सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

अनामी रिपोर्ट-8




 

 

26 अक्टूबर 15

 

1 यहां होती है योनि की पूजा


 

 

असम के गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से मात्र 10 किलोमीटर दूर नीलांचल पहाड़ी पर स्थित है देश का सबसे अधिक शक्तिशाली शक्तिपीट कामाख्या मंदिर है। यह मंदिर देवी कामाख्या को समर्पित है। यह सबसे पुराना शक्तिपी है। जब सती  के  पिता  दक्ष  ने भगवान शंकर को  यज्ञ में अपमानित किया था। जिससे दुःखी होकर सती ने आत्म-दाह कर ली थी। तब भगवान शंकर  ने सती कि  मॄत-देह को उठा कर संहारक नृत्य किया।  जिसमें सती के शरीर के 51 हिस्से अलग-अलग स्थान पर जाकर गिरे। जिसे ही 51 शक्ति पीठ  माना जाता है। लोकमान्यता है कि सती का योनिभाग कामाख्या में गिरा। उसी स्थल पर कामाख्या मन्दिर का निर्माण हुआ। मंदिर के गर्भगृह मेंयोनि के  आकार का एक कुंड  है जिसमे से निरंतर जल निकलता रहता है। इसे  योनिकुंड  कहा जाता है। लाल कपडे व फूलो से योनिकुंड ढका रहता है। यहां केवल योनि की पूजा होती है, और तमाम तांत्रिक अघोरी और सिद्धी हासिल करने वाले हजारों सिद्धि इसी मंदिर में योनि सिद्दि के बूते ही तंत्र मंत्र की दीक्षा में पारंगत होते है।


कामाख्या मंदिर का योनिमूर्ति











2 नाटक ही जीवन है

बिहार के पटना से मात्र एक सौ किलोमीटर दूर बाढ़ जिले के पंडारक गांव में नाटक ही जीवन है। नाटक की परंपरा सौ साल से भी ज्यादा पुरानी है। 1922 से ही नाटकों की शुरुआत बांस-बल्ले के अस्थाई मंच पर हुआ था। यहां पर अब दो स्थायी मंच हैं। यहां के सैकड़ों कलाकारों की धूम पटना समेत पूरे बिहार में है। नुक्कड नाटक की शुरूआत का श्रेय इसी गांव को जाता है। पंडारक के रंगकर्मी अजय कुमार के अनुसार मंचन की शुरुआत 1912 में स्वतंत्रता सेनानी चौधरी राम प्रसाद शर्मा ने की थीउन्होंने गांव और उसके आस-पास के इलाके में देशभक्ति की जन-जागृति की अलख जगाने के लिए नाटक का माध्यम चुना।
नाटकों के लिए मशहूर गांव की ख्याति को सुनकर मशहूर अभिनेता पृथ्वीराज कपूर यहां दलबल के साथ एक सप्ताह तक रहे और कलाकारों के संग कई नाटकों का मंचन किया था। इस उपलब्धि पर पूरा गांव आज भी नाज करता है । यहां के दर्शक ग्रामीमों को भी नाटकों के अभिनय संवाद की समझ चकित कर देती है। नाटकों के प्रति ग्रामीणों की दीवानगी ही संजीवनी है।यहां के कलाकारों की सबसे बड़ी देन नुक्कड नाटक है। साधनहीन कलाकारों ने मंच के बगैर ही गांव की गली मोहल्लें में यहां वहां जहां तहां नुक्कडों पर नाटक करने लगे। लोगों के बीच नुक्कड पर नाटकों की शुरूआत की। जिसे नाट्य समीक्षकों ने इसे स्वीकारा और सराहा। कई मंडली के कलाकार एक साल में लगभग 250 से ज्यादा नाटक और 500 से भी ज्यादा नुक्कड नाटक प्रस्तुत करते है.।




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जारवा आदिवासी

आधुनिक जीवन में लगातार हो  रहे बदलावों के बावजूद अंडमान निकोबार के जनजातियों की संख्या लगातार सिकुड रही है। बुनियादी जरूरतों की कमी के चलते अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के ज्यादातर आदिवासी मुख्य धारा में नहीं है। अलग-अलग दुर्गम टापुओं के विरान जंगलों में समूह रहने वाली अन्य जनजातियां भी घट रही है। जारवा आदिवासियों की कुल तादात अब केवल 400 से बी कम रह गयी है। एक अन्य टापू पर रहने वाले ग्रेट अंडमानी जनजाति के आदिवासियों की तादाद तो एक सौ से भी कम रह गयी है। दो दशक पहले यानी 1990-95 तक ये लोग पूरी तरह निर्वस्त्र रहते थे। हालांकि इन लोगों ने थोड़े-बहुत कपडे़ पहनने अथवा पत्ते लपेटने शुरू कर दिया। इनकी हालात आज भी भगवान भरोसे ही है।

4 दापा प्रथा
प्राचीन काल में राजस्थान के मीणा समुदाय में विवाह के लिए कन्याओं की खरीद बिक्री की जाती थी। विवाह से पहले कन्या का मूल्य लेने की परंपरा सर्वमान्य थी।  जिसे दापा या चारी कहा जाता था। कमजोर आर्थिक स्थिति वाले माँ-बाप रूपये लेकर अपनी कन्या का विवाह कर देते थे। उस समय कन्या को बोझ नहीं समझा जाता था । दक्षिण राजस्थान में यह कन्या-विक्रय का कार्य दापा व दक्षिण-पूर्व राजस्थान में चारी के नाम से जाना जाता था । परंतु अब में शिक्षा एवं दहेज़ के कारण मीणा जाति में ये दोनों प्रथाएं कम हो गयी हैं। अलबत्ता लड़कियों की तादाद कम होने के चलते छिपे तौर पर आज भी दापा का दबदबा है. जरूरतमंद लोग पैसा देकर आज भी लड़कियों को खऱीदकर शादी के लिए घर में लाते है। लोग  या


5 धराडी प्रथा

राजस्थान में मीणा समुदाय भी आरंभ में प्रकृति और प्र्यावरण से काफी समीप था। ये सदियों से  पेड़-पौधों को अपना कुल वृक्ष एवं अपना आराध्य मानकर पूजा करते थे| मीणा आदिवासी कबीलों की अनोंखी आदिम परम्परा धराडी प्रथा है।

 


धराड़ी यानी पृथ्वी की रक्षा करने की रीति नीति। आदिम काल से आदिम कबीलों की पालनहार पृथ्वी रही है| उसके साथ आदिवासी कबीलों का नाता मां बेटा सा है। वे प्रकृति में अपनी मात्रदेवी का निवास मानकर उसकी आराधना और संरक्षण करते रहे है। प्रकृति का आदिवासियों से यह नाता ही धराड़ी प्रथा है।  






6 मुर्गा मार लड़ाई


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"मुर्गा मार लडाई" देखने में बहुत रोमांचक सा है। गांव कस्बों में अभी भी यह मनोरंजन का साधन है । खासकर  झारखंड के ज्यादातर शहरी बाजारों और मेलों में "मुर्गा मार लडाई" का आयोजन होता है।  कई इलाकों में मुर्गामार प्रतियोगिता होती है। ल़डने के लिए मुर्गा को खास तौर से प्रशिक्षित किया जाता है। उसके खान-पान पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है। झारखंड के लोहरदगा, गुमला, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम, सिमडेगा कोडरमा, लातेहार चतरा रामगढ, धुर्वा सहित कई जिलों में इस ल़डाई को आदिवासियों की संस्कृति से जुड़ा है। मुर्गा मार ल़डाई के लिए खास मुर्गा बाजार लगाया जाता है। इतिहास में मुर्गा मार ल़डाई की कोई जानकारी नहीं है,  लेकिन आदिवासी समाज में मुर्गा मार ल़डाई कई पीढि़यों से मनोरंजन का साधन बना हुआ है। इस मुर्गामार युद्ध के चलते हर साल लाखों मुर्गे  मनोरंजन के नाम पर बेमौत मारे जाते है।


 

 

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7 मंदिरों का शहर इचाक

झारखंड के दूमका जिले में मलूटी गांव जैसा ही हजारीबाग से मात्र 20 किलोमीटर दूर एक गांव है इचाक। इसे मंदिरों का शहर कहा जाता है। 200  से भी अधिक वर्षों तक इस क्षेत्र पर शासन करने वाले सिंह परिवार ने इचाक गांव में अनगिनत मंदिरों का निर्माण कराया। बाद में इचाक से हटकर रामगढ़ में अपनी राजधानी स्थापित  किया। एक समय इचाक में करीब 174 मंदिर थे। देखरेख के भाव में ज्यादातर मंदिर खंडहर से हो गए है।
शायद जल्दी 18 वीं सदी के बारे में मंदिर की इमारत वास्तुकला के लिए उनके शानदार योगदान के सबूत हैं। मंदिरों की शैली नगारा और मस्जिद गुबदों पर मुगल प्रभाव प्रकट होता है।  
  











 सीता, राम और लक्ष्मण  की संमरमरी मूर्ति







नीचे आम जनता और सरकार की ओर से सूना और किसी का ध्यान नहीं जो झूठ कई मंदिरों में से केवल कुछ की तस्वीरें हैं:



इचाक का विख्यात 'सूर्य मंदिर'




महादेव मंदिर

भैरव मंदिर

महिमा मंडित महादेव मंदिर


भैरव मंदिर में एक कुत्ते पर बैठे भगवान भैरव


इराक का प्राचीन भैरव मंदिर


महादेव मंदिर



भगवती मंदिर परिसर


मस्जिद शैली  में भगवती मंदिर परिसर का एक मंदिर है


एक अज्ञात प्राचीन मंदिर खंडहर हाल में है।



कई टैंकों में से रानी तालाब  



एक मंदिर जिसे ब्रिटिश काल के डीसी कार्यालय बना दिया गया ।

 

8   केले के पेड़ से शादी :
भारत में कन्याओं के मांगलिक दोष को सबसे बड़ा दोष माना जाता है। अगर किसी व्‍यक्ति या लड़की को यह दोष होता है तो उसकी शादी में आम तौर पर बड़ी दिक्कते आती है. वैधव्य से बचाने के ले मांगलिक (मंगली और मंगला)दुल्हा दुल्हन की खओज की जाती है। माना जाता है कि जो मांग्लिक नहीं होगा तो मंगल के प्रकोप से आसामयिक मर जाएगा। इसके निवारण के लिए बहुतसे कठिन उपाय किए और कराए जाते है, मगर लड़के को पहले केले के पेड़ से शादी  कराई जाती , र लड़की को आमतौर पर कुता या किसी पखु से ब्याहा जाका है। ताकि उसके ऊपर से मांगलिक दोष खत्म हो जाए। आमतौर पर लोक मान्यत्ता है कि दोष को दूर करने का यह सबसे अच्‍छा तरीका है।

रविवार, 25 अक्तूबर 2015

अनामी 7





अनामी रिपोर्ट- 7
25 अक्टूबर


इसे भगवान का बाग मानते हैं लोग




स्वच्छ भारत मुहिम के बावजूद सफाई के मामले में हमारा देश बहुत पीछे है, लेकिन हमारे देश में एक ऐसा भी गांव है जो शायद सबसे साफ़ सुथरा गांव है।  इस गांव को भगवान का बगीचा कहा जाता है। यह गांव है मेघालय के शिलॉंग और भारत-बांग्लादेश बॉर्डर से 90 किलोमीटर दूर हिल्स डिस्ट्रिक्ट में मावल्यान्नॉंग है। यह खासी जनजातियों का गांव  है। सफाई के साथ ही यह गांव साक्षरता में भी अव्वल है। यहां केवल पर 195 परिवार रहते है। इनकी आजीविका का मुख्य साधन पान के साथ खाने वाले सुपारी का उत्पादन है। गांव के चारो तरफ सैकड़ों बाग हैं, जिसके सुपारी लगा है। हरियाली के बीच यहां लोग घरेलू कूड़े-कचरे को भी बांस के डस्टबिन में जमा करके खाद की तरह  इस्तेमाल किया जाता है। कूडे के सार्थक उपयोग के चलते .चारो तरफ सफाई और हरियाली है। पूरा गांव एक साफ मंदिर सा प्रतीत होता है, जिससे आस पास के लोग इस गांव को भगवान का बगीचा मानते है।.

केवल पुरूष ही जा सकते हैं मंदिर में


मध्यप्रदेश के श्योपुर से 3 किमी दूर एकगांव है  जाटखेड़ा। जहां पर है  पार्वती माता मंदिर है। इसकी सीढ़ियों में महिलाओं को चढ़ने की इजाजत नही है। साथ ही इस मंदिर में लाल रंग की चुनर चढ़ाने पर रोक है। उल्लेखनीय है कि पार्वती माता को लाल रंग चुनरी प्रिय है। अज्ञात कारणों से पास के दुर्गा मंदिरक में भी महिलाएं नही जाती है। कहा जाता है कि इससे मां क्रोधित होकर दंडित करती है। माता पार्वती मंदिर के बारे में कहा जाता है कि कोई महिला यदि अंदर जानें की कोशिश करती है,  तो मां कोध्रित होकर मधुमक्खी के डंक से दंडित करती है। अलबत्ता मां पार्वती का श्रृंगार केवल केवल पुरुष करते है। मां पर केवल सफेद और पीली चुनर और इसी रंग के फूल चढ़ाया जाता है। माता का श्रृंगार, यहां पर महिलाएं  बाहर से ही दर्शन कर लौट जाती है।

जलाभिषेक का रहस्य

राजकोट के पास जरिया महादेव का मंदिर है, जहां पर 24 घंटे पत्थरों से पानी निकलता है और इसी पानी से महादेव का जलाभिषेक भी होता है। हैरानी तो यह है कि मंदिर के आस-पास में कहीं भी पानी का कोई स्रोत नहीं है। मंदिर में स्थापित महादेव की मूर्ति के सिर पर हमेशा जलाभिषेक सा पानी रिसता रहता है। इसी पानी से महादेव पर जल चढ़ाया जाता है. शीतल निर्मल और स्वच्छ उस जल को श्रद्दालु प्रसाद की तरह पीते है। मूर्ति के उपर से निरंतर पानी का रिसाव आम नागरिकों मंदिर प्रंबंधको समेत वैज्ञानिकों को भी हैरानी है, मगर.इसका रहस्य आज भी बरकरार है।

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यह है मंदिरों का गांव मलूटी

भारत के झारखंड में एक गांव केवल मंदिरों का है। यहां आकर जिधर भी देखा जाए तो उधर मंदिर और केवल मंदिर ही दिखते हैं। चारो तरफ मंदिर ही मंदिर वाला यह गांव झारखंड के दुमका जिले में है। यहां के शिकारीपाड़ा के पास एक छोटा सा गांव मलूटी। जहां पर प्राचीन काल के 108 प्राचीन मंदिर है। हालांकि ठीक ढंग से संरक्षण और रखरखाव के अभाव से अब यहां पर 72  मंदिर ही रह गए है। ये मंदिर छोटे-छोटे लाल सुर्ख ईटों से निर्मित है और जिनकी ऊंचाई 15 फीट से लेकर 60 फीट तक हैं। इन मंदिरों की दीवारों पर रामायण-महाभारत के दृ़श्यों का चित्रण भी बेहद खूबसूरती से किया गया है। इस गांव को गुप्त काशी भी कहा जाता है। यहां पर अधिक मात्रा में पर्यटक आते है, इसके बावजूद गांव के विकास मंदिरों का रऱरखाव और परिवहन साधनों की कमी है।

एक श्राप के कारण 170 सालों से हैं वीरान
हमारे देश भारत के कई शहर अपने दामन में कई रहस्यमयी घटनाओ को समेटे हुए है ऐसी ही एक घटना हैं राजस्थान के जैसलमेर जिले के  गांव कुलधरा की। पिछले 170 सालों से यह गांव वीरान हैं। कहा जाता है कि कुलधरा गांव के सैकड़ों पालीवाल ब्राह्मण परिवार लोग एक ही रात मे इस गांव को एकाएक खाली कर कहीं चले गए थे।  जाते-जाते  यह श्राप दे गए कि यहां फिर कभी कोई नहीं बस पाएगा। तब से ही यह गांव वीरान पड़ा हैं। यहां रहने वाले पालीवाल ब्राह्मणों की आहट आज भी सुनाई देती है।  कभी एक हंसता खेलता मुस्कुराता गांव अब खंडहर सा है | हालांकि दूर दूर के पर्यटक इस विरान गांव को देखने रोजाना पहुचंते है। उन्हें यहां हर पल ऐसा अनुभव होता है कि कोई आसपास चल रहा है। हालांकि पर्यटकों को कभी किसी तरह की दिक्कत नहीं हुई, मगर आसपास के लोग गांव को लेकर आशंकित रहते है।


जुर्माने वाला गांव / इस गांव का कुछ भी छुआ तो 1000 रुपए का जुर्माना

हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के अति दुर्गम इलाके में  एक गांव है मलाणा है। जहों बाहर से आने वाले लोगों ने इस गांव के किसी भी सामान को छूनै का अधिकार नहीं है, र यदि कुछ छूआ तो उस पर जुर्माना लगता है। यहां पर देश कानून नही यहां का अपना कानून हैं। मलाणा गांव के लोग खुद को सिकंदर का वंशज मानते है। यह इकलौता गांव है जहां पर सम्राट अकबर की पूजा की जाती है। विचित्र पंरपराओे वाले इस गांव की में हर साल हजारों पर्यटक आते है। लेकिन वो यहां कि कोई चीज नही छू सकते है,  अगर छुआ तो 1000 से 25000  तक का जुर्माना लगता है जो गांव के हर जगह बोर्ड में लिखा हुआ है। अगर किसी को दुकान से कुछ खरीदना भी है तो उसे दुकानदार दुकान के बाहर ही सामान देता है. और दुकान के बाहर ही पैसे को रखना पडता है। इस प्रथा के कारण यह गांव आस पास से कट सा गया है।



विरान होता जा रहा है अंग्रेजों का इकलौता गांव मैकलुस्कीगांव
यह गांव कहलाता है मिनी लंदन
झारखंड की राजधानी रांची से करीब 70   किलोमीटर दूर रामगढ बरकाकाना रेलवे स्टेशन से 30 किलोमीटर दूर रेलमार्ग एक गांव है मैक्लुस्कीगंज । एंग्लो इंडियन समुदाय की इकलौती गांव है। एक समय था जब इसे कभी मिनी लंदन भी कहा जाता है। पश्चिमी संस्कृति के रंग-ढंग और गोरे लोगों के कारण इसे लंदन का एक इलाका सा लगता था। आसपास के लोग इसे मिनी लंदन ही कहा करते थे।  आजादी के बाद से मैकलुस्कीगंज को भी बुरे दिन देखने पड़ रहे है। जब एक - एक करके एंग्लो-इंडियन परिवार मैकलुस्कीगंज को छोड़ते चले गए। अब यहां पर मात्र 20-25  एंग्लो परिवार ही रह गए है। यहां के खाली बंगलों के कारण इसे भूतों का गांव भी कहा जाता है। मैकलुस्कीगंज पर उपन्यास लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार विकास कुमार झा इसे अतीत का खंडहर कहते है।  फिर भी यहां के गिने-चुने लोग मैकलुस्कीगंज को फिर से आबार करने में लगे हैं, ताकि मैकलुस्कीगंज को खत्म होने से बचाया जा सके।।

टंकी वाला गांव


हर घर छत की पर है नमूनेदार पानी की टंकी

पंजाब के जालंधर के पास एक गांव है उप्पलां।  जिसे टंकियों वाला गांव कहा जाता है । यहां के हर घर की पहचान उनके  घरों पर बनी पानी की नमूनेदार टंकियों से होती है। यहां के मकानों की छतों पर आम वाटर टैंक नहीं है, बल्कि यहां पर शिप, हवाईजहाज़, घोडा, गुलाब, कार, बस आदि अनेकों आकर की टंकिया शोभायमान है। अधिकतर लोग पैसा कमाने लिए विदेशों में है। गांव में खास तौर पर एनआरआई  की कोठियां की छत पर इस तरह की टंकिया बनवाई गयी है। कोठी पर रखी गयी नाना प्रकार की टंकियों से ही उसकी पहचान है। इसकी शुरूआत करीब 70 साल पहलें हांगकांग  जाने वाले तरसेम सिंह ने की थी। अपनी कोठी को उपर पानी जहाजनुमा टंकी बनवाया।  जिसे लोगों ने पसंद किया और अब यहां के 200 से भी अधिक कोठियों में अलग तरीके की टंकी दिखती है।.