अनामी रिपोर्ट- 7
25 अक्टूबर
इसे भगवान का बाग मानते हैं लोग
स्वच्छ भारत मुहिम के बावजूद सफाई के मामले में हमारा देश बहुत
पीछे है, लेकिन हमारे देश में एक ऐसा भी
गांव है जो शायद सबसे साफ़ सुथरा गांव
है। इस गांव को भगवान का बगीचा कहा जाता है।
यह गांव है मेघालय के शिलॉंग और भारत-बांग्लादेश बॉर्डर से 90 किलोमीटर दूर हिल्स
डिस्ट्रिक्ट
में
मावल्यान्नॉंग है। यह खासी जनजातियों का
गांव है। सफाई के साथ ही यह गांव साक्षरता
में भी अव्वल है। यहां केवल पर 195
परिवार रहते है। इनकी आजीविका का मुख्य साधन
पान के साथ खाने वाले सुपारी का उत्पादन है। गांव के चारो तरफ सैकड़ों बाग हैं, जिसके
सुपारी लगा है। हरियाली के बीच यहां लोग घरेलू कूड़े-कचरे को भी बांस के डस्टबिन
में जमा करके खाद की तरह इस्तेमाल किया
जाता है। कूडे के सार्थक उपयोग के चलते .चारो तरफ सफाई और हरियाली है। पूरा गांव
एक साफ मंदिर सा प्रतीत होता है, जिससे आस पास के लोग इस गांव को भगवान का बगीचा
मानते है।.
केवल पुरूष ही जा सकते हैं मंदिर में
जलाभिषेक का रहस्य
राजकोट के पास जरिया महादेव का मंदिर है, जहां पर 24 घंटे पत्थरों से पानी निकलता है और इसी पानी से महादेव का जलाभिषेक भी होता है। हैरानी तो यह है कि मंदिर के आस-पास में कहीं भी पानी का कोई स्रोत नहीं है। मंदिर में स्थापित महादेव की मूर्ति के सिर पर हमेशा जलाभिषेक सा पानी रिसता रहता है। इसी पानी से महादेव पर जल चढ़ाया जाता है. शीतल निर्मल और स्वच्छ उस जल को श्रद्दालु प्रसाद की तरह पीते है। मूर्ति के उपर से निरंतर पानी का रिसाव आम नागरिकों मंदिर प्रंबंधको समेत वैज्ञानिकों को भी हैरानी है, मगर.इसका रहस्य आज भी बरकरार है।
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यह है मंदिरों का गांव मलूटी
भारत के झारखंड में एक गांव केवल मंदिरों का है। यहां आकर जिधर भी देखा जाए तो उधर मंदिर और केवल मंदिर ही दिखते हैं। चारो तरफ मंदिर ही मंदिर वाला यह गांव झारखंड के दुमका जिले में है। यहां के शिकारीपाड़ा के पास एक छोटा सा गांव मलूटी। जहां पर प्राचीन काल के 108 प्राचीन मंदिर है। हालांकि ठीक ढंग से संरक्षण और रखरखाव के अभाव से अब यहां पर 72 मंदिर ही रह गए है। ये मंदिर छोटे-छोटे लाल सुर्ख ईटों से निर्मित है और जिनकी ऊंचाई 15 फीट से लेकर 60 फीट तक हैं। इन मंदिरों की दीवारों पर रामायण-महाभारत के दृ़श्यों का चित्रण भी बेहद खूबसूरती से किया गया है। इस गांव को गुप्त काशी भी कहा जाता है। यहां पर अधिक मात्रा में पर्यटक आते है, इसके बावजूद गांव के विकास मंदिरों का रऱरखाव और परिवहन साधनों की कमी है।
एक श्राप के कारण 170 सालों से हैं वीरान
हमारे देश भारत के कई शहर अपने दामन में कई रहस्यमयी घटनाओ को समेटे हुए है ऐसी ही एक घटना हैं राजस्थान के जैसलमेर जिले के गांव कुलधरा की। पिछले 170 सालों से यह गांव वीरान हैं। कहा जाता है कि कुलधरा गांव के सैकड़ों पालीवाल ब्राह्मण परिवार लोग एक ही रात मे इस गांव को एकाएक खाली कर कहीं चले गए थे। जाते-जाते यह श्राप दे गए कि यहां फिर कभी कोई नहीं बस पाएगा। तब से ही यह गांव वीरान पड़ा हैं। यहां रहने वाले पालीवाल ब्राह्मणों की आहट आज भी सुनाई देती है। कभी एक हंसता खेलता मुस्कुराता गांव अब खंडहर सा है | हालांकि दूर दूर के पर्यटक इस विरान गांव को देखने रोजाना पहुचंते है। उन्हें यहां हर पल ऐसा अनुभव होता है कि कोई आसपास चल रहा है। हालांकि पर्यटकों को कभी किसी तरह की दिक्कत नहीं हुई, मगर आसपास के लोग गांव को लेकर आशंकित रहते है।
जुर्माने वाला गांव / इस गांव का कुछ भी छुआ तो 1000 रुपए का जुर्माना
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के अति दुर्गम इलाके में एक गांव है मलाणा है। जहों बाहर से आने वाले लोगों ने इस गांव के किसी भी सामान को छूनै का अधिकार नहीं है, र यदि कुछ छूआ तो उस पर जुर्माना लगता है। यहां पर देश कानून नही यहां का अपना कानून हैं। मलाणा गांव के लोग खुद को सिकंदर का वंशज मानते है। यह इकलौता गांव है जहां पर सम्राट अकबर की पूजा की जाती है। विचित्र पंरपराओे वाले इस गांव की में हर साल हजारों पर्यटक आते है। लेकिन वो यहां कि कोई चीज नही छू सकते है, अगर छुआ तो 1000 से 25000 तक का जुर्माना लगता है जो गांव के हर जगह बोर्ड में लिखा हुआ है। अगर किसी को दुकान से कुछ खरीदना भी है तो उसे दुकानदार दुकान के बाहर ही सामान देता है. और दुकान के बाहर ही पैसे को रखना पडता है। इस प्रथा के कारण यह गांव आस पास से कट सा गया है।
विरान होता जा रहा है अंग्रेजों का इकलौता गांव मैकलुस्कीगांव
यह गांव कहलाता है ‘मिनी
लंदन’
झारखंड की राजधानी रांची से करीब 70 किलोमीटर दूर रामगढ बरकाकाना रेलवे स्टेशन से 30 किलोमीटर दूर रेलमार्ग एक गांव है मैक्लुस्कीगंज । एंग्लो इंडियन समुदाय की इकलौती गांव है। एक समय था जब इसे कभी मिनी लंदन भी कहा जाता है। पश्चिमी संस्कृति के रंग-ढंग और गोरे लोगों के कारण इसे लंदन का एक इलाका सा लगता था। आसपास के लोग इसे मिनी लंदन ही कहा करते थे। आजादी के बाद से मैकलुस्कीगंज को भी बुरे दिन देखने पड़ रहे है। जब एक - एक करके एंग्लो-इंडियन परिवार मैकलुस्कीगंज को छोड़ते चले गए। अब यहां पर मात्र 20-25 एंग्लो परिवार ही रह गए है। यहां के खाली बंगलों के कारण इसे भूतों का गांव भी कहा जाता है। मैकलुस्कीगंज पर उपन्यास लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार विकास कुमार झा इसे अतीत का खंडहर कहते है। फिर भी यहां के गिने-चुने लोग मैकलुस्कीगंज को फिर से आबार करने में लगे हैं, ताकि मैकलुस्कीगंज को खत्म होने से बचाया जा सके।।
झारखंड की राजधानी रांची से करीब 70 किलोमीटर दूर रामगढ बरकाकाना रेलवे स्टेशन से 30 किलोमीटर दूर रेलमार्ग एक गांव है मैक्लुस्कीगंज । एंग्लो इंडियन समुदाय की इकलौती गांव है। एक समय था जब इसे कभी मिनी लंदन भी कहा जाता है। पश्चिमी संस्कृति के रंग-ढंग और गोरे लोगों के कारण इसे लंदन का एक इलाका सा लगता था। आसपास के लोग इसे मिनी लंदन ही कहा करते थे। आजादी के बाद से मैकलुस्कीगंज को भी बुरे दिन देखने पड़ रहे है। जब एक - एक करके एंग्लो-इंडियन परिवार मैकलुस्कीगंज को छोड़ते चले गए। अब यहां पर मात्र 20-25 एंग्लो परिवार ही रह गए है। यहां के खाली बंगलों के कारण इसे भूतों का गांव भी कहा जाता है। मैकलुस्कीगंज पर उपन्यास लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार विकास कुमार झा इसे अतीत का खंडहर कहते है। फिर भी यहां के गिने-चुने लोग मैकलुस्कीगंज को फिर से आबार करने में लगे हैं, ताकि मैकलुस्कीगंज को खत्म होने से बचाया जा सके।।
टंकी वाला गांव
हर घर छत की पर है नमूनेदार पानी की टंकी
पंजाब के जालंधर के पास एक गांव है उप्पलां। जिसे टंकियों वाला गांव कहा जाता है । यहां के
हर घर की पहचान उनके घरों
पर बनी पानी की नमूनेदार टंकियों से होती है। यहां के मकानों की छतों पर आम वाटर टैंक नहीं है, बल्कि यहां पर शिप, हवाईजहाज़,
घोडा, गुलाब, कार,
बस आदि अनेकों आकर की टंकिया शोभायमान
है। अधिकतर लोग पैसा कमाने लिए विदेशों में है। गांव में खास तौर पर एनआरआई की
कोठियां की छत पर इस तरह की टंकिया बनवाई गयी है। कोठी पर रखी गयी नाना प्रकार की टंकियों से ही उसकी पहचान है। इसकी
शुरूआत करीब 70 साल पहलें हांगकांग जाने वाले तरसेम सिंह ने की थी। अपनी कोठी को
उपर पानी जहाजनुमा टंकी बनवाया। जिसे
लोगों ने पसंद किया और अब यहां के 200 से भी अधिक कोठियों में अलग तरीके की टंकी
दिखती है।.
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