शीला और मुन्नी सब पर भारी
नारायण बारेठ
बीबीसी संवाददाता, जयपुर
ये समय का फेर है या राजनीति की गिरती साख का सबब. शीला की जवानी और दबंग की मुन्नी बदनाम होकर भी पतंगों की दुनिया में नेताओं और क्रिकेट खिलाड़ियों पर भारी है.भारत में मकर संक्रांति पर बड़े पैमाने पर पतंग उड़ने का चलन है.पतंग निर्माता अपनी पतंगों के मनभावन बनाने के लिए उन पर नेताओं और क्रिकेट सितारों की तस्वीर उकेरते रहे है. मगर इस बार 'मुन्नी' और 'शीला' ने इन सबको पीछे छोड़ दिया है.
जयपुर पतंगबाजी और पतंगसाजी का बड़ा केंद्र है. पिछली बार पतंगों के आवरण पर अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा छाए हुए थे. मगर इस बार पतंगों ने ओबामा का साथ छोड़ दिया है. पतंगों के बाजार में कहीं कहीं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की तस्वीरें नज़र ज़रूर आती है.
लेकिन पतंग निर्माता कहते है कि इस बार दबंग की मुन्नी (मलायका अरोड़ा) और शीला की जवानी (कटरीना कैफ़) की मांग सबसे ज्यादा है. पतंग निर्माता गफ़ूर भाई पिछले तीन दशक से इस काम से जुड़े है. वे पहले राजनेताओं की तस्वीरें पतंगों पर उतारते रहे हैं, मगर इस बार उनकी पतंगों पर मुन्नी और शीला की जवानी शोभित है.
गफ़ूर भाई कहते है, ''इस बार तो इन की ही मांग है. नेताओं से लोग ऊब गए हैं, महंगाई के कारण भी नेताओं से मोहभंग हुआ है.पहले शहीदों, नेताओ और क्रिकेट सितारों की बहुत चाहत थी, अब नहीं है. अब तो मुन्नी बदनाम और शीला की जवानी के गानों की जैसे मांग है, वैसे ही पतंगों पर इनकी तस्वीरों की मांग हो गई है.'' मकर संक्रांति हिन्दू त्योहार है, पर पतंग बनाने और बेचने में मुसलमानों की बहुतायत है.
भाईचारे का पैगाम
पतंग बेजान ज़रूर होती है, मगर वो इन्सान की तरह कोई भेद नहीं करती, वो उड़ती है, गिरती है और अपने साथ भाईचारे का पैगाम भी ले जाती है. पतंग निर्माता मोहम्मद शकील कहते है, ''ये मिलाजुला त्योहार है, बेशक ये हिन्दूओं का पर्व है, मगर खुशी तो साझा है. ये तो हमारे पुरखों ने मिलजुलकर रहने की सीख दी थी, हम तो सदियों से साथ साथ ऐसे ही त्योहार मानते रहे है.''
जयपुर में रियासत काल में पतंग उड़ाने का काम शुरू हुआ, राजाओं ने इसे प्रोत्साहित किया तो मुस्लिम कारीगरों ने इसे पोषित किया. पतंग विक्रेता मोहम्मद हनीफ़ कहते है, ''पतंगों का काम तो राजाओं के दौर में शुरू हुआ, तब से इसमें बढ़ोत्तरी हुई है. वैसा ही जोशोखरोश है. समय के साथ ये और बढ़ा है, कम नहीं हुआ है.''
पतंगों के एक व्यापारी हुसैन इतिहास में और पीछे जाते हैं और कहते हैं, ''ये तो राजा महाराजा क्या हकीम लुकमान के ज़माने से शुरू हुआ है. इससे आँखों की रोशनी बढती है. हकीम ने बताया था कि पतंग उड़ाने से आँखों की रोशनी सलामत रहती है. कभी देखना पतंगबाज़ और कबूतरबाज़ की आंखे दुरुस्त मिलेगी.''
राजा गए,रहनुमा आए, जम्हूरियत पूरे परवान पर है. लेकिन पतंग अगर कोई पैमाना है तो भारत की राजनीति को ये ज़रूर सोचना होगा कि शीला की जवानी के आगे वो क्यों हार गई.
बीबीसी संवाददाता, जयपुर
ये समय का फेर है या राजनीति की गिरती साख का सबब. शीला की जवानी और दबंग की मुन्नी बदनाम होकर भी पतंगों की दुनिया में नेताओं और क्रिकेट खिलाड़ियों पर भारी है.भारत में मकर संक्रांति पर बड़े पैमाने पर पतंग उड़ने का चलन है.पतंग निर्माता अपनी पतंगों के मनभावन बनाने के लिए उन पर नेताओं और क्रिकेट सितारों की तस्वीर उकेरते रहे है. मगर इस बार 'मुन्नी' और 'शीला' ने इन सबको पीछे छोड़ दिया है.
जयपुर पतंगबाजी और पतंगसाजी का बड़ा केंद्र है. पिछली बार पतंगों के आवरण पर अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा छाए हुए थे. मगर इस बार पतंगों ने ओबामा का साथ छोड़ दिया है. पतंगों के बाजार में कहीं कहीं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की तस्वीरें नज़र ज़रूर आती है.
लेकिन पतंग निर्माता कहते है कि इस बार दबंग की मुन्नी (मलायका अरोड़ा) और शीला की जवानी (कटरीना कैफ़) की मांग सबसे ज्यादा है. पतंग निर्माता गफ़ूर भाई पिछले तीन दशक से इस काम से जुड़े है. वे पहले राजनेताओं की तस्वीरें पतंगों पर उतारते रहे हैं, मगर इस बार उनकी पतंगों पर मुन्नी और शीला की जवानी शोभित है.
गफ़ूर भाई कहते है, ''इस बार तो इन की ही मांग है. नेताओं से लोग ऊब गए हैं, महंगाई के कारण भी नेताओं से मोहभंग हुआ है.पहले शहीदों, नेताओ और क्रिकेट सितारों की बहुत चाहत थी, अब नहीं है. अब तो मुन्नी बदनाम और शीला की जवानी के गानों की जैसे मांग है, वैसे ही पतंगों पर इनकी तस्वीरों की मांग हो गई है.'' मकर संक्रांति हिन्दू त्योहार है, पर पतंग बनाने और बेचने में मुसलमानों की बहुतायत है.
भाईचारे का पैगाम
पतंग बेजान ज़रूर होती है, मगर वो इन्सान की तरह कोई भेद नहीं करती, वो उड़ती है, गिरती है और अपने साथ भाईचारे का पैगाम भी ले जाती है. पतंग निर्माता मोहम्मद शकील कहते है, ''ये मिलाजुला त्योहार है, बेशक ये हिन्दूओं का पर्व है, मगर खुशी तो साझा है. ये तो हमारे पुरखों ने मिलजुलकर रहने की सीख दी थी, हम तो सदियों से साथ साथ ऐसे ही त्योहार मानते रहे है.''
जयपुर में रियासत काल में पतंग उड़ाने का काम शुरू हुआ, राजाओं ने इसे प्रोत्साहित किया तो मुस्लिम कारीगरों ने इसे पोषित किया. पतंग विक्रेता मोहम्मद हनीफ़ कहते है, ''पतंगों का काम तो राजाओं के दौर में शुरू हुआ, तब से इसमें बढ़ोत्तरी हुई है. वैसा ही जोशोखरोश है. समय के साथ ये और बढ़ा है, कम नहीं हुआ है.''
पतंगों के एक व्यापारी हुसैन इतिहास में और पीछे जाते हैं और कहते हैं, ''ये तो राजा महाराजा क्या हकीम लुकमान के ज़माने से शुरू हुआ है. इससे आँखों की रोशनी बढती है. हकीम ने बताया था कि पतंग उड़ाने से आँखों की रोशनी सलामत रहती है. कभी देखना पतंगबाज़ और कबूतरबाज़ की आंखे दुरुस्त मिलेगी.''
राजा गए,रहनुमा आए, जम्हूरियत पूरे परवान पर है. लेकिन पतंग अगर कोई पैमाना है तो भारत की राजनीति को ये ज़रूर सोचना होगा कि शीला की जवानी के आगे वो क्यों हार गई.
एक बाल्टी पानी के चक्कर में काट डाली नाक
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मुरैना। कभी कभी इंसान छोटी-छोटी बात को इतना बड़ा बना देता है जिसका परिणाम एक दम भयावह होता है। मंगलवार को मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में भी कुछ ऐसी ही घटना सामने आयी, जहां एक छोटे से झगड़े ने वड़े विवाद का रूप धारण कर लिया और परिणाम भयावह साबित हुआ। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में पानी को लेकर हुए विवाद में एक युवक की नाक कट गई। पुलिस ने तीन लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया है।
पढ़े : पिता की गर्दन काटने वाले बेटे को मिली सजा-ए-मौत
पुलिस के मुताबिक अम्बाह थाने के गुलियापुरा गांव में अशोक शर्मा का अपने पड़ोसी किसान परिवार से एक बाल्टी पानी को लेकर विवाद हो गया। दरअसल अशोक शर्मा अपने पड़ोसियों को अपने कुंएं के पानी के बदले पैसे लेता है, कल भी जब उसन पैसे मांगे और पैसे ना मिलने पर झगड़ा शुरू कर दिया जिससे गुस्साये पड़ोसियों ने अशोक पर बाल्टी से हमला कर दिया। बाल्टी सीधे नाक पर लगी और नाक का कुछ हिस्सा कटकर अलग हो गया। अशोक का जिला अस्पताल में इलाज चल रहा है।
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पुलिस के मुताबिक अम्बाह थाने के गुलियापुरा गांव में अशोक शर्मा का अपने पड़ोसी किसान परिवार से एक बाल्टी पानी को लेकर विवाद हो गया। दरअसल अशोक शर्मा अपने पड़ोसियों को अपने कुंएं के पानी के बदले पैसे लेता है, कल भी जब उसन पैसे मांगे और पैसे ना मिलने पर झगड़ा शुरू कर दिया जिससे गुस्साये पड़ोसियों ने अशोक पर बाल्टी से हमला कर दिया। बाल्टी सीधे नाक पर लगी और नाक का कुछ हिस्सा कटकर अलग हो गया। अशोक का जिला अस्पताल में इलाज चल रहा है।
English summary
हालात से हार रहे हैं मध्यप्रदेश के किसान
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भोपाल। मध्य प्रदेश के किसान हालात से हारते नजर आ रहे हैं। एक तो फसल बर्बाद हो गई है, दूसरा उन पर कर्ज इतना बढ़ गया है कि मौत को गले लगाने के अलावा उन्हें अन्य कोई रास्ता नहीं दिख रहा है। वे सोच रहे हैं कि दुनिया छूट जाएगी तो कर्ज चुकता करने के तकादों से भी मुक्ति मिल जाएगी।
दमोह जिले में आत्महत्या की कोशिश करने वाले गुलाब लोधी ने सार्वजनिक बयान दिया है, "सोचा था कि मौत के साथ कर्ज चुकता करने के तकादों से भी मुक्ति मिल जाएगी।" उसका यह बयान मध्य प्रदेश के किसानों क हाल बयां कर देने वाला है, मगर सरकार है कि किसानों की मौतों की वजह पर ही सवाल उठा रही है।
लगता है कि 'पीपली लाइव' की रील लाइफ अब मध्य प्रदेश के किसानों की रियल लाइफ में बदलने लगी है। पहले अमानक खाद की मार, फिर बिजली तथा पानी का संकट और अब मौसम के कहर ने किसानों को तोड़कर रख दिया है। एक तरफ तो प्रदेश सरकार खेती को फायदे का धंधा बनाने के दावे करने में पीछे नहीं है, दूसरी ओर खेती में हो रहे घाटे के चलते एक के बाद एक किसान मौत को गले लगाए जा रहे हैं।
पिछले एक माह में प्रदेश में पांच किसान मौत को गले लगा चुके हैं। मरने वाले ये किसान किसी और इलाके के नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के गृह जिले सीहोर एवं कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमारिया के गृह जिले दमोह से नाता रखते हैं।
ऐसे हालात अचानक नहीं बने हैं, बल्कि किसान तो वर्षो से यह सब झेल रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध आंकड़ा ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े भी इस बात की गवाही देते हैं। आंकड़ों के मुताबिक पिछले पांच वर्षो में 8360 किसानों ने आत्महत्या की है। इससे साफ है कि हर रोज चार से ज्यादा किसानों ने मौत को गले लगाया है, मगर प्रदेश सरकार लगातार इसे नकारती रही है।
सरकार की ओर से विधानसभा के पिछले सत्र में पेश किए गए एक आंकड़ें के मुताबिक लगभग छह माह की अवधि में प्रतिदिन 21 लोगों ने उस दौरान आत्महत्या की थी, मगर इनमें से किसान सिर्फ तीन ही थे।
किसानों की आत्महत्याओं को लेकर अभी भी सरकार का लगभग वही रवैया है। वह एक माह में चार किसानों की आत्महत्याओं की वजह सीधे तौर पर फसल की बर्बादी तथा कर्ज का बोझ मानने को तैयार नहीं है। प्रदेश के कृषि राज्य मंत्री बृजेंद्र प्रताप सिंह ने आईएएनएस से कहा, "किसानों की आत्महत्या की वजह और भी हो सकती है। वास्तविक वजह का खुलासा तो जांच से ही हो सकेगा।"
महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन चार किसानों ने आत्महत्या की है, उनके परिजन सीधे तौर पर फसल चौपट होने एवं कर्ज के बोझ को आत्महत्या की वजह करार देते हैं, वहीं सीहोर एवं दमोह के प्रशासन से लेकर सरकार तक पीड़ित किसान के परिवार को मदद देने के बजाय वास्तविकता को छुपाने में लगी हुई है।
यह बताना लाजिमी है कि प्रदेश सरकार यह तो मान लेती है कि एक बकरी के मरने पर व्यक्ति आत्महत्या कर सकता है, मगर फसल खराब होने और कर्ज की वजह से किसान ऐसा नहीं कर सकता।
प्रदेश के मुख्यमंत्री चौहान ने पिछले दिनों पाला लगने से फसल को होने वाले नुकसान का आकलन करने के साथ राहत राशि देने के निर्देश दिए हैं। इसके बाद भी किसानों में हताशा कम होने का नाम नहीं ले रही है और वे आत्महत्या जैसे कदम उठाने से नहीं हिचक रहे हैं।
मध्य प्रदेश के किसान कितना परेशान हैं, इस बात का खुलासा पिछले दिनों हो चुका है। प्रदेशभर से पहुंचे किसानों ने पिछले दिनों राजधानी भोपाल को दो दिन तक बंधक बनाकर रख दिया था। इसके बाद भी लगता है कि सरकार की ओर से ऐसे कदम नहीं उठाए गए हैं जो किसानों में कोई भरोसा पैदा कर सकें। यही कारण है कि किसान आत्महत्या जैसा कदम उठा रहे हैं।।
दमोह जिले में आत्महत्या की कोशिश करने वाले गुलाब लोधी ने सार्वजनिक बयान दिया है, "सोचा था कि मौत के साथ कर्ज चुकता करने के तकादों से भी मुक्ति मिल जाएगी।" उसका यह बयान मध्य प्रदेश के किसानों क हाल बयां कर देने वाला है, मगर सरकार है कि किसानों की मौतों की वजह पर ही सवाल उठा रही है।
लगता है कि 'पीपली लाइव' की रील लाइफ अब मध्य प्रदेश के किसानों की रियल लाइफ में बदलने लगी है। पहले अमानक खाद की मार, फिर बिजली तथा पानी का संकट और अब मौसम के कहर ने किसानों को तोड़कर रख दिया है। एक तरफ तो प्रदेश सरकार खेती को फायदे का धंधा बनाने के दावे करने में पीछे नहीं है, दूसरी ओर खेती में हो रहे घाटे के चलते एक के बाद एक किसान मौत को गले लगाए जा रहे हैं।
पिछले एक माह में प्रदेश में पांच किसान मौत को गले लगा चुके हैं। मरने वाले ये किसान किसी और इलाके के नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के गृह जिले सीहोर एवं कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमारिया के गृह जिले दमोह से नाता रखते हैं।
ऐसे हालात अचानक नहीं बने हैं, बल्कि किसान तो वर्षो से यह सब झेल रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध आंकड़ा ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े भी इस बात की गवाही देते हैं। आंकड़ों के मुताबिक पिछले पांच वर्षो में 8360 किसानों ने आत्महत्या की है। इससे साफ है कि हर रोज चार से ज्यादा किसानों ने मौत को गले लगाया है, मगर प्रदेश सरकार लगातार इसे नकारती रही है।
सरकार की ओर से विधानसभा के पिछले सत्र में पेश किए गए एक आंकड़ें के मुताबिक लगभग छह माह की अवधि में प्रतिदिन 21 लोगों ने उस दौरान आत्महत्या की थी, मगर इनमें से किसान सिर्फ तीन ही थे।
किसानों की आत्महत्याओं को लेकर अभी भी सरकार का लगभग वही रवैया है। वह एक माह में चार किसानों की आत्महत्याओं की वजह सीधे तौर पर फसल की बर्बादी तथा कर्ज का बोझ मानने को तैयार नहीं है। प्रदेश के कृषि राज्य मंत्री बृजेंद्र प्रताप सिंह ने आईएएनएस से कहा, "किसानों की आत्महत्या की वजह और भी हो सकती है। वास्तविक वजह का खुलासा तो जांच से ही हो सकेगा।"
महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन चार किसानों ने आत्महत्या की है, उनके परिजन सीधे तौर पर फसल चौपट होने एवं कर्ज के बोझ को आत्महत्या की वजह करार देते हैं, वहीं सीहोर एवं दमोह के प्रशासन से लेकर सरकार तक पीड़ित किसान के परिवार को मदद देने के बजाय वास्तविकता को छुपाने में लगी हुई है।
यह बताना लाजिमी है कि प्रदेश सरकार यह तो मान लेती है कि एक बकरी के मरने पर व्यक्ति आत्महत्या कर सकता है, मगर फसल खराब होने और कर्ज की वजह से किसान ऐसा नहीं कर सकता।
प्रदेश के मुख्यमंत्री चौहान ने पिछले दिनों पाला लगने से फसल को होने वाले नुकसान का आकलन करने के साथ राहत राशि देने के निर्देश दिए हैं। इसके बाद भी किसानों में हताशा कम होने का नाम नहीं ले रही है और वे आत्महत्या जैसे कदम उठाने से नहीं हिचक रहे हैं।
मध्य प्रदेश के किसान कितना परेशान हैं, इस बात का खुलासा पिछले दिनों हो चुका है। प्रदेशभर से पहुंचे किसानों ने पिछले दिनों राजधानी भोपाल को दो दिन तक बंधक बनाकर रख दिया था। इसके बाद भी लगता है कि सरकार की ओर से ऐसे कदम नहीं उठाए गए हैं जो किसानों में कोई भरोसा पैदा कर सकें। यही कारण है कि किसान आत्महत्या जैसा कदम उठा रहे हैं।।
प्रस्तुति- दुरगेश द्विवेदी, देवेश श्रीवास्तव, अंकुर शुक्ला, अजब सिंह भाटी, सुमित शिप्रा सुमन
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