहचाने जाते थे। उन्होंने आठ बार राष्ट्रीय बैडमिंटन चैंपियनशिप में जीत हासिल की थी। इसी तरह संजय सिंह भी अपनी ऊर्जा व वक्तव्य की नई शैली के चलते नाम कमा रहे थे। कहते हैं, संजय और अमिता की नज़दीकियां गहराईं और यही अंतरंगता सैयद के लिए जान जाने का सबब बन गई।
23 जुलाई 1988 की सुबह सैयद मोदी लखनऊ के केडी बाबू स्टेडियम से देर तक एक्सरसाइज करने के बाद बाहर निकल रहे थे, तभी कुछ अज्ञात हमलावरों ने उनका मर्डर कर दिया था। शक की सुई जनमोर्चा नेता और यूपी के पूर्व ट्रांसपोर्ट मिनिस्टर डॉ. संजय सिंह पर उठी और फिर सीबीआई ने उन्हें आईपीसी की धारा-302 के तहत गिरफ्तार कर लिया। सीबीआई ने क़त्ल के दो दिन बाद पुलिस से मामला अपने पास ले लिया था और डॉ. संजय सिंह, सैयद मोदी और अमिता मोदी के बीच प्रेम त्रिकोण की जांच शुरू कर दी थी। सीबीआई को शक़ था कि प्रेम के इस ट्रांइगल की वज़ह से ही सैयद का क़त्ल हुआ है।
दस दिन बाद सीबीआई ने दावा किया कि मामले का खुलासा हो गया है और उसने पांच लोगों को गिरफ्तार भी किया। इनमें अखिलेश सिंह, अमर बहादुर सिंह, भगवती सिंहवी, जितेंद्र सिंह और बलाई सिंह शामिल थे। अखिलेश पर आरोप था कि उसने हत्यारों को सुपारी दी थी और अमर, भगवती व जितेंद्र गाड़ी लेकर सैयद की हत्या कराने पहुंचे थे। बलाई सिंह को रायबरेली से गिरफ्तार किया गया। सीबीआई ने संजय सिंह और अमिता मोदी के घरों पर छापे मारे और अमिता की डायरी से इस खूनी मोहब्बत के सुराग तलाशने लगी। यही डायरी थी, जिसने बताया—श्रीमती मोदी और संजय सिंह के बीच `क्लोज रिलेशनशिप’ है। संजय सिंह को मामले का प्रमुख साज़िशकर्ता बताया गया। दो दिन बाद अमिता भी गिरफ्तार कर ली गईं। 26 अगस्त को उन्हें ज़मानत पर रिहा कर दिया गया। इसके बाद 21 सितंबर को डॉ. संजय सिंह भी लखनऊ की ज़िला और सेशन अदालत के निर्देश के मुताबिक, दस हज़ार के निजी मुचलके पर जमानत हासिल कर जेल से बाहर आ गए।
इसके बाद सैयद मोदी के कत्ल के पीछे की कथा इतिहास के पन्नों में कैद होकर रह गई। आज तक इसका खुलासा नहीं हो सका है कि मोदी का मर्डर किसने किया और किसने कराया? चंद रोज बीते, संजय और अमिता की शादी हो गई। संजय बीजेपी से राज्यसभा के सांसद बने और अमिता अमेठी से लोकसभा का चुनाव जीतीं। अब दोनों साथ-साथ हैं। चुनाव लड़ते हैं, जीतते हैं। सैयद की आत्मा अब भी इंसाफ़ का इंतज़ार कर रही है। अदालत में ये साबित नहीं हुआ कि संजय का कोई गुनाह है। अमिता भी बरी हो गईं...बस सैयद ज़िंदा नहीं हैं...।
: सीडी, जिसने सनसनी मचा दी... : साल-2006 : उत्तर प्रदेश के एक पूर्वमंत्री का घर। बैकड्रॉप में मंत्रीजी के शपथग्रहण समारोह का चित्र लगा है। एक और तस्वीर डिप्लोमा संघ के अभिनंदन समारोह की है। यहां भी वो मौजूद हैं। इसी कमरे में हरे रंग की सलवार और कुर्ता पहने हुए एक युवती बैठी है। कुछ देर बाद वहां शिक्षाजगत के एक वरिष्ठ अधिकारी पहुंचते हैं...।
यह सबकुछ एक सीडी में दर्ज किया गया और जब यही सीडी निजी टेलिविजन चैनल पर टेलिकास्ट हुई, तो सियासत की दुनिया में भूचाल आ गया। सीडी में सेंट्रल कैरेक्टर निभाने वाली युवती थी—डॉ. कविता चौधरी। चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में कविता अस्थाई प्रवक्ता थी और हॉस्टल में ही रहती थी। ये उस दौर की बात है, जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी। एक टीवी चैनल ने यूपी के पूर्व कैबिनेट मिनिस्टर मेराजुद्दीन और मेरठ यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर आरपी सिंह के साथ कविता के अंतरंग संबंधों की गवाही देती सीडी जारी की। सनसनी भरी इस सीडी के रिलीज होने के बाद सियासत के गलियारों में सन्नाटा छा गया और यूपी के कई मिनिस्टर इसकी आंच में झुलसने से बाल-बाल बचे। सपा सरकार में बेसिक शिक्षा मंत्री किरणपाल, राष्ट्रीय लोकदल से आगरा विधायक और राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त बाबू लाल समेत मेरठ से सपा सरकार में सिंचाई मंत्री रह चुके डॉ. मेराजुद्दीन इस चक्कर में खूब परेशान हुए।... हालांकि ये सीडी सियासी लोगों को परेशान करने का सबब भर नहीं थी। कई ज़िंदगियां भी इसकी लपट में झुलस गईं।
23 अक्टूबर, 2006 : कविता चौधरी बुलंदशहर में अपने गांव से मेरठ के लिए निकली। 27 अक्टूबर तक वो मेरठ नहीं पहुंची, ना ही उसके बारे में कोई सुराग मिला। इसके बाद कविता के भाई सतीश मलिक ने मेरठ के थाना सिविल लाइन में कविता के अपहरण की रिपोर्ट दर्ज कराई। पुलिस ने इंदिरा आवास गर्ल्स हॉस्टल, मेरठ स्थित कविता के कमरे का ताला तोड़ा। यहां से कई चिट्ठियां बरामद की गईं। एक चिट्ठी में लिखा था—रविन्द्र प्रधान मेरा कत्ल करना चाहता है और मैं उसके साथ ही जा रही हूं। कुछ दिन बाद कविता के भाई के पास एक फ़ोन आया, दूसरी तरफ कविता थी। वो कुछ कह रही थी, तभी किसी ने फोन छीन लिया...।
पुलिसिया जांच में पता चला—रविन्द्र प्रधान ही मेन विलेन था। उसने बताया—मैंने कविता की हत्या कर दी है। रविन्द्र ने 24 दिसंबर को सरेंडर कर दिया और उसे डासना जेल भेज दिया गया। इसके बाद कविता केस सीबीआई के पास चला गया। रविन्द्र ने बताया—24 अक्टूबर को मैं और योगेश कविता को लेकर इंडिका कार से बुलंदशहर की ओर चले। लाल कुआं पर हमने नशीली गोलियां मिलाकर कविता को जूस पिला दिया। बाद में दादरी से एक लुंगी खरीदी और उससे कविता का गला घोंट दिया। आगे जाकर सनौटा पुल से शव नहर में फेंक दिया। रविन्द्र ने बताया कि कविता की लाश उसने नहर में बहा दी थी। पुलिस ने कविता का शव खूब तलाशा, लेकिन वह नहीं मिला। भले ही लाश रिकवर नहीं हुई, लेकिन पुलिस ने मान लिया कि कविता का कत्ल कर दिया गया है।
30 जून, 2008 को गाजियाबाद की डासना जेल में बंद रविन्द्र प्रधान की भी रहस्यमय हालात में मृत्यु हो गई। बताया गया कि उसने ज़हर खा लिया है। हालांकि रविंद्र की मां बलबीरी देवी ने आरोप लगाया कि उनके बेटे ने खुदकुशी नहीं की, बल्कि उसका मर्डर कराया गया है। ऐसा उन लोगों ने किया है, जिन्हें ये अंदेशा था कि रविन्द्र सीबीआई की ओर से सरकारी गवाह बन जाएगा और फिर उन सफ़ेदपोशों का चेहरा बेनकाब हो जाएगा, जो कविता के संग सीडी में नज़र आए थे। कविता के भाई ने भी आरोप लगाया कि चंद मिनिस्टर्स और एजुकेशनिस्ट्स के इशारे पर उनकी बहन का खून हुआ और रविन्द्र प्रधान को भी मार डाला गया।
... पर कहानी इतनी सीधी-सादी नहीं। इसमें ऐसे-ऐसे पेंच थे, जो दिमाग चकरा देते हैं। कविता की हत्या के आरोपी रविन्द्र ने कई बार बयान बदले। पहले कहा गया कि एक मंत्री के कविता के साथ नाजायज़ ताल्लुकात थे, फिर यह बात सामने आई कि कविता का रिश्ता ऐसे गिरोह से था, जो नामचीन हस्तियों के अश्लील वीडियोज़ बनाकर उन्हें ब्लैकमेल करता था। कविता इनकी ओर से हस्तियों को फांसने का काम करती थी। एक स्पाई कैम के सहारे ये ब्ल्यू सीडीज़ तैयार की जाती थीं।
पुलिस की मानें, तो कविता के इस काम में रविन्द्र प्रधान और योगेश नाम के दो लोग साथ देते थे। उन्होंने लखनऊ में पूर्व सिंचाई मंत्री डॉ. मेराजुद्दीन की अश्लील सीडी बनाई और उनसे पैंतीस लाख रुपए वसूल किए। रवीन्द्र ने बताया था कि कविता के कब्जे में चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर आर. पी. सिंह और ललित कला अकादमी के अध्यक्ष कुंवर बिजेंद्र सिंह की अश्लील सीडी भी थी।
ब्लैकमेलिंग के एवज में मिले पैसे के बंटवारे को लेकर तीनों के बीच झगड़ा हुआ, तो कविता ने धमकी दी कि वो सारे राज़ का पर्दाफ़ाश कर देगी। रविन्द्र और योगेश ने फिर योजना बनाई और कविता को गला दबाकर मार डाला। पुलिस की थ्योरी मानें, तो कविता को भी इसका इलहाम था और उसने अपने कमरे में कुछ चिट्ठियां लिखकर रखी थीं। इनमें ही लिखा था—मुझे रविन्द्र से जान का ख़तरा है। इस मामले में योगेश और त्रिलोक भी कानून के शिकंजे में आए। जांच में पता चला कि कविता के मोबाइल फोन की लास्ट कॉल में उसकी राज्यमंत्री दर्जा प्राप्त बाबू लाल से बातचीत हुई थी।
सीबीआई और पुलिस ने बार-बार कहा कि कई मंत्री इस मामले में इन्वॉल्व हैं और उनसे भी पूछताछ होगी। विवाद बढ़ने के बाद राज्य के पूर्व सिंचाई मंत्री डॉ. मेराजुद्दीन ने राष्ट्रीय लोकदल से इस्तीफा दे दिया, वहीं बाबू लाल ने भी पद से त्यागपत्र दे दिया। सियासत और सेक्स के इस कॉकटेल ने खुलासा किया कि महत्वाकांक्षा की शिकार महिलाएं, वासना के भूखे लोग और आपराधिक मानसिकता के चंद युवा...ये सब पैसे और जिस्म के लालच में इतने भूखे हो चुके हैं कि उन्हें इंसानियत की भी फ़िक्र नहीं है। दागदार नेताओं को कोई सज़ा नहीं हुई, रविन्द्र और कविता, दोनों दुनिया में नहीं हैं, अब कुछ बचा है... तो यही बदनाम कहानी!
लेखक चण्डीदत्त शुक्ल स्वाभिमान टाइम्स हिंदी दैनिक में समाचार संपादक के पद पर कार्यरत हैं. उनका यह लिखा चार किश्तों में स्वाभिमान टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है.
रूपम पाठक एक चेतावनी है!
: स्वभाविक न्याय न मिलने का परिणाम है यह हत्याकांड : सारे देश में लोगों के लिये यह खबर एक नया सन्देश लेकर आयी है कि बिहार विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर चुनकर आये बाहुबली विधायक राजकिशोर केशरी का जनता से मेलमिलाप के दौरान रूपम पाठक ने सार्वजनिक रूप से चाकू घोंपकर बेरहमी से कत्ल कर दिया। मौके पर तैनात पुलिस वालों ने रूपम को घटनास्थल पर पकड़ लिया और पीट-पीट कर अधमरा कर दिया।
घटनास्थल पर उपस्थित अधिकांश लोगों को और विशेषकर पुलिसवालों को इस बात की पूरी जानकारी थी कि विधायक पर क्यों हमला किया गया है एवं हमला करने वाली महिला कितनी मजबूर थी। बावजूद इसके पुलिस वालों ने आक्रमण करने वाली महिला अर्थात् रूपम पाठक द्वारा किये गए आक्रमण के समय सुरक्षा गार्ड उसको नियन्त्रित नहीं कर सके और उसकी बेरहमी से पिटाई की, जिसका पुलिस को कोई अधिकार नहीं था। जहाँ तक मुझे जानकारी है, रूपम की पिटाई करने वाले पुलिस वालों के विरुद्ध किसी प्रकार का प्रकरण तक दर्ज नहीं किया गया है। जबकि रूपम के विरुद्ध हत्या का अभियोग दर्ज करने के साथ-साथ, रूपम पर आक्रमण करने वालों के विरुद्ध भी मामला दर्ज होना चाहिए था।
राजकिशोर केशरी की हत्या के बाद यह बात सभी के सामने आ चुकी है कि इस घटना से पहले रूपम पाठक ने बाकायदा लिखित में फरियाद की थी कि राज किशोर केशरी, गत तीन वर्षों से उसका यौन-शोषण करते रहे थे और उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित भी कर रहे थे। जिसके विरुद्ध नीतीश कुमार प्रशासन से कानूनी संरक्षण प्रदान करने और दोषी विधायक के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करने की मांग भी की गयी थी, लेकिन पुलिस प्रशासन एवं नीतिश सरकार ने रूपम पाठक को न्याय दिलाना तो दूर, किसी भी प्रकार की प्राथमिक कानूनी कार्यवाही करना तक जरूरी नहीं समझा। आखिर सत्ताधारी गठबन्धन के विधायक के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही कैसे की जा सकती थी?
स्वाभाविक रूप से रूपम पाठक द्वारा पुलिस को फरियाद करने के बाद; विधायक राज किशोर केशरी एवं उनकी चौकड़ी ने रूपम पाठक एवं उसके परिवार को तरह-तरह से प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। सूत्र यह भी बतलाते हैं कि रूपम पाठक से राज किशोर केशरी के लम्बे समय से सम्बन्ध थे। जिन्हें बाद में रूपम ने यौन शोषण का नाम दिया है। हालांकि इन्हें रूपम ने अपनी नियति मानकर स्वीकार करना माना है, लेकिन पिछले कुछ समय से राजकिशोर केशरी ने रूपम की 17-18 वर्षीय बेटी पर कुदृष्टि डालना शुरू कर दिया था, जो रूपम पाठक को मंजूर नहीं था। इसी कारण से रूपम पाठक ने पहले पुलिस में गुहार की और जब कोई सुनवाई नहीं हुई तो खुद ही विधायक एवं विधायक के आतंक का खेल खतम कर दिया!
रूपम पाठक ने जिस विधायक का खेल खत्म किया है, उस विधायक के विरुद्ध दाण्डिक कार्यवाही नहीं करने के लिये बिहार की पुलिस के साथ-साथ नीतिश कुमार के नेतृत्व वाली संयुक्त सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती है। विशेषकर भाजपा इस कलंक को धो नहीं सकती, क्योंकि राजकिशोर केशरी को भाजपा ने यह जानते हुए भी टिकट दिया कि राज किशोर केशरी पूर्णिया जिले में आपराधिक छवि के व्यक्ति के रूप में जाना जाता था। जिसकी पुष्टि चुनाव लड़ने के लिये पेश किये गये स्वयं राजकिशोर केशरी के शपथ-पत्र से ही होती है।
पवित्र चाल, चरित्र एवं चेहरे तथा भय, भूख एवं भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने का नारा देने वाली भाजपा का यह भी एक चेहरा है, जिसे बिहार के साथ-साथ पूरे देश को ठीक से पहचान लेना चाहिये और नीतिश कुमार को देश में सुशासन के शुरुआत करने वाला जननायक सिद्ध करने वालों को भी अपने गिरेबान में झांकना होगा। इससे उन्हें ज्ञात होना चाहिये कि बिहार के जमीनी हालात कितने पाक-साफ हैं। जो सरकार एक महिला द्वारा दायर मामले में संज्ञान नहीं ले सकती, उससे किसी भी नयी शुरुआत की उम्मीद करना दिन में सपने देखने के सिवा कुछ भी नहीं है!
रूपम पाठक का मामला केवल बिहार, भाजपा, नीतीश कुमार या राजनैतिक ताकतों के मनमानेपन का ही प्रमाण नहीं है, बल्कि यह प्रकरण एक ऐसा उदाहरण है जो हर छोटे-बडे व्यक्ति को यह सोचने का विवश करता है कि नाइंसाफी से परेशान इंसान किसी भी सीमा तक जा सकता है। पुलिस, प्रशासन एवं लोकतान्त्रिक ताकतें आम व्यक्ति के प्रति असंवेदनशील होकर अपनी पदस्थिति का दुरूपयोग कर रही हैं और देश के संसाधनों का मनमाना उपयोग तथा दुरूपयोग कर रही हैं। सत्ता एवं ताकत के मद में आम व्यक्ति के अस्तित्व को ही नकार रही हैं।
ऐसे मदहोश लोगों को जगाने के लिये रूपम ने फांसी के फन्दे की परवाह नहीं करते हुए, अन्याय एवं मनमानी के विरुद्ध एक आत्मघाती कदम उठाया है। जिसे यद्यपि न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन रूपम का यह कदम न्याय एवं कानून-व्यवस्था की विफलता का ही प्रमाण एवं परिणाम है। जब कानून और न्याय व्यवस्था निरीह, शोषित एवं दमित लोगों के प्रति असंवेदनशील हो जाते हैं तो रूपम पाठक तथा फूलन देवियों को अपने हाथों में हथियार उठाने पड़ते हैं। जब आम इंसान को हथियार उठाना पडता है तो उसे कानून अपराधी मानता है और सजा भी सुनाता है, लेकिन देश के कर्णधारों के लिये और विशेषकर जन प्रतिनिधियों तथा अफसरशाही के लिये यह मनमानी के विरुद्ध एक ऐसी शुरुआत है, जिससे सर्दी के कड़कड़ाते मौसम में अनेकों का पसीना छूट रहा है।
अत: बेहतर होगा कि राजनेता, पुलिस एवं उच्च प्रशासनिक अधिकारी रूपम के मामले से सबक लें और लोगों को कानून के अनुसार तत्काल न्याय देने या दिलाने के लिये अपने संवैधानिक और कानूनी फर्ज का निर्वाह करें, अन्यथा हर गली मोहल्लें में आगे भी अनेक रूपम पैदा होने से रोकी नहीं जा सकेंगी। समझने वालों के लिये रूपम एक चेतावनी है!
लेखक डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश' होम्योपैथ चिकित्सक तथा मानव व्यवहारशास्त्री, विविध विषयों के लेखक, टिप्पणीकार, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषय के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध 1993 में स्थापित एवं पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं
बिहार में ईमानदार पत्रकारिता मतलब जेल!
क्या बिहार की पत्रकारिता को घुन लग गया है? रूपम पाठक को इन्साफ के लिए जब मीडिया का सहारा चाहिए था तो सारे मीडिया हॉउस सत्ता सेवा में लगे हुए थे. क्या हिन्दुस्तान क्या जागरण, आज हो या सहारा या फिर प्रभात खबर या फिर अन्य अखबार, सभी के पत्रकार से लेकर सम्पादक तक नीतीश सेवा में लगे हुए थे तो इन्साफ की आवाज में रूपम का साथ देने का साहस किया नवलेश पाठक ने. जब रूपम ने इन्साफ की लड़ाई का आखिरी हथियार चला दिया तो परिणाम स्वरुप नवलेश पाठक को सरकार के नुमाइंदे अपहरण कर के जेल भेज देते हैं और बिहार के बड़े अख़बारों के सम्पादक हड्डी के लिए नीतीश दरबार में कूँ कूँ करते हुए नजर आते हैं. अगर बिहार की पत्रकारिता दहाड़ नहीं सकती तो भौंकना भी भूल चुकी है.
पूर्णिया सदर से भाजपा विधायक राजकिशोर केशरी हत्याकांड मामले में पुलिस ने एक स्थानीय साप्ताहिक के संपादक नवलेश पाठक के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर लिया है. पुलिस ने उसे आज गिरफ्तार कर लिया. पूर्णिया रेंज के डीआईजी (पुलिस उपमहानिरीक्षक) अमित कुमार ने आज पत्रकारों को बताया कि दिवंगत विधायक के भतीजे सुदीप केसरी के बयान पर केहाट थाना में विधायक की हत्या की आरोपी रुपम पाठक, पत्रकार नवलेश पाठक और एक अन्य अज्ञात व्यक्ति के खिलाफ कल रात प्राथमिकी दर्ज कर ली गयी. डीआईजी ने कहा कि पुलिस ने नवलेश पाठक को उसके घर से गिरफ्तार किया और उससे कई घंटे तक पूछताछ भी की गयी है.
मालूम हो कि पाठक ‘क्विसलिंग’ नामक एक साप्ताहिक पत्रिका के संपादक हैं. इस पत्रिका में ही सबसे पहले आरोपी महिला रुपम पाठक की शिकायत पर उसकी यौन शोषण की रिपोर्ट कुछ ही महीने पहले छपी थी. पुलिस को उम्मीद है कि नवलेश पाठक की गिरफ्तारी से इस घटना के बारे में कुछ नयी बातें सामने आ सकती हैं. इधर, पाठक की पत्नी ने आरोप लगाया है कि पुलिस जांच में पक्षपात कर रही है. साथ ही उन्होंने आशंका जताई है कि पुलिस हिरासत में पत्रकार की जान को खतरा है. रूपम पाठक की आज कोर्ट में पेशी होनी थी. लेकिन, ख़राब स्वास्थ्य के कारण आज रूपम की पेशी अदालत में नहीं हो सकेगी. सो, आज रूपम को डाक्टरों की निगरानी कटिहार मेडिकल हास्पिटल एंड कालेज में ही रखा जायेगा. मालूम हो कि रूपम ने अपने बयान में कल ही विधायक की हत्या की बात स्वीकार ली थी.
लड़कीबाज अफसर!
: कृपासागर महिलाओं में विशेष रूचि रखते थे : राम मोहन राव ने दूरदर्शन का जमकर दोहन किया : शोषण करने वाले हरीश अवस्थी, कीर्ति अग्रवाल जैसों में कोई एड्स से मरा तो कोई अन्य खराब हालात में चल बसा : विलफ्रेड लाजर्स हमेशा शराब पिए रहता था : प्रेस इंफारमेशन ब्यूरो नहीं प्रेस प्राब्लम ब्यूरो बन गया है पीआईबी : कमेटी में कई ऐसे पत्रकार हैं जिन्हें खुद मान्यता नहीं मिली, दूसरे को मान्यता दिलवाते हैं : पीआईबी का भट्ठा बिठाने वाले अफसरों की कहानी :
कहने को तो भारत वर्ष 1947 में आजाद हो गया था, परन्तु आज भी भारत में वर्ष 1860 के अंग्रेजों के बनाए हुए कानून लागू हैं. हमारे देश की न्यायपालिका आज भी अंग्रेजों के द्वारा बनाए गए ढर्रे पर चल रही है. हमारे देश की कानून की शिक्षा सीआरपीसी एवं आईपीसी दोनों ही अंग्रेजी शासन की देन है. अंग्रेज तो चले गए परन्तु उनके जाने के बाद जो सत्ता पर काबिज हुए वह काले अंग्रेज उन गोरे अंग्रेजों से ज्यादा खतरनाक निकले. प्रजातंत्र में जो मौजूदा सूचना तंत्र है वह अंग्रेजी जमाने से चला आ रहा है. जो उसमें परिवर्तन हुए वह अधिकारियों ने अपनी इच्छानुसार अपने हित के लिए किया.
आजादी से पहले सूचना विभाग का स्वरूप यह नहीं था. अंग्रेजी शासन के शुरू के दिनों में मुख्य समाचार पत्रों में कोलकाता से प्रकाशित स्टेट्समैन और बंबई से टाइम्स आफ इंडिया, इलाहाबाद से पायनियर और लाहौर से ट्रिब्यून मुख्य थे. वैसे तो बांग्लाभाषा का अमृत बाजार पत्रिका भी उसी समय का समाचार पत्र था. समाचार विभाग आजादी से पहले गृह मंत्रालय के अधीन था. आजादी से पहले इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर तीन महीने के लिए आकर एक रिपोर्ट बनाते थे और उसे गृह मंत्रालय को सौंप कर चले जाते थे, फिर जब 1952 में भारत में प्रथम बार चुनाव हुए तो इसे गृह मंत्रालय से हटा लिया गया और सूचना प्रसारण मंत्रालय बना. इस विभाग में रेडियो प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो, फिल्म प्रभाग, फील्ड स्वलिसिटी, डीएवीपी, रजिस्ट्रार आफ न्यूज पेपर (आरएनआई) बनाए गए. पहले दूरदर्शन नहीं था वह बाद में बना.
आजादी के पश्चात प्रेस इनफारर्मेशन विभाग में जिन लोगों की भर्ती होती थी उनके लिए देश के किसी समाचार पत्र में 5-7 वर्ष का अनुभव आवश्यक था. वह लोग स्थाई रूप से नियुक्त नहीं किए जाते थे. उस कड़ी में एमएल भारद्वाज जो लाहौर के सिविल मिलिट्री गजट में काम करते थे. प्रताप कपूर, राघवन, डिपेना, एलआर नायर, कुलदीप नैयर, जीजी मीरचंदानी, योजना आयोग के संपादक खुशवंत सिंह, चन्द्रन साहब, आजाद जगन्नाथ, अशोक जी आदि यह सभी लोग अपने-अपने कामों में दक्षता रखते थे. कुछ लोग तो जूनियर श्रेणी के आते थे, वह कार्यालय की ओर से भी आते थे.
अंग्रेजी शासन में फेडरल पब्लिक सर्विस कमिशन कहलाता था. जिसका मुख्य कार्यालय शिमला में होता था. परन्तु बाद में इसका नाम यूनियन पब्लिक सर्विस कमिशन हो गया ओर इसका प्रधान कार्यालय दिल्ली में हो गया. जब पब्लिक सर्विस कमिशन बन गया तो इनफार्मेशन विभाग में सीधे भरती होने लगी. ठेके की प्रथा बंद कर दी गई. जो लोग पहले लगभग 1950 से काम कर रहे थे, उन्हें स्थाई रूप से नियुक्त कर दिया गया. और आगे के लिए कमिशन यानी पब्लिक सर्विस कमिशन से भरती होने लगी. इस कड़ी में जिन्हें स्थाई नौकरी में बदल दिया गया था, उन्हीं को प्रधान सूचना अधिकारी बना दिया गया. जैसे एलआर नायर, एमएल भारद्वाज, डिपेना, टीवी आरचारी. उसके बाद डाक्टर वाजी बने परन्तु आपातकाल 1975 में एक आईएएस अधिकारी जिसका नाम एल दयाल था, उसे प्रधान सूचना अधिकारी की कुर्सी पर बैठा दिया गया.
आपातकाल के बाद 1977 में हिन्दुस्तान टाइम्स से जीएस भार्गव को लाकर प्रधान सूचना अधिकारी के तौर पर बैठा दिया गया. आपात काल के दौरान सभी न्यूज एजेंसियों का एक समूह बनाकर एक नई समाचार एजेंसी बनाई गई थी. उसका संपादक विलफ्रेड लाजर्स था. 1980 में जब जनता पार्टी के शासन के बाद श्रीमती गांधी दोबारा प्रधानमंत्री बनीं, उसी समाचार एजेंसी के संपादक को प्रधान सूचना अधिकारी नियुक्त कर दिया गया. आपात काल में क्योंकि उसने इंदिरा जी का साथ दिया था इसलिए उनके विश्वास का व्यक्ति था. परन्तु उसकी अपनी पत्नी से नहीं बनती थी. वह सदा शराब पिये रहता था.
लाजर्स के जाने के पश्चात यूसी तिवारी प्रधान सूचना अधिकारी बनाए गए. लोगों का कहना है कि उन्होंने कैबिनेट के कुछ पेपर लीक कर दिए थे. इसलिए 1985 में उनकी जगह राम मोहन राव को प्रधान सूचना अधिकारी नियुक्त किया गया. बुद्धि से शातिर था. पीआईओ राम मोहन राव ने पीआईओ बनने के बाद एकीडेशन कमेटी के तीन सदस्यों बीएन नायर, विश्व बंधु गुप्ता और एचके दुआ से स्वीकृति लेकर पीआईबी के रिटायर लोगों को भी पत्रकार के रूप में मान्यता दिलवाने की संस्तुति करवा दी थी, तभी से 1985 के बाद पीआईबी के रिटायर लोग भी पत्रकार बनने लगे.
राम मोहन राव अपनी बातचीत से लोगों को प्रभावित कर लेता था. परन्तु प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इन्हें बाबू जगजीवन राम की मृत्यु की अपुष्ट खबर प्रसारित करने के कारण बर्खास्त कर दिया था. इनकी जगह डीएवीपी से कृपासागर को लाकर बिठा दिया गया, जो महिलाओं में विशेष रूचि रखते थे. राम मोहन राव फिर किसी तरह दोबारा प्रधान सूचना अधिकारी बन गए. उन्होंने दोबारा आकर जिस प्रकार से दूरदर्शन का दोहन किया वह ऐतिहासिक है. उन्होंने अपनी लड़की को एक प्राइवेट न्यूज एजेंसी के मालिक प्रेम प्रकाश के यहां पर ट्रेनिंग के लिए भेजा. वहां दूरदर्शन कवरेज पर जाता था. दूरदर्शन से कवरेज न करवाकर प्रेम प्रकाश की एजेंसी से कवरेज करवाने लगे. इस प्रकार प्रेम प्रकाश और राम मोहन राव बहुत निकट हो गए. बाद में दोनों संबंधी बन गए. बाद में दोनों ने मिल कर एक नई एजेंसी एएनआई बना ली. रिटायरमेंट के बाद अब राम मोहन राव उसके मुखिया हैं और प्रेम प्रकाश ने गोवा में होटल खोल लिया.
राम मोहन राव के पश्चात एस. नरेन्द्र पीआईओ बने. वे यहां पर डीएवीपी से आए थे. एस नरेंद्र अपनी पत्नी के नाम से डीएवीपी के लिए फिल्में बना कर डीएवीपी को ही बेचा करते थे. पीआईओ के रूप में एस नरेन्द्र पहले अधिकारी थे जो पब्लिक सर्विस कमिशन के द्वारा भरती किए गए थे. इसलिए उनमें अफसरों वाला अहंकार भी था. वह सदा अपने अधीनस्थ अधिकारियों को डराते रहते थे. उनकी केवल एक ही अधिकारी शर्मा से बनती थी, जो लाइब्रेरी इंचार्ज थे. शर्मा के पीआईबी से चले जाने पर नरेन्द्र को कोई अपने पास नहीं बैठाता था, वह जब भी आते तो लाइब्रेरी में ही बैठते थे.
नरेन्द्र के चले जाने पर पीआईबी में जाटों का साम्राज्य हो गया था. पहले यहां पर साहब सिंह प्रधान सूचना अधिकारी बने. पीआईबी में आने से पहले आप फौज में मेजर थे. इसलिए अनुशासन प्रिय थे और अपने काम में दक्षता रखते थे. इसके बाद शकुंतला महाबल और तीसरी जाटनी दीपक संधू पीआईओ बनीं. दीपक संधू के जाने के पश्चात थोड़े दिन के लिए उमाकांत मिश्रा प्रधान सूचना अधिकारी बने. यह पीआईबी में भारतीय पुलिस सेवा से आए थे. वर्तमान नीलम भाटिया हैं, जो शादी के पश्चात नीलम कपूर बन गईं.
पत्र सूचना कार्यालय यानी पीआईबी से ही रेडियो विभाग या दूरदर्शन या डीएवीपी, आरएनआई सभी विभागों में अधिकारी और कर्मचारी जाते हैं. दूरदर्शन में पत्रकार और अधिकारीगण भी पत्र सूचना कार्यालय यानी पीआईबी के द्वारा ही भेजे जाते हैं. जब से दूरदर्शन बना था तो लोगों के लिए यह एक मुख्य आकर्षण का केन्द्र था. खासकर दूरदर्शन में खबर पढ़ने के लिए यानी समाचार वाचक या प्रोग्रामों में हिस्सा लेने वालों का गला और तला ठीक होना चाहिए. पहले इसके लिए या तो अधिकारियों की पत्नियों और बेटियों या मंत्री महोदय की सिफारिश पर बड़े घरानों की बहू-बेटियों को रखा जाता था. उसके लिए उन्हें थोड़ी कुर्बानी देनी पड़ती थी. दूरदर्शन के समाचार संपादक और प्रोड्यूसर उनका शोषण करते थे. मैं कितने ही अधिकारियों को जानता हूं, जैसे हरीश अवस्थी, कीर्ति अग्रवाल जैसे कितने ही अधिकारी जिन्होंने कितनों का शारीरिक शोषण किया और अंत में बीमार होकर मरे. किसी को एड्स हुआ तो कुछ अन्य खराब स्थितियों में मरे.
पिछली घटनाओं को छोड़ो, दूरदर्शन के निवर्तमान डीजी बीएस लाली विदेशी चैनलों को कामनवेल्थ गेम्स दिखाने के अरबों रुपये के घोटाले में फंसे हैं. दूरदर्शन के लिए अरबों रुपये का सामान आयात किया जाता है. जिसका अधिकारीगण कमीशन खा लेते हैं परन्तु वह बेकार पड़ा रहता है. दूरदर्शन के लिए प्रोग्राम बनाने के प्रोडयूसरों को बिना पैसा दिए प्रोग्राम बनाने का आर्डर नहीं मिलता. इसी प्रकार समाचार पत्रों के लिए अखबारी कागज आयात करने के लिए जो लाइसेंस मिलता है वह भी घोटालों का केन्द्र रहा है, मशीनें आयात करने में भी भारी रकम चुकानी पड़ती थी.
किसी समाचार पत्र-पत्रिका में विज्ञापन उसकी मेरूदंड है. बिना विज्ञापन के समाचार पत्र, पत्रिका नहीं चल सकते. विज्ञापन उस समाचार पत्र, पत्रिका के द्वारा प्रकाशित प्रतियों के आधार पर मिलता था, मिलता है. उसके माध्यम से भी अधिकारियों ने करोड़ों डकारें. डीएवीपी से बड़े समाचार पत्र अपनी ही शर्तों पर विज्ञापन की दरें तय कराते हैं, इसलिए अधिकारीगण इन समाचार पत्रों से डरते भी हैं इसलिए दोनों वर्गों में आपसी तालमेल रहता है. उसी कारण से छोटे और मझोले पेपर वंचित रह जाते हैं. अब तो एक नया मीडिया इलेक्ट्रानिक मीडिया के आने से विज्ञापन का अधिकतम भाग इलेक्ट्रानिक मीडिया की ओर चला जाता है.
अब हम उन अधिकारियों के बारे में चर्चा करते हैं जो सूचना तंत्र में हैसियत रखने वाले या तो सरकार को या समाचार पत्र या पत्रिकाओं को लूटने का कार्य किया. इस सभी कार्यों के लिए समय-समय पर प्रदर्शन-धरने-पुतला दहन तक होता रहा. परन्तु मंत्रियों और सचिव स्तर के व्यक्तियों द्वारा इन्हें संरक्षण मिलता रहा क्योंकि हिस्सा तो उन्हें भी मिलता रहा. लूटने वाले अधिकारियों में जो कुछ वर्ष पूर्व ही रिटायर हुए उनमें लोग बहादुर सिंह, एनजी कृष्णा, एस नरेन्द्र का नाम मुख्य रूप से लेते हैं. वहीं एक अधिकारी जो आज भी वहीं पर हैं, उनका भी नाम लेते हैं.
अब हम वर्तमान व्यवस्था में पत्र सूचना कार्यालय के अधिकारियों की चर्चा करेंगे. यहां पर वर्तमान समय में पीआईओ की जगह डायरेक्टर जनरल के पद पर नीलम कपूर मुख्य अधिकारी नियुक्त हैं, उन्होंने जब पत्रकारों को मान्यता देने के लिए जिस कमेटी का गठन करवाया, उसमें से उस एसोसिएशन का नाम ही अपने एक नजदीकी से उड़वा दिया. सूचना के अधिकार के बाद जब कागजों की जांच हुई तो यह लोग दोषी पाए गए और फिर उन्हें कमेटी में रखा गया. पत्र सूचना कार्यालय की कमेटी में वर्तमान समय में कितने ही ऐसे पत्रकार हैं जिनको खुद को अभी मान्यता नहीं मिली, परन्तु वह कमेटी के सदस्य होकर मान्यता दिलवाते हैं. कितने ही कमेटी के सदस्य विभिन्न प्रांतों से आते हैं. उन्हें दिल्ली में होटल में ठहरने का खर्चा, टैक्सी का खर्चा, हवाई जहाज से आने-जाने का खर्चा दिया जाता है.
कुछ सदस्य ऐसे भी हैं जो किसी संगठन से नहीं आते, उन्हें मंत्री महोदय या पीआईओ ने स्वयं को अपनी सेफ्टी के लिए रखा है. क्योंकि अपने मनमाने ढंग से गाइड लाइन में परिवर्तन करने के लिए इन्हीं लोगों की मदद ली जाती है. अभी हाल में मान्यता देने के लिए एक नया शिगूफा छोड़ा गया था कि जिस पत्रकार का प्रोविडियंट फंड नहीं कटता, उसे मान्यता नहीं मिलेगी. जब पत्रकारों ने इसका विरोध किया और कहा कि आप अपनी थानेदारी क्यों दिखा रहे हैं. प्रोविडियंट फंड कटा है क्यों नहीं कटा यह तो प्रोविडियंट फंड कार्यालय देखेगा, वह अखबार मालिक से पूछेगा क्यों नहीं काटा गया. क्योंकि समाचार पत्र के मालिक को भी उतना ही पैसा जितना काटा है, उसे जमा करना पड़ेगा. परन्तु समाचार पत्र जब पोविडियंट फंड नहीं काटता तो वह जमा ही नहीं कराता. इसकी सजा पत्रकार को क्यों दी जाए. कमेटी के सदस्यों ने इसके बाद उस प्रोविडियंट फंड कटाना है या नहीं उसे वापस ले लिया.
अब पीआईबी में जो नियुक्तियां होती हैं वह सीधे पब्लिक सर्विस कमिशन के द्वारा होती हैं. इन अधिकारियों का कोई अनुभव होता. वह सीधे अपने आपको ब्यूरोक्रेट समझने लगे जबकि यह विभाग सरकार और जनता के कोआर्डिनेशन के लिए बनाया गया था. वर्ष 1973 तक प्रोफेशनल अधिकारी थे. जिन्होंने पहले लोगों के साथ बैठकर सीखा था. उन्हें उसका फायदा भी हुआ. 1983 में नया रिक्रूटमेंट आया. फिर बीच में कोई भर्ती नहीं हुई. यह बीच का गैप दुखदायी बना. 1993 में वह सभी लोग रिटायर कर गए, जो कभी अखबारों के कार्यालयों से आए थे. 1993 से नॉन प्रोफेशनल लोग आने लगे. सीधे बीए, बीएससी, एमए, एमएससी पास किया और सीधी भर्ती हो गई. इनलोगों की अनुभवहीनता के कारण विभिन्न मंत्रालयों ने अपने विभाग की पब्लिसिटी के लिए अपना सूचना अधिकारी और अपने पब्लिसिटी का विंग बना लिया. यह मंत्रालय समाचार पत्रों को सीधे ही खबरें देने लगे. पीआईबी में जो कुछ थोड़ा-बहुत बचाखुचा है, खानापूर्ति के लिए विभाग इन्हें भेज देते हैं.
इसलिए इन अधिकारियों के कारण पीआईबी का भट्ठा बैठ गया. इन अधिकारियों से पूछिए तो जवाब मिलेगा कि वेबसाइट पर देख लो. प्रेस नोट भी वहीं देख लो. क्योंकि यह तो अब ब्यूरोक्रेट बन गए. अपने कार्यालयों के सामने तख्तियां टांग दी. मेरे पीए से मिल लो. जैसे आईएएस अधिकारी के कमरे के सामने लिखा होता है. इसलिए प्रेस फैसिलिटी की जगह प्रेस प्रॉब्लम विभाग बन गया है.
लेखक विजेंदर त्यागी देश के जाने-माने फोटोजर्नलिस्ट हैं. पिछले चालीस साल से बतौर फोटोजर्नलिस्ट विभिन्न मीडिया संगठनों के लिए कार्यरत रहे. कई वर्षों तक फ्रीलांस फोटोजर्नलिस्ट के रूप में काम किया और आजकल ये अपनी कंपनी ब्लैक स्टार के बैनर तले फोटोजर्नलिस्ट के रूप में सक्रिय हैं. ''The legend and the legacy : Jawaharlal Nehru to Rahul Gandhi'' नामक किताब के लेखक भी हैं विजेंदर त्यागी. यूपी के सहारनपुर जिले में पैदा हुए विजेंदर मेरठ विवि से बीए करने के बाद फोटोजर्नलिस्ट के रूप में सक्रिय हुए. वर्ष 1980 में हुए मुरादाबाद दंगे की एक ऐसी तस्वीर उन्होंने खींची जिसके असली भारत में छपने के बाद पूरे देश में बवाल मच गया. तस्वीर में कुछ सूअर एक मृत मनुष्य के शरीर के हिस्से को खा रहे थे. असली भारत के प्रकाशक व संपादक गिरफ्तार कर लिए गए और खुद विजेंदर त्यागी को कई सप्ताह तक अंडरग्राउंड रहना पड़ा. विजेंदर त्यागी को यह गौरव हासिल है कि उन्होंने जवाहरलाल नेहरू से लेकर अभी के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तस्वीरें खींची हैं. वे एशिया वीक, इंडिया एब्राड, ट्रिब्यून, पायनियर, डेक्कन हेराल्ड, संडे ब्लिट्ज, करेंट वीकली, अमर उजाला, हिंदू जैसे अखबारों पत्र पत्रिकाओं के लिए काम कर चु
तेलंगाना कितना संभावित!
तेलंगाना मुद्दे पर न्यायमूर्ति श्रीकृष्ण समिति की लंबी-चौड़ी रिपोर्ट से आंध्र में आंदोलन की आग और भभक उठी है. इस विस्तृत रिपोर्ट में वैसे तो तेलंगाना को लेकर छह विकल्प सुझाए गए हैं और व्यापक संदर्भों में अनेक तुलनात्मक स्थितियों का जिक्र है, लेकिन आलोचकों का यही मानना है कि इसमें कुछ भी नया नहीं है. सिर्फ उन्हीं बातों को तेलंगाना, रायलसीमा, तटीय आंध्र और हैदराबाद के बारे में बतौर विकल्प उठाया गया है, जिन्हें लोग दशकों से बातचीत में उठाते रहे हैं. खुद समिति ने अपने छह विकल्पों या सुझावों में से शुरुआती चार को यह कहते हुए खारिज कर दिया है कि वे अव्यवहारिक हैं और शेष दो यानी विकल्प संख्या पांच और छह ऐसे हैं, जिन्हें व्यवहारिक माना गया है. इनमें से एक में आंध्र के बंटवारे और तेलंगाना के गठन की बात है तो दूसरे में संयुक्त आंध्र को कुछ क्षेत्रीय स्वायत्त समितियों के गठन के साथ स्वीकार किया गया है. लेकिन समिति का जोर अंतिम विकल्प यानी कि संयुक्त आंध्र के पक्ष में ही है. कुल मिलाकर स्थिति ढाक के तीन पात जैसी है.
पिछले गुरुवार को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने रिपोर्ट पर विचार के लिए जो बैठक बुलाई, उसका अनेक प्रमुख दलों जैसे तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस), तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी), भाजपा इत्यादि ने बहिष्कार करके ये संकेत दे दिया है कि वे रिपोर्ट से सहमत नहीं हैं और केंद्र इस बाबत स्पष्ट प्रस्ताव लेकर सामने आए. अब केंद्र ने महीने के अंत में फिर इस मसले पर बैठक बुलाई है, लेकिन हालात में कोई बदलाव होगा, ऐसा नहीं लगता.
गौरतलब ये है कि श्रीकृष्ण समिति रिपोर्ट के अनेक तथ्य चौंकाने वाले हैं. सबसे पहले तो यही कि सिंचाई, खेती, शिक्षा और रोजगार के संदर्भ में तेलंगाना शेष आंध्र की तुलना में बहुत पिछड़ा हो, ऐसा नहीं है. समिति ने यह निष्कर्ष हैदराबाद को अलग करके भी निकाला है, क्योंकि हैदराबाद तेलंगाना क्षेत्र में ही आता है और वो अनेक संदर्भों में प्रदेश के ही नहीं, देश के विकसित शहरों में गिना जाता है. समिति का तो यहां तक मानना है कि तेलंगाना के क्षेत्रों की तुलना में बहुत खराब स्थिति तो रायलसीमा की है. लेकिन समिति ने तेलंगाना समर्थक पार्टियों से सहमति जताई है कि बड़े बांधों की कमी और कमजोर तबकों की शिक्षा और उनके विकास के अवसरों पर ध्यान नहीं दिया गया है. क्षेत्र में प्रशासनिक व्यवस्था और स्वास्थ्य सुविधाएं भी कमजोर स्थितियों में हैं.
लेकिन इस बाबत खुद श्रीकृष्ण समिति का मानना है कि इन समस्याओं के निदान के लिए छोटे राज्यों का गठन कोई उपयुक्त मार्ग नहीं है. इस संदर्भ में समिति झारखंड, छत्तीसगढ, उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों के गठन का मुद्दा भी उठाती है. समिति अपने विकल्प छह में प्रस्तावित संवैधानिक क्षेत्रीय स्वायत्त समितियों की बात को प्रमुखता से उठाती है. समिति का मानना है कि इन क्षेत्रीय स्वायत्त समितियों या परिषदों का गठन करके अविकसित क्षेत्रों का कल्याण या विकास का मार्ग सुनिश्चित किया जा सकता है. साथ ही आंध्र के विभाजन को भी टाला जा सकता है. इसके लिए संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता भी पड़ सकती है. लेकिन यहां सवाल फिर भी बना ही रहता है कि लद्दाख, बोडो और उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में स्थापित ऐसी ही अन्य समितियों के नतीजे कोई बहुत उत्साहवर्धक रहे हों, ऐसा भी नहीं है.
उधर, तेलंगाना के लिए प्रतिबद्ध टीआरएस और संयुक्त कार्यसमिति के तेवर आक्रामक बने हुए हैं. वे केंद्र को नौ दिसंबर 2009 का पी. चिदंबरम का खुद का वादा याद दिला रहे हैं कि ’तेलंगाना के गठन की प्रक्रिया को शुरू कर दिया गया है'. इन आंदोलनकारियों और खासकर टीआरएस के नेता के. चंद्रशेखर राव का मानना है कि ’केंद्र अब अपने आश्वासन से पीछे हट रहा है... हमें श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट से कुछ लेना-देना नहीं है. हम तो समिति के गठन के पहले भी पृथक तेलंगाना और उसकी राजधानी हैदराबाद को लेकर -आंदोलनरत थे और आज भी हैं, और हम इसे लेकर रहेंगे.' टीआरएस की मांग का खुलकर समर्थन करने वालों में भाजपा शामिल है. हालांकि भाजपा के आंध्र विधानसभा में सिर्फ दो विधायक हैं और वे दोनों तेलंगाना क्षेत्र से हैं - ये उनके समर्थन का प्रमुख कारण हो सकता है. लेकिन भाजपा के समर्थन से तेलंगाना समर्थकों को केंद्रीय राजनीति में असर डालने वाला एक मजबूत साथी जरूर मिला है. जहां तक सीपीआई और सीपीएम की बात है वे समिति की अस्पष्ट रिपोर्ट को लेकर नाराज हैं और चाहते हैं कि केंद्र स्पष्ट योजना के साथ सामने आए.
लेकिन सबसे ज्यादा विचित्र स्थिति तो कांग्रेस और तेलुगू देशम जैसी पार्टियों की है. कांग्रेस के 155 विधायकों में से एक तिहाई यानी 50 तेलंगाना क्षेत्र से हैं, ऐसे ही तेलुगू देशम के कुल 91 विधायकों में एक तिहाई से ज्यादा यानी 38 तेलंगाना क्षेत्र से हैं, कांग्रेस का तो लोकसभा में भी प्रतिनिधित्व प्रदेश की कुल सीटों में से तीन चौथाई का है - यानी पूरे प्रदेश के स्तर पर नुमाइंदगी है, और फिर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार भी है - ऐसे में न तो वे खुलकर पृथक तेलंगाना आंदोलन का समर्थन कर सकते हैं और न ही विरोध. अब सारी आंखें केंद्र पर ही लगी हुई हैं. स्थितियां तब और पेचीदा हो जाती हैं जब आंदोलन की अगुवाई टीआरएस के हाथों हो. लेकिन जनता के दबाव में जनप्रतिनिधियों की सियासी स्थिति का विचित्र होना स्वाभाविक ही है. तेलुगू देशम की स्थिति तो और भी संशय वाली है. दिलचस्प है कि टीडीपी के अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू 2009 तक आंध्र के विभाजन के विरोधी थे, तभी उन्होंने एकाएक तेलंगाना गठन का समर्थन किया. लेकिन 2009 के चुनाव के बाद से नायडू इस मसले पर खामोश हो गए. उन्होंने दिल्ली में तेलंगाना को लेकर हुई सर्वदलीय बैठक में भी पार्टी प्रतिनिधि को नहीं भेजा. पिछले गुरुवार को टीडीपी ने श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट की आलोचना जरूर की लेकिन तब भी नायडू खामोश ही रहे. इसका कारण यही है कि पार्टी का रायलसीमा क्षेत्रों और आंध्र के तटीय क्षेत्रों में अच्छा प्रभाव है और वह नहीं चाहती कि तेलंगाना का समर्थन करके उसे कमजोर किया जाए.
यही स्थिति प्रजाराज्यम पार्टी (पीआरपी) की है. उसके विधानसभा में कुल 18 सदस्य हैं, जिसमें से तेलंगाना क्षेत्र से सिर्फ एक-दो विधायक हैं - इसलिए उसने शुरू से ही संयुक्त आंध्र की बात की है. कुल मिलाकर सियासी स्थिति फिलहाल गड्ड-मड्ड है. टीआरएस जो कि पृथक तेलंगाना की खुलकर बात कर रही है, वो तो स्पष्ट है, थोड़ी बहुत ऐसी ही स्थिति भाजपा की है क्योंकि उसका कोई स्पष्ट बड़ा जनाधार नहीं है, इसलिए उसे कुछ खोने का डर नहीं है, लेकिन अन्य पार्टियों की हालत सांप-छछूंदर जैसी है. उनका डर यही है, 'एक का समर्थन यानी दूसरे को खोना.' और सभी इससे बचना चाहती हैं. कांग्रेस को लगता है कि यदि तेलंगाना बनता है तो उसका पूरा श्रेय टीआरएस के चंद्रशेखर राव को मिलेगा और रायलसीमा तथा आंध्र के तटीय क्षेत्रों में भी कांग्रेस को जनता की नाराजगी झेलनी पड़ेगी. और यदि तेलंगाना नहीं बनता है तो तेलंगाना में भले कांग्रेस को नुकसान हो, जैसा कि पिछले साल के उपचुनावों में भी हुआ, लेकिन दूसरे क्षेत्रों में भारी फायदा होगा और वो आसानी से तेलुगू देशम को टक्कर दे सकेगी.
कांग्रेस इस बात को भी भली प्रकार से जानती है कि आंध्र में पारंपरिक रूप से कांग्रेस के प्रति हमेशा से सम्मान रहा है. 1977 में जब आपातकाल के बाद पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ हवा थी, तब आंध्र में कांग्रेस ने 42 में से 41 सीटें जीती थीं ऐसे में कांग्रेस को लगता है कि यदि मुख्यमंत्री किरण कुमार ने थोडा अच्छा काम किया और तेलंगाना नहीं भी बना तो वो आंध्र के नीतीश कुमार हो सकते हैं. जहां तक चंद्रशेखर राव के इस बयान का ताल्लुक है कि तेलंगाना बनने के बाद वो टीआरएस का कांग्रेस में विलय कर देंगे, तो उनके इस बयान पर भरोसा नहीं किया जा रहा. दूसरी महत्वपूर्ण बात जगन रेड्डी प्रकरण है. जगन रेड्डी फिलहाल चंद्रशेखर राव से मिल कर दौरे और रैलियां आयोजित कर रहे हैं - लेकिन उन्हें भी सियासी जवाब के लिए कांग्रेस संभवतः विकल्प संख्या छह को ही अपनाए.
बहरहाल, ऐसे में भावनात्मक मुद्दा बन रहे तेलंगाना के सवाल पर ईमानदार पहल की जरूरत है, जिससे एक ओर जनअपेक्षाओं की पूर्ति हो सके तो साथ ही भावनात्मक स्तर पर सभी के साथ न्याय का बोध भी हो सके. सियासी गणित और लाभ-हानि की बिसात पर फिलहाल तो ऐसी संभावना क्षीण ही नजर आती है, बेहतर हो कि जनता के स्तर पर योग्य और विश्वासजनित पहल हो - वो एक अच्छी संभावना हो सकती है. वैसे, इस महीने के अंत में होने वाली विभिन्न पार्टियों की बैठक तक कोई ऐसी ही पहल हो तो आश्चर्य नहीं. ऐसा होना इसलिए भी जरूरी है कि अव्यवस्था और हिंसक अराजकता का कोई फायदा कम से कम माओवादी तत्व तो न उठा सकें.
लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं. इन दिनों वे लोकमत समाचार, नागपुर के संपादक हैं. उनका ये लिखा आज लोकमत में प्रकाशित हो चुका है, वहीं से साभार लेकर इसे यहां प्रकाशित किया गया है. गिरीश से संपर्क girishmisra@lokmat.comThis e-mail के जरिए किया जा सकता है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें