शनिवार, 22 जनवरी 2011

किसान/ गुम होता भारत / मध्‍यप्रदेश में नहीं रुक रही किसान आत्महत्याएं


जब कोई किसान आत्महत्या करता है


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अन्नदाता से को इस जाल से निकालने की जिम्मेदारी सत्ता और समाज दोनों की
- संजय द्विवेदी
यह सप्ताह दुखी कर देने वाली खबरों से भरा पड़ा है। मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला चल रहा है। हर दिन एक न किसान की आत्महत्या की खबरों ने मन को कसैला कर दिया है। कर्ज के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्याओं की खबरें बताती हैं कि हालात किस तरह बिगड़े हुए हैं। ऐसे कठिन समय में किसानों को संबल देना समाज और सरकार दोनों की जिम्मेदारी है। क्योंकि यह चलन एक-दूसरे को देखकर जोर पकड़ सकता है। जिंदगी में मुसीबतें आती हैं किंतु उससे लड़ने का हौसला खत्म हो जाए तो क्या बचता है। जाहिर हैं हमें यहीं चोट करनी चाहिए कि लोगों का हौसला न टूटे वरना एक समय विदर्भ में जो हालात बने थे वह चलन यहां शुरू हो सकता है। ऐसे में सरकारी तंत्र को ज्यादा संवेदना दिखाने की जरूरत है, उसे यह प्रदर्शित करना होगा कि वह किसानों के दर्द में शामिल है। कर्ज लेने और न चुका पाने का जो भंवर हमने शुरू किया है, उसकी परिणति तो यही होनी थी।
भारतीय खेती का चेहरा, चाल और चरित्र सब बदल रहा है। खेती अपने परंपरागत तरीकों से हट रही है और नए रूप ले रही है। बैलों की जगह टैक्टर, साइकिल की जगह मोटरसाइकिलों का आना, दरवाजे पर चार चक्के की गाड़ियों की बनती जगह यूं ही नहीं थी। इसके फलित भी सामने आने थे। निजी हाथों की जगह जब मशीनें ले रही थीं। बैलों की जगह जब दरवाजे पर टैक्टर बांधे जा रहे थे तो यह खतरा आसन्न था ही। गांव भी आज सामूहिक सामाजिक शक्ति का केंद्र न रहकर शहरी लोगों, बैंकों और सरकारों की तरफ देखने वाले रह गए। इस खत्म होते स्वालंबन ने सारे हालात बिगाड़े हैं। आज सरकारी तंत्र के यह गंभीर चिंता है कि इतनी सारी किसान समर्थक योजनाओं के बावजूद क्यों किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हैं। जाहिर तौर पर इसके पीछे सरकार, उसके तंत्र और बाजार की शक्तियों पर किसानों की निर्भरता जिम्मेदार है। किसान इस जाल में लगातार फंस रहे हैं और कर्ज का बोझ लगातार बढ़ रहा है। बाजार की नीतियों के चलते उन्हें सही बीज, खाद कीटनाशक सब गलत तरीके से और घटिया मिलते हैं। जाहिर तौर पर इसने भी फसलों के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव डाला है। इसके चलते आज खेती हानि का व्यवसाय बन गयी है। अन्नदाता खुद एक कर्ज के चक्र में फंस जाता है। मौसम की मार अलग है। सिंचाई सुविधाओं के सवाल तो जुड़े ही हैं। किसान के लिए खेती आज लाभ का धंधा नहीं रही। वह एक ऐसा कुचक्र बन रही है जिसमें फंसकर वह कहीं का नहीं रह जा रहा है। उसके सामने परिवार को पालने से लेकर आज के समय की तमाम चुनौतियों से जूझने और संसाधन जुटाने का साहस नहीं है। वह अपने परिवार की जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहा है। यह अलग व्याख्या का विषय है कि जरूरत किस तरह नए संदर्भ में बहुत बढ़ और बदल गयी हैं।
कर्ज में डूबा किसान आज मौसम की मार, खराब खाद और बीज जैसी चुनौतियों के कारण अगर हताश और निराश है तो उसे इस हताशा से निकालने की जिम्मेदारी किसकी है। सरकार, उसका तंत्र, समाज और मीडिया सबको एक वातावरण बनाना होगा कि समाज में किसानों के प्रति आदर और संवेदना है। वे मौत को गले न लगाएं लोग उनके साथ हैं। शायद इससे निराशा का भाव कम किया जा सके। मध्यप्रदेश मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हालांकि तुरंत इस विषय में धोषणा करते हुए कहा कि किसानों को फसल का पूरा मुआवजा मिलेगा और किसानों को आठ घंटे बिजली भी मिलने लगेगी। निश्चय ही मुख्यमंत्री की यह धोषणा कि किसानों को उनके हुए नुकसान के बराबर मुआवजा मिलेगा एक संवेदशील धोषणा है। सरकार को भी इन घटनाओं के अन्य कारण तलाशने में समय गंवाने के बजाए किसानों को आश्वस्त करना चाहिए। अपने अमले को भी यह ताकीद करनी चाहिए कि वे किसानों के साथ संवेदना से पेश आएं। मूल चिंता यह है कि किसानों की स्थिति को देखते हुए जिस तरह बैंक कर्ज बांट रहे हैं और किसानों को लुभा रहे हैं वह कहीं न कहीं किसानों के लिए घातक साबित हो रहा है। कर्ज लेने से किसान उसे समय पर चुका न पाने कारण अनेक प्रकार से प्रताड़ित हो रहा है और उसके चलते उस पर दबाव बन रहा है। सरकार में भी इस बात को लेकर चिंता है कि कैसे हालात संभाले जाएं। सरकार के तंत्र को सिर्फ संवेदनशीलता के बल पर इस विषय से जूझना चाहिए। मुख्यमंत्री की छवि एक किसान समर्थक नेता की है। वे गांव से आने के नाते किसानों की समस्याओं को गंभीरता से समझते हैं इसलिए उनसे उम्मीदें भी बहुत बढ़ जाती हैं। एक बड़ा प्रदेश होने के नाते किसानों की समस्याओं भी बिखरी हुयी हैं। उम्मीद की जानी चाहिए अन्नदाताओं के मनोबल बनाने के लिए सरकार कुछ ऐसे कदम उठाएगी जिससे वे आत्महत्या जैसी कार्रवाई करने के लिए विवश न हों।
भारतीय खेती पर बाजार का यह हमला असाधारण नहीं है। बैंक से लेकर साहूकार ही नहीं, गांवों में बिचौलियों की आमद-रफ्त ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा है। ये सब मिलकर गांव में एक ऐसा लूट तंत्र बनाते हैं, जिससे बदहाली बढ़ रही है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में गन्ना किसानों को सालोंसाल भुगतान नहीं होता। व्यावसायिक लाबियों के दबाव में हमारे केंद्रीय कृषि मंत्री किस तरह की बयानबाजी कर रहे हैं, यह सारे देश ने देखा है। एक तरफ बर्बाद फसल, दूसरी ओर बढ़ती महंगाई आखिर आम आदमी के लिए इस गणतंत्र में क्या जगह है ? जो हालात हैं वह एक संवेदनशील समाज को झकझोरकर जगाने के लिए पर्याप्त हैं किंतु फिर भी हमारे सत्ताधीशों की कुंभकर्णी निद्रा जारी है। ऐसे में क्या हम दिल पर हाथ रखकर यह दावा कर सकते हैं कि हम एक लोककल्याणकारी राज्य की शर्तों को पूरा कर रहे हैं।
मध्यप्रदेश की नौकरशाही किसानों की आत्महत्याओं को एक अलग रंग देने में लगी है। कर्ज के बोझ से दबे किसानों की आत्महत्याओं के नए कारण रच या गढ़ कर हमारी नौकरशाही क्या इस पाप से मुक्त हो जाएगी,यह एक बड़ा सवाल है। हां, सत्ता में बैठे नेताओं को गुमराह जरूर कर सकती है। किसानों की आह लेकर कोई भी राजसत्ता लंबे समय तक सिंहासन पर नहीं रह सकती है। अगर किसानों की आत्मह्त्याओं को रोकने के लिए सरकार, प्रशासन और समाज तीनों मिलकर आगे नहीं आते, उन्हें संबल नहीं देते तो इस पाप में हम सब भागीदार माने जाएंगें। करोंड़ों का घोटाला करके, करोड़ों की सार्वजनिक संपत्ति को पी-पचा कर बैठे राजनेताओं व नौकरशाहों, बैकों का करोंड़ों का कर्ज दबाकर बैठे व्यापारियों से ये किसान अच्छे हैं जिनकी आंखों में पानी बाकी है कि कुछ लाख के कर्ज की शरम से बचने के लिए वे आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं। ऐसे नैतिक समाज (किसानों) को हमें बचाना चाहिए ताकि वे हमारे समाज को जीवंत और प्राणवान रख सकें। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने समय रहते सक्रियता दिखाकर इस हालात को संभालने की दिशा में प्रयास शुरू किए हैं। उन्होंने पीड़ित किसानों और प्रधानमंत्री से मुलाकात कर देश का ध्यान इस ओर खींचा है। केंद्र सरकार को भी इस संकट को ध्यान में रखते हुए राज्य को अपेक्षित मदद देनी चाहिए। समाज जीवन के अन्य अंगों को भी इस विपदा से उबारने के लिए अन्नदाता का संबल बनना चाहिए, क्योंकि यही एक संवेदनशील समाज की पहचान है।

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गुम होता भारत



उ.प्र. में भूमि अधिग्रहण का ताज उदारण हमारे लिया एक दम नया ज़रूर है अगर हमको इससे सीख नही मिली तो फिर आने वाला वक़्त और भी भयानक हो सकता है जिस प्रकार से उ.प्र. राज्य सरकार किसानों की ज़मीन को कम दामो में खरीदकर नोएडा यमुना एक्सप्रेस हाई -वे बनाकर नोएडा से आगरा १६५ किलोमीटर की दूरी कों मात्र ९० मिनट में तय करवाना चाहती है
किसानों दुवारा भूमि अधिग्रहण का आन्दोलन अलीगढ से शुरू होकर पूरे पश्चिमी उ.प्र. में जंगल में आग की तरह फैल चुका है .यह आन्दोलन रूपी आग अब तक न जाने कितने लोगों को स्वाहा कर चुकी है . राज्य सरकार किसानों की जमीन को हड़पने की तेयारी में नोएडा यमुना-एक्सप्रेस का निर्माण जे.पी. समूह के साथ मिलकर कर रही है . इस हाई वे के आस पास चार जिलो ( हाथरस , आगरा ,मथुरा ,अलीगढ ) की भूमि पर जो अधिग्रहण किया जा रहा है. गुस्से से बेकाबू हुए किसान अब ज़मीन की बचाने की लिए मरने – मारने को तैयार है. किसानो का यह भी कहना है कि राज्य सरकार हमारे साथ नाइंसाफी कर रही है. नोएडा के आस पास के किसानो कों ज़मीन का मूल्य ऊंचे दामों पर अदा किया जा रहा है .जबकि आगरा , मथुरा के किसानो कों वही भूमि सस्ते दामो पर खरीदी जा रही है . नाजायज तरीके से भूमि अधिग्रहण के इस भेदभाव से अलीगढ के किसानो ने आन्दोलन का रास्ता पकड़ लिया ही।
चौदह अगस्त कों किसान नेता राम बाबू कठेरिया की गिरफ्तारी से गुस्साए किसानो पर पुलिस दोबारा की गयी फायरिंग से मारे गए युवकों के कारण, किसानों ने स्वतंत्रता दिवस के मोके पर लाठी चार्ज की , जब देश आज़ादी का ६३ वां स्थापना दिवस मना रहा था. ठीक उसी समय यमुना- एक्सप्रेस हाई वे निर्माण पर आन्दोलन करने वालो ने चालीस वाहनों कों आग की हवाले कर दिया . हर किसान के लिए उसकी ज़मीन का हर एक टुकड़ा उसके जिगर के टुकडे से कही बढ़ कर होता है . पहले तो किसान भी पैसे की चाह में अंधे हो बैठे थे . अब अपनी ज़मीन बिल्डरों कों बेचकर पछता रहे है . उस ज़मीन से मिला पैसा अब जब खत्म होने की कगार पर है . तब उनको अपनी ज़मीन याद आ रही है.जो किसान समझदार निकले उन्होंने पानी ज़मीन बचाए रखी . कल तक जिस ज़मीन में हमको फसल हरी भरी दिखती थी . आज उसी ज़मीन में ईट पथरो, और कंक्रीट से बने बड़े -२ चमचमाते शोपिंग माल दिखाई देते है . जो खुद हमारी ही जेब ढीली करवा रहे है .
उसी ज़मीन में लगे बड़े-२ ऊद्योग धंदे और धुवा रहित फेक्ट्रिया जो की पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा खतरा बनी है, और हमरे ही लिए मोत का साया भी . सन उन्नीस सो पचास से लेकर अब तक किसानो कों ओधिगिकरण के लिए बड़ी तादाद में अपनी ज़मीन गवानी पड़ी. जिस देश की सत्तर फीसीदी आबादी कृषि पर निर्भर करती है जिसका मात्र सत्रह फीसीदी हिस्सा बचा है. वेश्वीकरण के इस दोर में भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण कंक्रीट से बने शोपिंग माल और बड़ी -२ इमारतो के चक्करों में आकर अपनी धरोहर कों ही तबाह करने पर क्यों तुले है ?  राज्य सरकार प्रोपर्टी डीलर की भूमिका में आकर और कारपोरेट घरानों के चक्कर में पड़कर अपनी खेती की जमीन कों बर्बाद करवाने पर तुले है।
… लेकिन याद रहे वह दिन भी दूर नहीं जब हमारे देश में हर इंसान एक- एक दाने के लिए तरसेगा। इसी प्रकार कारपोरेट जगत इंडिया बनाने की होड़ में अपने इस लाडले से भारत को गुम करने में लगा है…….
-ललित कुमार (मेरठ),
प्रसारण पत्रकारिता, (भोपाल)

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विकास की विडम्बना झेलते लोग



-राखी रघुवंशी
यह जरूरी नहीं कि सरकारी विकास योजनाएं हमेशा लोगों के लिए फायदेमंद ही हो। बल्कि कई बार ये उन्हीं लोगों को संकट में डाल देती है, जिनके हित में बनाई गई है। राजस्थान और मध्यप्रदेश में इस तरह की कुछ घटनाएं सामने आई है, जो सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के तरीकों और नीतियों के बारे में सोचने को विवश करती है। राजस्थान के बीकानेर जिले में किसान क्रेंडिट कार्ड योजना और मध्यप्रदेश के देवास जिले के आदिवासी क्षेत्रों में दूध उत्पादन योजना के जरिये लोगों ने खुशहाली के सपने देखे थे। किन्तु हकीकत में ये योजनाएं ही उनकी बदहाली का कारण बन गई।
किसान क्रेडिट कार्ड योजना 1998-1999 में लागू की गई थी, जो देष के कई राज्यों में चल रही है। इसका उद्देश्‍य किसानों को सूदखोरों से बचाना और समय पर ऋण उपलब्ध करवाना है। ताकि किसान अपनी खेती को ज्यादा उन्नत और फायदेमंद बना सके। लेकिन राजस्थान में इसका जो असर देखने को मिल रहा है, वह इसके उद्देश्‍यों से ही विपरीत है। इसका एक खास कारण किसानों की व्यावहारिक जरूरतों के बजाय टे्रेक्टर जैसी बड़ी चीजों के लिए भारी कर्ज दिया जाना है। बीकानेर जिले में कुछ गांव तो ऐसे हैं जहां पिछले छह महिनों में पांच-छह नये ट्रेक्टर आ चुके हैं। इन ट्रैक्‍टरों के मालिक बहुत ही गरीब किसान है, जिन्होंने कभी यह सोचा भी नहीं था कि उनके दरवाजे पर साढ़े तीन लाख रूपयों का नया टैक्‍टर खड़ा होगा। इनकी आर्थिक दषा पहले से कमजोर है और कहा जाता है ट्रेक्टर खरीदने की इनकी पहले से कोई योजना नहीं थी। बैंक अधिकारियों, सरकारी कर्मचारियों और टे्रेक्टर कंपनी के एजेन्टों ने किसानों को इसके लिए प्रेरित किया। नतीजतन मात्र बीस एकड़ जमीन वाले किसान टे्रक्टर के मालिक तो बन गए, किन्तु इसका ब्याज तक चुकाने की स्थिति में नहीं है। कई किसानों ने तो ट्रैक्‍टर खरीदने के बाद अब तक उससे एक रूपया भी नहीं कमाया। पिछले कुछ सालों से लगातार पड़ रहे अकाल के कारण उनकी माली हालत पहले से ही दयनीय बनी हुई है। अब कर्ज न चुकाने के कारण उनकी जमीन की कुर्की का भी खतरा मंडरा रहा है।
राजस्थान में अब तक करीब 15 लाख किसानों को क्रेडिट कार्ड जारी किए गए हैं। इस तरह इस योजना को लागू करने में आंध्रप्रदेष और महाराष्ट्र के बाद राजस्थान तीसरे नंबर पर है। किन्तु क्रेडिट कार्ड के जरिए खाद, बीज जैसी जरूरतों के बजाय टे्रेक्टर जैसी चीजों के लिए ऋण ज्यादा आसानी से दिया गया। जबकि 20-25 एकड़ तक के किसानों की हैसियत नहीं है कि वे ब्याज सहित कर्ज चुका सके। खेती की आय से टे्रेक्टर की किश्‍त चुकाने के कारण कई किसानों की आर्थिक दषा बहुत कमजोर हो गई है। एक आकलन के अनुसार यदि किसान टे्रेक्टर बेचकर कर्ज चुकाना चाहे तो उन्हें 30 हजार रूपए का घाटा होगा।
मध्यप्रदेष के देवास जिले के आदिवासियों को दी गई जर्सी नस्ल की गायों के कारण भी इसी तरह की स्थिति उत्पन्न हो गई है। जिले का उदयनगर आदिवासी क्षेत्र लम्बे समय से विकास से वंचित रहा है। जिसके फलस्वरूप यहां आदिवासी आंदोलन सामने आएं। पिछले साल यहां हुई ”मेंहदीखेड़ा गोलीकांड” की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद प्रशासन ने यहां विकास के लिए कुछ कदम उठाए। आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ने और उन्हें आर्थिक तरक्की के अवसर देने के लिए स्वर्ण जयंति स्वरोजगार योजना के तहत 30 हजार रूपए मूल्य की दो-दो गायें इन्हें दी गई। ये गायें जर्सी नस्ल की या क्रासब्रिडिंग है। इनके बारे में यह कहा गया कि ये खूब दूध देगी। किन्तु ये गायें इस क्षेत्र के अनुकूल नहीं पाई गई। एक तो यहां की गर्म जलवायु इनकी सेहत के लिए हानिकारक है और दूसरा इन्हें अनाज खिलाना पड़ता है। चूंकि इन गरीब आदिवासियों को खुद के लिए अनाज मुश्किल से मिल पाता है, तो गायों के लिए अनाज कहा से लायेंगे। इस दषा में ये गायें बहुत ही कमजोर हो चुकी है और बहुत कम दूध दे पा रही है। इसके अलावा जो भी थोड़ा-बहुत दूध होता है, उसे बेचने के लिए भी यहां बाजार उपलब्ध नहीं है। नतीजतन कुछ लोगों को तो 4 रूपये प्रति लीटर के भाव दूध बेचना पड़ा। अब बैंक का कर्ज चुकाने का दबाव भी इन पर पड़ रहा है।
ट्रैक्‍टर और गायों के इन उदाहरणों से विकास के बारे में बहुत कुछ सीखा और समझा जा सकता है। यह सच है कि आजादी के बाद सरकार द्वारा लोगों के कल्याण के लिए कई योजनाएं शुरू की गई। अब तक देष में छह पंचवर्षीय योजनाएं क्रियान्वित की जा चुकी है और सातवीं पंचवर्षीय योजना 2002 से जारी है जो सन् 2007 तक चलेगी। किन्तु ये योजनाएं अपेक्षित असर नहीं दिखा पाई। इसका एक खास कारण इन योजनाओं को धरातल पर सही तरीके से क्रियान्वित नहीं किया जाना है। राजस्थान के ट्रेक्टर और मध्यप्रदेष की गायें इसका ठोस सबूत है।
विकास योजनाओं का एक नुकसानदायक पहलू उनमें होने वाला भ्रष्टाचार भी है। इस बारे में सरकारी तंत्र से लेकर राजनेताओं तक सभी पर उंगली उठा चुकी है। यही कारण है कि कतिपय लोगों ने अनुचित तरीके से लाभ पाने के लिए राजस्थान में किसानों को टे्रक्टर खरीदने के लिए प्रेरित किया। सरकारी रिकॉर्ड में तो टे्रेक्टर आवंटन की बात विकास में रूप में दर्ज की गई, किन्तु हकीकत तो कुछ और ही है। जबकि दूसरी ओर खाद, बीज एवं खेती की अन्य जरूरतों के छोटे कर्ज के लिए किसानों को भटकना पड़ता है। यानी जितना ज्यादा कर्ज, उतना ज्यादा कमीशन। इसी रवैये का सबसे ज्यादा नुकसान हितग्राहियों को उठाना पड़ता है।
इन दिनों आर्थिक विकास और स्वरोजगार को बढ़ावा देने की लिए कई योजनाएं चलाई जा रही है। स्वयं सहायता समूह जैसे अभियानों के जरिये महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण और आत्मनिर्भरता की बात कही जा रही है। किन्तु इन्हें वास्तव में लोक हितकारी बनाने के लिए योजनाओं के निर्माण में लोगों की भागीदारी के बारे में सोचना होगा। हमारे यहां ऐसा कोई तरीका नहीं है कि योजना बनाते समय समाज में कमजोर तबकों की राय ली जाए। इस दशा में कई बार लोगों की जरूरतों और योजनाओं के लक्ष्य में फर्क दिखाई देता है। अत: जब तक योजनाओं के निर्माण से लेकर क्रियान्वयन तक सभी स्तरों पर लोगो की भागीदारी 
नहीं होगी, तब तक योजनाएं अपना सही असर नहीं दिखा पाएगी।

मध्‍यप्रदेश में नहीं रुक रही किसान आत्महत्याएं



रामबिहारी सिंह
मध्‍यप्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार भले किसानों को खुशहाल और खेती को लाभ का धंधा बनाने की अपनी पुरानी रट दोहराते नहीं थकती, किन्तु यहां स्थिति इसके विपरीत है। मध्‍यप्रदेश के किसानों की हालत अन्य राज्य के किसानों की अपेक्षा अत्यंत दयनीय है। हालात यह हैं कि गरीबी और कर्ज के बोझ से परेशान किसानों की आत्महत्याओं का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा है। हाल ही में दमोह जिले के ग्राम कुलुआ निवासी नंदराम रैकवार ने फसल नष्ट होने से आत्मदाह कर लिया। होशंगाबाद जिले के बनखेड़ी विकासखंड के कुर्सीढाना गांव में किसान अमान सिंह ने जहरीली दवा पीकर आत्महत्या कर ली, उस पर बैंक का लगभग एक लाख कर्ज था। वहीं कर्ज के बोझ से परेशान एक और किसान मिथिलेश ने मौत को गले लगा लिया। उधार रीवा जिले के घोपकरा गांव में अमरनाथ मिश्रा ने बिजली बिल न चुका पाने पर अधिकारियों द्वारा जेल भेजने की धामकी से आत्महत्या कर ली। छतरपुर के दरगुवां गांव के किसान कल्लू खां ने कर्ज वसूली के डर से तो खरगौन जिले के सुरपाला गांव के किसान ने बिजली बिल और कर्ज न चुका पाने से दुखी होकर आत्महत्या कर ली। ऐसे सैकड़ों मामले हैं पर सरकार इन्हें उजागर नहीं करना चाहती। इस तरह से वर्ष 2010 में अब तक करीब एक हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर अपनी जान गंवा चुके हैं। और अन्नदाताओं की आत्महत्यों का यह दौर अनवरत जारी है।
मध्‍य प्रदेश में किसान आए दिन मौत को गले लगा रहे हैं, लेकिन सरकार इस तथ्य को छिपाना चाहती है, फिर भी सच एक न एक दिन सामने आ ही जाता है। हालांकि सरकार ने कुछ किसानों की आत्महत्या की घटनाओं के बारे में विधानसभा में जानकारी दी है, जिसके तहत सरकार ने स्वीकार किया है कि मुरैना, भिंड, श्योपुर और दतिया जिलों में गरीबी के कारण 13 मजदूरों और किसानों ने आत्महत्या की है। उधार नेशनल क्राइम ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट पर गौर किया जाये तो देश में हर साल हजारों की संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। देशभर में वर्ष 2008 में जहां 18196 किसानों ने आत्महत्या की वहीं 2009 में बढ़कर यह संख्या 17368 तक पहुंच गई है। इसमें प्रतिवर्ष मौत को गले लगाने वालों किसानों में 66 फीसदी मधयप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और छत्तीसगढ़ से हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार मधयप्रदेश में वर्ष 2009 में करीब 1500 किसानों ने आत्महत्या की, जबकि वर्ष 2008 में 1509 अन्नदाताओं ने मौत को गले लगाया। इसी तरह वर्ष 2007 में 1263, वर्ष 2006 में 1375, वर्ष 2005 में 1248 और वर्ष 2004 में 1638 किसानों ने आत्महत्या की। मध्‍यप्रदेश में किसानों की आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण कर्ज है। इसके साथ ही बिजली संकट, सिंचाई के लिए पानी, खाद, बीज, कीटनाशकों की उपलब्धाता में कमी और मौसमी प्रकोप भी जिम्मेदार है, जिससे कृषि क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हो रहा है और किसान आत्महत्या को मजबूर है। खेती पर निर्भर किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य भी न मिलना शामिल है, जिससे वह कर्ज के बोझ में दबता चला जाता है।
एक ओर प्रदेश सरकार खेती को जहां लाभ का धंधा बनाने का राग अलापती नहीं थक रही है वहीं सरकार द्वारा किसान कल्याण व कृषि संवर्धन के लिए चलाई जा रही योजनाओं में राजनीतिक भेदभाव और भ्रष्टाचार से किसानों को सरकार की प्रोत्साहनकारी और रियायती योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पा रहा है। प्रदेश में किसानों की हालत इस कदर बदहाल है कि कई सहकारी संस्थाओं ने किसानों को घटिया खाद-बीज के साथ ही कीटनाशकों की आपूर्ति कर किसानों को बेवजह कर्जदार बना दिया है तो वहीं खराब खाद-बीज और दवाइयों के कारण फसल भी चौपट हो गई, पर इंतहा तो तब हो गई जब प्रदेश के पीड़ित किसानों को सरकार भी न्याय दिलाने में असफल रही। हालांकि केंद्र सरकार ने कुछ ऋणग्रस्त किसानों के कर्ज माफ कर दिए और इसके लिए राज्य सरकार को प्रतिपूर्ति भी की, किन्तु मध्‍यप्रदेश में सहकारी संस्थाओं में घोटालों के कारण करीब 115 करोड़ रुपए के कृषि ऋण माफ नहीं हो पाए। मधयप्रदेश में करीब 32 लाख 11 हजार से अधिाक किसान आज भी ऋणग्रस्त हैं। प्रदेश में औसतन हर किसान पर 14 हजार 218 रुपए के कर्ज का बोझ है, जबकि मधयप्रदेश में तकरीबन 30 फीसदी से अधिक किसान ऐसे हैं, जिनके पास महज एक से तीन हेक्टेयर तक ही कृषि योज्य भूमि है। यह तो महज सरकारी आंकड़े हैं, जबकि प्रदेश में किसानों पर साहूकारों और बड़े व्यापारियों का कर्ज भी किसानों को चौन से रहने नहीं दे रहा है।
मध्‍यप्रदेश विद्युत मंडल और उसकी सहायक बिजली कंपनियों की वित्तीय स्थिति खराब है। भारी घाटा सह रहीं बिजली कंपनियों को विद्युत मंडल ने अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने की हिदायत दे रखी है। ऐसे में बिजली कंपनियों ने बकायादारों से विद्युत शुल्क वसूली को लेकर सख्त हैं। मधयप्रदेश में कार्यरत तीनों विद्युत वितरण कंपनियों को प्रदेश के किसानों से तकरीबन 5 अरब रुपए वसूलना है। हालांकि प्रदेश सरकार के हस्तक्षेप से इसकी वसूली अभी नहीं हो सकी, पर देर-सबेर जब किसानों से यह वसूली होगी तो किसानों की आर्थिक स्थिति और डावाडोल होगी और वह कर्ज के तले और दबते जाएंगे। उधार केंद्र की किसान राहत योजना की अवधि बढ़ाकर 30 अप्रैल 2010 किये जाने के बाद वसूली पर फिलहाल स्थगित सी थी, किन्तु अप्रैल के बाद रबी और अब खरीफ की फसल ले चुके किसानों के पास इन कंपनियों ने दस्तक देना शुरू कर दिया है। ऐसे में करीब साढ़े तीन लाख किसानों पर स्थगित वसूली एक बार फिर शुरू हो गई है। प्रदेश सरकार मधयप्रदेश से बिजली संकट को भी दूर करने में नाकाम रही है। ऐसे में प्रदेश के किसानों को आज भी बमुश्किल 8 से 10 घंटे ही बिजली मिल पा रही है।
प्रकृति की मार से बेहाल किसान विद्युत वितरण कंपनियों की अंधोरगर्दी से भी दहशतजदा हैं। इसका नमूना प्रदेश के कृषि प्रधान हरदा जिले में देखने को मिला, जहां के ग्राम दुगवाड़ा में करीब 200 मकानों वाले आदिवासी बहुल गांव में विगत दस वर्षों से बिजली नहीं है, लेकिन यहां पर ग्रामीणों को प्रतिमाह बिजली वितरण कंपनियों से बिजली के बिल मिल रहे हैं। बिजली न होने से ग्रामीणों द्वारा बिजली बिल का भुगतान भी नहीं किया गया। ऐसे में बिजली कंपनी ने इनको वसूली के नोटिस थमा दिया, जबकि कांग्रेस सरकार ने दस वर्ष पूर्व अपने कार्यकाल के दौरान ग्रामीणों को एकबत्ती कनेक्शन योजना के तहत गांवों में बिजली उपलब्धा कराई थी और आदिवासियों के बिल माफ किये थे, लेकिन बाद में बिजली संकट के कारण इन गांवों की बिजली काट दी गई और बकाया बिल की वसूली के लिए नोटिस थमा दिए गए। ऐसे में इन बेसहारा और गरीब किसानों के पास आत्महत्या के सिवाय कोई दूसरा चारा भी नहीं है।
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